महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-122
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लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति पयोष्णोतटे गयकृतयागवर्णनम् ।। 1 ।। तथा च्यवनेन शर्यातियाजनादिकथनम् ।। 2 ।। युधिष्ठिरेण लोमशंप्रतिसविस्तरं च्यवनचरित्रकीर्तनप्रार्थना ।। 3 ।।
लोमश उवाच। | 3-122-1x |
गयेन यजमानेन सोमेनेह पुरंदरः। तर्पित श्रूयते राजन्स तृप्तो मुदमभ्यगात् ।। | 3-122-1a 3-122-1b |
इह देवैः सहेन्द्रैश्च प्रजापतिभिरेव च। इष्टं बहुविधैर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः ।। | 3-122-2a 3-122-2b |
आधूर्तरजसश्चेह राजा वज्रधरं प्रभुः। तर्पयामास सोमेन हयमेधेषु सप्तसु ।। | 3-122-3a 3-122-3b |
तस्य सप्तसु यज्ञेषु सर्वमासीद्धिरण्ययम्। वानप्रस्थं च भौमं च यद्द्रव्यं नियतं मखे ।। | 3-122-4a 3-122-4b |
चषालयूपचमसाः स्थाल्यः पात्र्यः स्रुचः स्रुवाः। तेष्वेव चास्य यज्ञेषु प्रयोगाः सप्त विश्रुताः ।। | 3-122-5a 3-122-5b |
सप्तैकैकस्ययूपस्य चषालाश्चोपरिश्थिताः। तस्य स्म यूपान्यज्ञेषु भ्राजमानान्हिरण्मयान्। स्वयमुत्थापयामासुर्देवाः सेन्द्रा युधिष्ठिर ।। | 3-122-6a 3-122-6b 3-122-6c |
तेषु तस्य मखाग्र्येषु गयस्य पृथिवीपतेः। अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।। | 3-122-7a 3-122-7b |
प्रसङ्ख्यानानसङ्ख्येयान्प्रत्यगृह्णन्द्विजातयः ।। | 3-122-8a |
सिकता वा यथा लोके यथावा दिवि तारकाः। यथा वा वर्षतो धारा असङ्ख्येयाः स्म केनचित् ।। | 3-122-9a 3-122-9b |
तथैव तदसङ्ख्येयं धनं यत्प्रददौ गयः। सदस्येभ्यो महाराज तेषु यज्ञेषु सप्तसु ।। | 3-122-10a 3-122-10b |
भवेत्सङ्ख्येयमेतद्धि यदेतत्परिकीर्तितम्। न तस्य शक्याः सङ्ख्यातुं दक्षिणादक्षिणावतः ।। | 3-122-11a 3-122-11b |
हिरण्मयीभिर्गोभिश्च कृताभिर्विश्वकर्मणा। ब्राह्मणांस्तर्पयामास नानादिग्भ्यः समागतान् ।। | 3-122-12a 3-122-12b |
अल्पावशेषा पृथिवी चैत्यैरासीत्समाचिता। गयस्य यजमानस्य तत्रतत्र विशांपते ।। | 3-122-13a 3-122-13b |
स लोकान्प्राप्तवैनैन्द्रान्कर्मणा तेन भरत। सलोकतां तस्य गच्छेत्पयोष्ण्यां य उपस्पृशेत् ।। | 3-122-14a 3-122-14b |
तरस्मात्त्वमत्र राजेनद्र भ्रातृभिः सहितोच्युत। उपस्पृश्य महीपाल धूतपाप्मा भविष्यसि ।। | 3-122-15a 3-122-15b |
वैशंपायन उवाच। | 3-122-16x |
स पयोष्ण्यां नरश्रेष्ठः स्नात्वा वै भ्रातृभिः सह। वैदूर्यपर्वतं चैव नर्मदां च महानदीम् ।। | 3-122-16a 3-122-16b |
`उद्दिश्य पाण्डवश्रेष्ठः स प्रतस्थे महीपतिः'। समागमत तेजस्वी भ्रातृभिः सहितो नघ ।। | 3-122-17a 3-122-17b |
तत्रास्य सर्वाण्याचख्यौ लोमशो भगवानृषिः। तीर्थानि रमणीयानि पुण्यान्यायतनानि च ।। | 3-122-18a 3-122-18b |
यथायोगं यथाप्रीति प्रययौ भ्रातृभिः सह। तत्रतत्राददद्वित्तं ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः ।। | 3-122-19a 3-122-19b |
लोमश उवाच। | 3-122-20x |
देवानामेति कौन्तेय तथा राज्ञां सलोकताम्। वेदूर्यपर्वतं दृष्ट्वा नर्मदामवतीर्य च ।। | 3-122-20a 3-122-20b |
सन्धिरेष नरश्रेष्ठ त्रेताया द्वापरस्य च। एनमासाद्य कौन्तेय सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-122-21a 3-122-21b |
एष शर्यातियज्ञस्य देशस्तात प्रकाशते। साक्षाद्यत्रापिबत्सोममश्विभ्यां सह वासवः ।। | 3-122-22a 3-122-22b |
चुकोप भार्गवश्चापि महेन्द्रस् महातपाः। संस्तम्भयामास च तं वासवं च्यवनः प्रभुः ।। | 3-122-23a 3-122-23b |
सुकन्यां चापि भार्यां स राजपुत्रीमवाप्तवान्। `नासत्यौ च महाभाग कृतवान्सोमपीथिवौ' ।। | 3-122-24a 3-122-24b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-122-25x |
कथं विष्टम्भितस्तेन भगवान्पाकशासनः। किमर्थं भार्गवश्चापि कोपं चक्रे महातपाः ।। | 3-122-25a 3-122-25b |
नासत्यौ च कथं ब्रह्मन्कृतवान्सोमपीथिनौ। एतत्सर्वं यथावृत्तमाख्यातु भगवान्मम ।। | 3-122-26a 3-122-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 122 ।। |
3-122-3 आधूर्तरजसो गयनामा ।। 3-122-4 वानरस्पत्यं वृक्षजं चषालादि। भौमं मृन्मयं स्थाल्यादि ।। 3-122-5 चषालो यूपाकटकः। यूपः यज्ञस्तम्भः। चमसाः सोमपानपात्राणि। पात्र्यः हविःस्थापनार्थानि मृन्मयानि। स्रुचः हविःप्रदानार्थाः। स्रुवाहविरवदानार्थाः ।। 3-122-8 प्रसङ्ख्यानान् एकयत्नेन भूयःखर्णमुद्रादेर्मापकान् खारीद्रोणादीन् ।। 3-122-26 सोमस्य पीथः पानं तद्वन्तौ सोमपीथिनौ ।।
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