महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-156
दिखावट
← आरण्यकपर्व-155 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-156 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-157 → |
दुर्निमित्तप्रदर्शिना भीमसेनानवलोकिना च युधिष्ठिरेण द्रौपदींप्रतिभीमाभिगतदेशप्रश्नः ।। 1 ।। द्रौपद्या भीमचिकीर्षितं निवेदितेन युधिष्ठिरेण घटोत्कचसाहाय्येन भीमसमीपगमनम् ।। 2 ।। कुबेरबहुमानितैस्तैरर्जुनदिदृक्षया तत्रैव सुखेन विहरणम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-156-1x |
ततस्तानि महार्हाणि दिव्यानि भरतर्षभ। बहूनि बहुरूपाणि विरजांसि समाददे ।। | 3-156-1a 3-156-1b |
ततो वायुर्महाञ्शीघ्रो नीचैः शर्करकर्षणः। प्रादुरासीद्वरस्पर्शः संग्राममभिचोदयन् ।। | 3-156-2a 3-156-2b |
पपात महती चोल्का सनिर्घाता महाभया। निष्प्रभश्चाभवत्सूर्यंश्छन्नरश्मिस्तमोवृतः ।। | 3-156-3a 3-156-3b |
निर्घातश्चाभवद्भीमो भीमे विक्रममास्थिते। चचाल पृथिवी चापि पांसुवर्षं पपात च ।। | 3-156-4a 3-156-4b |
सलोहिता दिशश्चासन्खरवाचो मृगद्विजाः। तमोवृतमभूत्सर्वं न प्राज्ञायत किंचन। | 3-156-5a 3-156-5b |
[अन्ये च बहवो भीमा उत्पातास्तत्र जज्ञिरे ।।] तदद्भुतमभिप्रेक्ष्य धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। उवाच वदतां श्रेष्ठः कोऽस्मानभिभविष्यति ।। | 3-156-6a 3-156-6b 3-156-6c |
सज्जीभवत भद्रं वः पाण्डवा युद्धदुर्मदाः। यथा रूपाणि पश्यामि सुव्यक्तो नः पराक्रमः ।। | 3-156-7a 3-156-7b |
एवमुक्त्वा ततो राजा वीक्षांचक्रे समन्ततः। अपश्यमानो भीमं तु धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।। | 3-156-8a 3-156-8b |
ततः कृष्णां यमौ चापि समीपस्थानरिंदमः। पप्रच्छ भ्रातरं भीमं भीमकर्माणमाहवे ।। | 3-156-9a 3-156-9b |
कच्चिन्न भीमः पाञ्चालि किंच कृत्यं चिकीर्षति। कृतवानपि वा वीर साहसं साहसप्रियः ।। | 3-156-10a 3-156-10b |
इमे ह्यकस्मादुत्पाता महासमरशंसिनः। दर्शयन्तो भयं तीव्रं प्रादुर्भूताः समन्ततः ।। | 3-156-11a 3-156-11b |
तं तथावादिनं कृष्णा प्रत्युवाच मनस्विनी। प्रिया प्रियं चिकीर्षन्ती महिषी चारुहासिनी ।। | 3-156-12a 3-156-12b |
यत्तत्सौगन्धिकं राजन्नाहृतं मातरिश्वना। तन्मया भीमसेनस्य प्रीतयाऽद्योपपादितम् ।। | 3-156-13a 3-156-13b |
अपि चोक्तो मया वीरो यदिपश्येर्बहून्यपि। तानि सर्वाणअयुपादाय शीघ्रमागम्यतामिति ।। | 3-156-14a 3-156-14b |
स तु नूनं महाबाहुः प्रियार्थं मम पाण्डवः। प्रागुदीचीं दिशं राजंस्तान्याहर्तुमितो गतः ।। | 3-156-15a 3-156-15b |
उक्तस्त्वेवं तया राजा यमाविदमथाब्रवीत्। गच्छाम सहितास्तूर्णं येन यातो वृकोदरः ।। | 3-156-16a 3-156-16b |
वहन्तु राक्षसा विप्रान्यथाश्रान्तान्यथाकृशान्। त्वमप्यमरसंकाश वह कृष्णां घटोत्कच ।। | 3-156-17a 3-156-17b |
व्यक्तं दूरमितो भीमः प्रविष्ट इतिमे मतिः। चिरं चतस्य कालोऽयं स च वायुसमो जवे ।। | 3-156-18a 3-156-18b |
तरस्वी वैनतेयस्य सदृशो भुवि लङ्घने। उत्पतेदपिचाकाशं निपतेच्चयथेच्छकम् ।। | 3-156-19a 3-156-19b |
तमन्वियाम भवतां प्रभावाद्रजनीचराः। पुरा स नापराध्नोति सिद्धानां ब्रह्मवादिनाम् ।। | 3-156-20a 3-156-20b |
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वेहैडिम्बप्रमुखास्तदा। उद्देशज्ञाः कुबेरस्य नलिन्या भरतर्षभ ।। | 3-156-21a 3-156-21b |
आदाय पाण्डवांश्चैव तांश्च विप्राननेकशः। लोमशेनैव सहिताः प्रययुः प्रीतमानसाः ।। | 3-156-22a 3-156-22b |
ते सर्वे त्वरिता गत्वा ददृशुस्तत्र कानने। पद्मसौगन्धिकवतींनलिनीं सुमनोरमाम् ।। | 3-156-23a 3-156-23b |
तं च भीमं महात्मानं तस्यास्तीरे व्यवस्थितम्। ददृशुर्निहतांश्चैव यक्षांश्च विपुलेक्षणान् ।। | 3-156-24a 3-156-24b |
भिन्नकायाक्षिबाहूरुन्संचूर्णितशिरोधरान्। तं च भीमं महात्मानं तस्यास्तीरे व्यवस्थितम् ।। | 3-156-25a 3-156-25b |
सक्रोधं स्तव्धनयनं संदष्टदशनच्छदम्। उद्यम्य च गदां दोर्भ्यां नदीतीरे व्यवस्थितम् ।। | 3-156-26a 3-156-26b |
प्रजासंक्षेपसमये दण्डहस्तमिवान्तकम्। तं दृष्ट्वा धर्मराजस्तु परिष्वज्याथ भारत ।। | 3-156-27a 3-156-27b |
उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेय किमिदं कृतम्। साहसं वत भद्रं ते देवानामपि चाप्रियम्। पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ।। | 3-156-28a 3-156-28b 3-156-28c |
अनुशिष्य तु कौन्तेयं पद्मानि परिगृह्य च। तस्यामेव नलिन्यां तु विजह्ररमरोपमाः ।। | 3-156-29a 3-156-29b |
एतस्मिन्नैव काले तु प्रगृहीतशिलायुधाः। प्रादुरासन्महाकायास्तस्योद्यानस्य रक्षिणः ।। | 3-156-30a 3-156-30b |
ते दृष्ट्वाधर्मराजानं महर्षिं चापि लोमशम्। नकुलं सहदेवं च तथाऽन्यान्ब्राह्मणर्षभान् ।। | 3-156-31a 3-156-31b |
विनयेन नताः सर्वेप्रणिपत्य च भारत। सान्त्विता धर्मराजेन प्रसेदुः क्षणदाचराः ।। | 3-156-32a 3-156-32b |
विदिताश्चकुबेरस्य तत्रते कुरुपुङ्गवाः। ऊषुर्नातिचिरं कालं रममाणाः कुरूद्वहाः। प्रतीक्षमाणआ बीभत्सुं गन्धमादनसानुषु ।। | 3-156-33a 3-156-33b 3-156-33c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽष्यायः ।। 156 ।। |
3-156-7 पराक्रमः पराक्रमकालः ।। 3-156-21 उद्देशज्ञाः स्थलज्ञाः ।।
आरण्यकपर्व-155 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-157 |