महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-060
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वने चरन्त्या दमयन्त्या अजगरेण ग्रहणम् ।। 1 ।।
वनचरेण व्याधेन तां ग्रसतोऽजगरस्य वधः ।। 2 ।।
दमयन्त्या आत्मकामुकस्य तद्व्याधस्य स्वपातिव्रत्यमहिम्ना हननम् ।। 3 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-60-1x |
अपक्रान्ते नले राजन्दमयन्ती गतक्लमा। अबुध्यत वरारोहा संत्रस्ता विजने वने ।। | 3-60-1a 3-60-1b |
अपश्यमाना भर्तारं शोकदुःखसमन्विता। प्राक्रोशदुच्चैः संत्रस्ता महाराजेति नैषधम् ।। | 3-60-2a 3-60-2b |
हा नाथ हा महाराज हा स्वामिन्किं जहासि माम्। हा हताऽस्मि विनष्टाऽस्मि भीताऽस्मि विजने वने ।। | 3-60-3a 3-60-3b |
ननु नाम महारज धर्मज्ञः सत्यवागसि। कथंविधस्त्वंहि तथा सुप्तामुत्सृज्य मां गतः ।। | 3-60-4a 3-60-4b |
कथमुत्सृज्यगन्ताऽसि वश्यां भार्यामनुव्रताम्। विशेषतो नापकृतः परेणापकृतो ह्यसि ।। | 3-60-5a 3-60-5b |
शक्यसे न गिरः सत्याः कर्तुं मयि नरेश्वर। यास्त्वया लोकपालानां सन्निधौ कथिताः पुरा ।। | 3-60-6a 3-60-6b |
नाकाले विहितो मृत्युर्मर्त्यानां पुरुषर्षभ। यत्र कान्ता त्वयोत्सृष्टा मुहूर्तमपि जीवति ।। | 3-60-7a 3-60-7b |
पर्याप्तः परिहासोऽयमेतावान्पुरुषर्षभ। भृशं भीतास्मि दुर्धर्ष दर्शयात्मानमीश्वर ।। | 3-60-8a 3-60-8b |
दृश्यसे दृश्यसे राजन्नेष तिष्ठसि नैषध। आवार्य गुल्मैरात्मानं किं मां न प्रतिभाषसे ।। | 3-60-9a 3-60-9b |
नृशंसां वत राजेन्द्र यन्मामेवंगतामिह। विलपन्तीं समालिङ्ग्य नाश्वासयसि पार्थिव ।। | 3-60-10a 3-60-10b |
न शोचाम्यहमात्मानं न चान्यदपि किंचन। कथं नु भवितास्येक इति त्वां नृप शोचये ।। | 3-60-11a 3-60-11b |
कथं नु राजंस्तृषितः क्षुक्षितः श्रमकर्शितः। सायाह्ने वृक्षमूलेषु मामपश्यन्भविष्यसि ।। | 3-60-12a 3-60-12b |
ततः सा तीव्रशोकार्ता प्रदीप्तेव च मन्युना। इतश्चेतश्च रुदती पर्यधावत दुःखिता ।। | 3-60-13a 3-60-13b |
मुहुरुत्पतते बाला मुहुः पतति विह्वला। मुहुरालीयते भीता मुहुः क्रोशति रोदिति ।। | 3-60-14a 3-60-14b |
अतीव शोकसंतप्ता मुहुर्निःश्वस् विह्वला। उवाच भैमी निःश्वस् रोदमाना पतिव्रता ।। | 3-60-15a 3-60-15b |
यस्याभिशापाद्दुःखार्तो नैष नन्दति नैषधः। तस्य भूतस्य तद्दुःखाद्दुःखमभ्यधिकं भवेत् ।। | 3-60-16a 3-60-16b |
अपापचेतसं पापो य एवं कृतवान्नलम्। तस्माद्दुःखतरं प्राप्य जीवत्वमसुखजीविकाम् ।। | 3-60-17a 3-60-17b |
एवं तु विलपन्ती सा राज्ञो भार्या महात्मनः। अन्वेषति स्म भर्तारं वने श्वापदसेविते ।। | 3-60-18a 3-60-18b |
उन्मत्तवद्भीमसुता विलपन्ती ततस्ततः। हाहा राजन्निति मुहुरितश्चेतश्च धावति ।। | 3-60-19a 3-60-19b |
तां शुष्यमाणामत्यर्थं कुररीमिव वाशतीम्। करुणं बहुशोचन्तीं विलपन्तीं सुमध्यमाम्। | 3-60-20a 3-60-20b |
सहसाऽभ्यागतां भैमीमभ्याशपरिवर्तिनीम्। जग्राहाजगरो ग्राहो महाकायः क्षुधान्वितः ।। | 3-60-21a 3-60-21b |
सा ग्रस्यमाना ग्रहेण शोकेन च पराजिता। नात्मानं शोचति तथा यथा शोचति नैषधम् ।। | 3-60-22a 3-60-22b |
द्वा नाथ मामिह वने ग्रस्यमानामनागसम्। ग्राहेणानेन विजने किमर्थं नानुधावसि ।। | 3-60-23a 3-60-23b |
कथं भविष्यसि पुनर्मामनुस्मृत्य नैषध। [कथं भवाञ्जगामाद्य मामुत्सृज्य वने प्रभो।] पापान्मुक्तः पुनर्लब्ध्वा बुद्धिं चोतो धनानि च ।। | 3-60-24a 3-60-24b 3-60-24c |
श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस् परिग्लानस्य नैषध। कः श्रमं राजशार्दूल नाशयिष्यति तेऽनघ ।। | 3-60-25a 3-60-25b |
बृहदश्च उवाच। | 3-60-26x |
तां तु दृष्ट्वा तथा ग्रस्तामुरगेणायतेक्षणाम्। आक्रन्दमानां संश्रुत्य जवेनाभिससार ह ।। | 3-60-26a 3-60-26b |
तां तु दृष्ट्वा तथा ग्रस्तामुरगेणायतेक्षणाम्। त्वरमाणो मृगव्याधः संचरन्गहने वने। समभिक्रम्य वेगेन सत्वरः स वनेचरः ।। | 3-60-27a 3-60-27b 3-60-27c |
मुखे तं पाटयामास शस्त्रेण निशितेन च। निर्विचेष्टं भुजङ्गं तं विशस् मृगजीवनः ।। | 3-60-28a 3-60-28b |
मोक्षयित्वा स तांव्याधः प्रक्षाल्य सलिलेन ह। समाश्वास्य कृताहारामथ पप्रच्छ भारत ।। | 3-60-29a 3-60-29b |
कस्य त्वं मृगशावाक्षि कथं चास्यागता वनम्। कथं चेदं महत्कृच्छ्रं प्राप्तवत्यसि भामिनि ।। | 3-60-30a 3-60-30b |
दमयन्ती तथा तेन पृच्छ्यमाना विशांपते। सर्वमेतद्यथावृत्तमाचचक्षेऽस्य भारत ।। | 3-60-31a 3-60-31b |
तामर्धवस्त्रसंवीतां पीनश्रोणिपयोधराम्। सुकुमारानवद्याङ्गीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।। | 3-60-32a 3-60-32b |
अरालपक्ष्मनयनां तथा मधुरभाषिणीम्। लक्षयित्वा मृगव्याधः कामस्य वशमीयिवान् ।। | 3-60-33a 3-60-33b |
तामथ श्लक्ष्णया वाचा लुब्धको मृदुपूर्वया। सान्त्वयामास कामार्तस्तदबुध्यत भामिनी ।। | 3-60-34a 3-60-34b |
दमयन्त्यपि तं दुष्टमुपलभ्य पतिव्रता। तीव्ररोषसमाविष्टा प्रजज्वालेव मन्युना ।। | 3-60-35a 3-60-35b |
स तु पापमतिः क्षुद्रः प्रधर्षयितुमातुरः। दुर्धर्षां तर्कयामास दीप्तामग्निशिखामिव ।। | 3-60-36a 3-60-36b |
दमयन्ती तु दुःखार्था पतिराज्यविनाकृता। अतीतवाक्यथे काले शशापैनं रुषा किल ।। | 3-60-37a 3-60-37b |
यथाऽहं नैषधादन्यं मनसाऽपि न चिन्तये। तथाऽयं पततां क्षुद्रः परासुर्मृगजीवनः ।। | 3-60-38a 3-60-38b |
उक्तमात्रे तु वचने तया स मृगजीवनः। व्यसुः पपात मेदिन्यामग्निदग्ध इव द्रुमः ।। | 3-60-39a 3-60-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः ।। 60 ।। |
3-60-13 मन्युना शोकेन ।। 3-60-16 कलिं शपति यस्येति। अभिशापात्र वृथाद्वेषात् ।। 3-60-20 वाशतीं क्रोशन्तीम् ।। 3-60-21 ग्राहः सर्पः ।। 3-60-24 बुद्धिलाभादूर्ध्वं मां विना कथं भविष्यसि कथं जीविष्यसि। शापान्मुक्तः इति क. पाठः ।। 3-60-28 विशस्य विदार्य ।। 3-60-33 अरालानि शोभमानानि पक्ष्माणि नयनप्रान्तरोमाणि ययोस्तादृशे नयने यस्या इति तथा ।। 3-60-35 मन्युना क्रोधेन ।। 3-60-37 पतिराज्यविनाकृता पत्या राज्येन च रहिता। अतीतवाक्पथे वाचाप्यनिवार्ये सति। काले धूम्रवर्णे व्याधे ।। 3-60-38 परासुः गतप्राणः ।। 3-60-39 व्यसुर्विगतप्राणः ।।
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