महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-101
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समुद्रान्तर्हितैर्दैत्यै रात्रौरात्रौ बहिर्निर्गत्याश्रमेषु ऋषिगणेषु निहतेषु देवगणैर्नारायणस्य शरणीकरणम् ।। 1 ।।
लोमश उवाच। | 3-101-1x |
समुद्रं ते समाश्रित्य वरुणं निधमम्भसः। कालेयाः संप्रवर्तन्त त्रैलोक्यस्य विनाशने ।। | 3-101-1a 3-101-1b |
ते रात्रौ समभिक्रुद्धा भक्षयन्ति सदा मुनीन्। आश्रमेषु च ये सन्ति पुण्येष्वायतनेषु च ।। | 3-101-2a 3-101-2b |
वसिष्ठस्याश्रमे विप्रा भक्षितास्तैर्दुरात्मभिः। अशीतिः शतमष्टौ च नव चान्ये तपस्विनः ।। | 3-101-3a 3-101-3b |
च्यवनस्याश्रमं गत्वा पुण्यं द्विजनिषेवितम्। फलमूलाशनानां हि मुनीनां भक्षितं शतम् ।। | 3-101-4a 3-101-4b |
एवं रात्रौ स्म कुर्वन्ति विविशुश्चार्णवं दिवा। `कालेयास्ते दुरात्मानो भक्षयन्तस्तपोधनान्' ।। | 3-101-5a 3-101-5b |
भरद्वाजाश्रमे चैव नियता ब्र्हमचारिणः। वाय्वाहाराम्बुभक्षाश्च विंशतिः संनिषूदिताः ।। | 3-101-6a 3-101-6b |
एवं क्रमेण सर्वांस्तानाश्रमान्दानवास्तदा। निशायां परिबाधन्ते समुद्राम्बुबलाश्रयात्। कालोपसृष्टाः कालेया घ्नन्तो द्विजगणान्बहून् ।। | 3-101-7a 3-101-7b 3-101-7c |
न चैनानन्वबुध्यन्त मनुजा मनुजोत्तम। एवं प्रवृत्तान्दैत्यांस्तांस्तापसेषु तपस्विषु ।। | 3-101-8a 3-101-8b |
`क्षयाय जगतः क्रूराः पर्यटन्ति स्म मेदिनीम् ।। | 3-101-9a |
प्रभाते समदृश्यन्त नियताहारकर्शिताः। महीतलस्था मुनयः शरीरैर्गतजीवितैः ।। | 3-101-10a 3-101-10b |
क्षीणमांसैर्विरुधिरैर्विमज्जान्त्रैर्विसन्धिभिः। आकीर्णैराचिता भूमिः शङ्खानामिव राशिभिः ।। | 3-101-11a 3-101-11b |
लशैर्विप्रविद्धैश्च स्रुवैर्भग्नैस्तथैव च। विकीर्णैरग्निहोत्रैश्च भूर्बभूव समावृता ।। | 3-101-12a 3-101-12b |
निःस्वाध्यायवपट्कारं नष्टयज्ञोत्सवक्रियम्। जगदासीन्निरुत्साहं कालेयभयपीडितम् ।। | 3-101-13a 3-101-13b |
एवं संक्षीयमाणाश्च मानवा मनुजेश्वर। आत्मत्राणपपा भीताः प्राद्रवन्त दिशो भयात् ।। | 3-101-14a 3-101-14b |
केचिद्गुहाः प्रविविशुर्निर्भरांश्चापरे श्रिताः। अपरे मरणोद्विग्ना भयात्प्राणान्समुत्सृजन् ।। | 3-101-15a 3-101-15b |
केचिदत्रमहेष्वासाः शूराः परमहर्षिताः। मार्गमाणआः परं यत्नं दानवानां प्रचक्रिरे ।। | 3-101-16a 3-101-16b |
न चैतानधिजग्मुस्ते समुद्रं समुपाश्रितान्। श्रमं जग्मुश्च परममाजग्मुः क्षयमेव च ।। | 3-101-17a 3-101-17b |
जगत्युपशमं याते नष्टयज्ञोत्सवक्रिये। आजग्मुः परमामार्तिं त्रिदशा मनुजेश्वर ।। | 3-101-18a 3-101-18b |
समेत्य समहेन्द्राश्च भयान्मन्त्रं प्रचक्रिरे ।। | 3-101-19a |
शरण्यं शरणं देवं नारायणमजं विभुम्। तेऽभिगम्य नमस्कृत्य वैकुण्ठमपराजितम्। ततो देवाः समस्तास्ते तदोचुर्मधुसूदनम् ।। | 3-101-20a 3-101-20b 3-101-20c |
त्वंनः स्रष्टा च भर्ता च हर्ता च जगतः प्रभो। त्वया सृष्टमिदं विश्वं यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति। `त्वय्येव पुण्डरीकाक्ष पुनस्तत्प्रविलीयते' ।। | 3-101-21a 3-101-21b 3-101-21c |
त्वया भूमिः पुरा नष्टा समुद्रात्पुष्करेक्षण। वाराहं वपुराश्रित्यजगदर्थे समुद्धृता ।। | 3-101-22a 3-101-22b |
आदिदैत्यो महावीर्यो हिरण्यकशिपुः पुरा। नारसिंहं वपुः कृत्वा सूदितः पुरुषोत्तम ।। | 3-101-23a 3-101-23b |
अवध्यः सर्वभूतानां बलिश्चापि महासुरः। वामनं वपुराश्रित्य त्रैलोक्याद्धंशितस्त्वया ।। | 3-101-24a 3-101-24b |
असुरश्च महेष्वासो जम्भ इत्यभिविश्रुतः। यज्ञक्षोभकरः क्रूरस्त्वयैव विनिपातितः ।। | 3-101-25a 3-101-25b |
एवमादीनि कर्माणि येषां संख्या न विद्यते। अस्माकं भयभीतानां त्वं गतिर्मधुसूदन ।। | 3-101-26a 3-101-26b |
तस्मात्त्वां देवदेवेश लोकार्थं ज्ञापयामहे। रक्ष लोकांश्च देवांश्च शक्रं च महतो भयात्। `शरणागतसंत्राणे त्वमेकोऽसि दृढव्रतः' ।। | 3-101-27a 3-101-27b 3-101-27c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकाधिकशततमोऽध्यायः ।। 101 ।। |
3-101-1 ---निश्चित्यैवमसुरा वज्रसंहारदुःखिता इति क. पाठः. ---- कालायाः कश्यपभार्यायाः पुत्राः ।। 1 ।। 3-101-7 सृष्टाः मृत्युना ग्रस्ताः ।। 3-101-16 दानवानां वधायेति शेषः ।। 3-101-21 इङ्गति चलतीति इङ्गं पचाद्यच् जङ्गमम्। नेङ्गति स्थावरम् ।।
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