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महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-002

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महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-002
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युधिष्ठिरेण वने स्वानुयायिनो ब्राह्मणान्प्रति स्वस्य हृतसर्वस्वतया तद्भरणस्य दुष्करत्वकथनपूर्वकं प्रतिनिवर्तनप्रार्थना ।। 1 ।। ब्राह्मणैः स्वयमेवत्मभरणपूर्वकं स्वसहवासमात्रेऽर्थिते युधिष्ठिरेण स्वस्य तद्भरणाशक्तिचिन्तनेन विषादाधिगमः ।। शौनकेन युधिष्टिरंप्रति ब्राह्मणभरणाय तपसा सिद्धिसंपादनचोदना ।। 3 ।।

वैशम्पायन उवाच||
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् |
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः ||१||
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ||१||
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः |
फलमूलामिषाहारा वनं यास्याम दुःखिताः ||२||
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम् |
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति ||३||
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत् |
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः ||४||
ब्राह्मणा ऊचुः||
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः |
नार्हथास्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः ||५||
अनुकम्पां हि भक्तेषु दैवतान्यपि कुर्वते |
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु ||६||
युधिष्ठिर उवाच||
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः |
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ||७||
आहरेयुर्हि मे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा |
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः ||८||
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च |
दुःखान्वितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे ||९||
ब्राह्मणा ऊचुः||
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव |
स्वयमाहृत्य वन्यानि अनुयास्यामहे वयम् ||१०||
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव |
कथाभिश्चानुकूलाभिः सह रंस्यामहे वने ||११||
युधिष्ठिर उवाच||
एवमेतन्न संदेहो रमेयं ब्राह्मणैः सह |
न्यूनभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः ||१२||
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान् |
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान् ||१३||
वैशम्पायन उवाच||
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले |
तमध्यात्मरतिर्विद्वाञ्शौनको नाम वै द्विजः ||१४||
योगे साङ्ख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत् ||१४||
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च |
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ||१५||
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु |
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ||१६||
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोविघातिनीम् |
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां सा राजंस्त्वय्यवस्थिता ||१७||
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च |
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः ||१८||
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा |
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना ||१९||
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् |
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु ||२०||
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात् |
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते ||२१||
तदाशुप्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात् |
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु ||२२||
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते |
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम् ||२३||
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते |
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ||२४||
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना |
प्रशान्ते मानसे दुःखे शारीरमुपशाम्यति ||२५||
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते |
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ||२६||
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च |
शोकहर्षौ तथायासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते ||२७||
स्नेहात्करणरागश्च प्रजज्ञे वैषयस्तथा |
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः ||२८||
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत् |
धर्मार्थिनं तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत् ||२९||
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमात् |
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निष्परिग्रहः ||३०||
तस्मात्स्नेहं स्वपक्षेभ्यो मित्रेभ्यो धनसञ्चयात् |
स्वशरीरसमुत्थं तु ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ||३१||
ज्ञानान्वितेषु मुख्येषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु |
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम् ||३२||
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते |
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा प्रवर्तते ||३३||
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी नृणाम् |
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ||३४||
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः |
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ||३५||
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम् |
विनाशयति सम्भूता अयोनिज इवानलः ||३६||
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति |
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ||३७||
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि |
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव ||३८||
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि |
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वेण वित्तवान् ||३९||
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थो भविता नृणाम् |
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नरः ||४०||
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः ||४०||
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च |
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम् ||४१||
अर्थस्योपार्जने दुःखं पालने च क्षये तथा |
नाशे दुःखं व्यये दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात् ||४२||
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चापि तेऽसुखाः |
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तेषां नाशं न चिन्तयेत् ||४३||
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः |
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम् ||४४||
तस्मात्सन्तोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः |
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसञ्चयः ||४५||
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येदेषु न पण्डितः ||४५||
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जं क्लेशं सहेत कः |
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः ||४६||
अतश्च धर्मिभिः पुम्भिरनीहार्थः प्रशस्यते |
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ||४७||
युधिष्ठिरैवमर्थेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि |
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः ||४८||
युधिष्ठिर उवाच||
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम |
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः ||४९||
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे |
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ||५०||
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते |
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ||५१||
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता |
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ||५२||
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम् |
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ||५३||
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम् |
प्रत्युद्गम्याभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम् ||५४||
अघिहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः |
पुत्रदारभृताश्चैव निर्दहेयुरपूजिताः ||५५||
नात्मार्थं पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत्पशून् |
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत् ||५६||
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि |
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायम्प्रातर्विधीयते ||५७||
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः |
विघसं भृत्यशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् ||५८||
एतां यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे |
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे ||५९||
शौनक उवाच||
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत् |
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ||६०||
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु |
मोहरागसमाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः ||६१||
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः |
विमूढसञ्ज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भ्रान्तैरिव सारथिः ||६२||
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा |
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः ||६३||
मनो यस्येन्द्रियग्रामविषयं प्रति चोदितम् |
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते ||६४||
ततः सङ्कल्पवीर्येण कामेन विषयेषुभिः |
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत् ||६५||
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च विशां पते |
महामोहमुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ||६६||
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु |
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत् ||६७||
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु हूतेषु परिवर्तते |
जले भुवि तथाकाशे जायमानः पुनः पुनः ||६८||
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु |
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः ||६९||
यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च |
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत् ||७०||
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः |
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ||७१||
तत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयानपथे स्थितः |
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत् ||७२||
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा |
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् ||७३||
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात् |
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात् ||७४||
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात् |
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात् ||७५||
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः ||७५||
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः |
रुद्राः साध्यास्तथादित्या वसवोऽथाश्विनावपि ||७६||
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः ||७६||
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम् |
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ||७७||
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते |
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ||७८||
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात् |
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ||७९|| 3.2.84

वैशंपायन उवाच। 3-2-1x
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः।
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।।
3-2-1a
3-2-1b
3-2-1c
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः।
फलमूलामिषाहारा वनं यास्याम दुःखिताः ।।
3-2-2a
3-2-2b
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्।
परिक्लेशश्चवो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति ।।
3-2-3a
3-2-3b
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।
किंपुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः ।।
3-2-4a
3-2-4b
ब्राह्मणा ऊचुः। 3-2-5x
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।
नार्हथास्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिन ।।
3-2-5a
3-2-5b
स्नेहकर्माणि भक्तेषु दैवतान्यपि कुर्वते।
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु ।।
3-2-6a
3-2-6b
युधिष्ठिर उवाच। 3-2-7x
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ।।
3-2-7a
3-2-7b
आहरेयुर्हि ये सर्वे फलमूलमृगांस्तथा।
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः ।।
3-2-8a
3-2-8b
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे ।।
3-2-9a
3-2-9b
ब्राह्मणा ऊचुः। 3-2-10x
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।
स्वयमाहृत्य वन्यानि त्वानुयास्यामहे वयम् ।।
3-2-10a
3-2-10b
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिव तव।
कथाभिश्चानुकूलाभिः सह रंस्यामहे वने ।।
3-2-11a
3-2-11b
युधिष्ठिर उवाच। 3-2-12x
एवमेतन्न संदेहो रमेयं ब्राह्मणैः सह।
न्यूनभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः ।।
3-2-12a
3-2-12b
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृत्य भोजिनः।
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान् ।।
3-2-13a
3-2-13b
वैशंपायन उवाच। 3-2-14x
इत्युक्त्वा नृपतिः शोचन्निषसाद महीतले ।। 3-2-14a
तमध्यात्मरतो विद्वाञ्शौनको नाम वै द्विजः।
योगे साङ्ख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत् ।।
3-2-15a
3-2-15b
शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च।
दिवसेदिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ।।
3-2-16a
3-2-16b
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ।।
3-2-17a
3-2-17b
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोभिघातिनीम्।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता ।।
3-2-18a
3-2-18b
`शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा।
ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणाः ।।'
3-2-19a
3-2-19b
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनेष्वपि।
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः ।।
3-2-20a
3-2-20b
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।
आत्मव्यवस्थानकरागीताः श्लोका महात्मना ।।
3-2-21a
3-2-21b
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।
तयोर्व्याससमासाभ्यांशमोपायमिमं शृणु ।।
3-2-22a
3-2-22b
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः संप्रवर्तते ।।
3-2-23a
3-2-23b
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगबलेन तु ।।
3-2-24a
3-2-24b
मतिमन्तो व्यथोपेताः शमं प्रागेव कुर्वते।
मानसस्य प्रियाख्यानैः संभोगोपनयैर्नृणाम् ।।
3-2-25a
3-2-25b
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ।।
3-2-26a
3-2-26b
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।
प्रशन्ते मानसे दुःखे शारीरमुपशाम्यति ।।
3-2-27a
3-2-27b
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ।।
3-2-28a
3-2-28b
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।
शोकहर्षौ तथायासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते ।।
3-2-29a
3-2-29b
स्नेहात्कारुण्यरागौ च प्रजास्वीर्ष्यादयस्तथा।
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः ।।
3-2-30a
3-2-30b
कोटराग्निर्यथाऽशेषं समूलं पादपं दहेत्।
धर्मार्थिनं तथाऽल्पोपि रागदोषो विनाशयेत् ।।
3-2-31a
3-2-31b
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निष्परिग्रहः ।।
3-2-32a
3-2-32b
तस्मात्स्नेहं स्वपक्षेभ्यो मित्रेभ्यो धनसंचयात्।
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ।।
3-2-33a
3-2-33b
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम् ।।
3-2-34a
3-2-34b
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।
इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते ।।
3-2-35a
3-2-35b
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्देगकरी नृणाम्।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ।।
3-2-36a
3-2-36b
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णांत्यजतः सुखम् ।।
3-2-37a
3-2-37b
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः ।।
3-2-38a
3-2-38b
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
तथाऽकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ।।
3-2-39a
3-2-39b
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।
`अर्थिभ्यः कालतस्तस्मान्नित्यमर्थवतां भयम्'।
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव ।।
3-2-40a
3-2-40b
3-2-40c
यथा ह्याभिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वेण वित्तवान् ।।
3-2-41a
3-2-41b
अर्थ एव हि केषांचिदनर्थं भजते नृणाम्।
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नरः।
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः ।।
3-2-42a
3-2-42b
3-2-42c
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च।
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम् ।।
3-2-43a
3-2-43b
अर्थस्योपार्जने दुःखमार्जितानां च रक्षणे।
नाशे दुःखं व्यये दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्
3-2-44a
3-2-44b
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तेषां नाशं न चिन्तयेत् ।।
3-2-45a
3-2-45b
असन्तोषपरा मूढाः संतोषं यान्ति पण्डिताः।
अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखम्।
तस्मात्संतोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डितः ।।
3-2-46a
3-2-46b
3-2-46c
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृद्ध्येत्तत्र न पण्डितः ।।
3-2-47a
3-2-47b
त्यजेत स च यांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।
न हि संचयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।
अतश्च धार्मिकैः पुम्भिरनीहार्थः प्रशस्यते ।।
3-2-48a
3-2-48b
3-2-48c
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य नरीहता।
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो ह्यस्पर्शनं नृणाम् ।।
3-2-49a
3-2-49b
युधिष्ठिरैवमर्थेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः ।।
3-2-50a
3-2-50b
युधिष्ठिर उवाच। 3-2-51x
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः ।।
3-2-51a
3-2-51b
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ।।
3-2-52a
3-2-52b
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना ।।
3-2-53a
3-2-53b
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।।
3-2-54a
3-2-54b
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ।।
3-2-55a
3-2-55b
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।
प्रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनाम् ।।
3-2-56a
3-2-56b
3-2-56c
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिवान्धवाः।
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः ।।
3-2-57a
3-2-57b
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।
न चैकः स्वयमश्नीयाद्विधिवर्जं न निर्वपेत् ।।
3-2-58a
3-2-58b
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते ।।
3-2-59a
3-2-59b
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथाऽमृतम् ।।
3-2-60a
3-2-60b
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ।।
3-2-61a
3-2-61b
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमद्वनि वर्तते।
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ।।
3-2-62a
3-2-62b
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।
तस्य धर्मं परंप्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे ।।
3-2-63a
3-2-63b
शौनक उवाच। 3-2-64x
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ।।
3-2-64a
3-2-64b
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विषसं बहु।
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः ।।
3-2-65a
3-2-65b
ह्रियते बुध्यमानोपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्धान्तैरिव सारथिः ।।
3-2-66a
3-2-66b
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।
तद्रा प्रादुर्भवत्यषां पूर्वसंकल्पजं मनः ।।
3-2-67a
3-2-67b
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।
वस्यौत्सुक्यं संभवति प्रवृत्तिश्चोपजायते ।।
3-2-68a
3-2-68b
ततः संकल्पवीर्येण कामेन विषयेषुभिः।
विद्धः पतति लोभाग्नौज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत् ।।
3-2-69a
3-2-69b
ततो दारैर्विहारैश्च मोहितश्च यथेप्सया।
महामोहमुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ।।
3-2-70a
3-2-70b
एवं पतति संसारे तासुतास्विह योनिषु।
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत् ।।
3-2-71a
3-2-71b
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनःपुनः ।।
3-2-72a
3-2-72b
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः ।।
3-2-73a
3-2-73b
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत् ।।
3-2-74a
3-2-74b
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।
अलोभ इतिमार्गोऽयं धर्ममस्याष्टविधः स्मृतः ।।
3-2-75a
3-2-75b
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत् ।।
3-2-76a
3-2-76b
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् ।।
3-2-77a
3-2-77b
सम्यक्संकल्पसंबन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।
सम्यग्द्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात् ।।
3-2-78a
3-2-78b
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात् ।।
3-2-79a
3-2-79b
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यवशमागताः ।।
3-2-80a
3-2-80b
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः ।।
3-2-81a
3-2-81b
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ।।
3-2-82a
3-2-82b
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ।।
3-2-83a
3-2-83b
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहम्।
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ।।
3-2-84a
3-2-84b
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
किर्मीरवधपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ।। 2 ।।

3-2-1 प्रभातायामरुणोदयेन उद्दीपितायाम् ।। 3-2-11 अनुध्यानेन इष्टचिन्तनेन। जप्येन स्वस्त्ययनेन तथा विश्वासकरणैः सह रंस्यामहे इति ध. पाठः ।। 3-2-12 प्रत्यादेशं धिक्कारम् ।। 3-2-15 अध्यात्मं आत्मानमधिकृत्य प्रवृत्तं शास्त्रमध्यात्मं वेदान्तस्तत्र रतः। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।। 3-2-16 शोकःस्थीयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या स्थानशब्दो हेतुवचनः। भयस्थानशतानि चेति झ. पाठः ।। 3-2-20 गुर्देषु दुस्तरेषु शारीरदुःखेषु। आपत्सु स्त्रीकर्षणादिषु ।। 3-2-21 आत्मव्यवस्थानकराः मनःस्थैर्यहेतवः ।। 3-2-22 व्याससमासाभ्यां विस्तरसंक्षेपाभ्याम् ।। 3-2-23 अनिष्टं कणअटकादिः। श्रमो व्यायामः ।। 3-2-24 प्रतिकारादौषधादिभिरुपशमनात् आधिप्रशमनमविचिनतनात्। इदमेव क्रियायोगबलम् ।। 3-2-25 प्रागेव मानसस्य शमं कुर्वते। प्रियाक्यानैरनुकूलवचनैः। संभोगोपनयैः स्त्र्यादिसमर्पणैः। मतिमन्तो ह्यतो वैद्या इति ख. च. झ. पाठः ।। 3-2-28 स्नेहो रागः सज्जते प्रवर्तते ।। 3-2-29 आयासः क्लेशः ।। 3-2-32 विप्रयोगे विषयेण सह वियोगे त्यागी न किंतु सत्यपि समागमे यो विषयदोषदर्शी स एव त्यागी। स एव च विरागं भजते ।। 3-2-34 युक्तेषु नित्यवस्तुप्राप्तये उद्युक्तेषु। कृतात्मसु ध्यानेन संस्कृतचित्तेषु। तेषु प्रसिद्धेषु स्नेहो रागो न सज्जते न सङ्गं प्राप्नोति ।। 3-2-35 रागः रम्यवस्तुदर्शने चित्तस्योत्फुल्लता। कामस्तल्लिप्सा। इच्छा लब्धे तस्मिन् रुच्यतिशयात्पुनस्तदभिलाषः। पुनःपुनस्तल्लाभेप्यतृप्तिस्तृष्णा ।। 3-2-37 जीर्यतः जरामृत्युग्रस्तस्य ।। 3-2-38 अयः तप्तायःपिण्डं अनलो वह्निः ।। 3-2-39 अकृतात्मा अनिर्जितचेताः ।। 3-2-42 अर्थश्रेयसि अर्थसाध्ये श्रेयसि ज्योतिष्टोमादौ ।। 3-2-46 पिपासायाः तृष्णायाः ।। 3-2-48 संचयान् अर्थान्। तज्जान् अर्थत्यागजान्। अनीहार्थः यदृच्छालब्धोऽर्थः ।। 3-2-50 अर्थतः धनात् ।। 3-2-51 अर्थोपभोगः विषयोपभोगः। अर्थेप्सुता घनेप्सुता ।। 3-2-53 दृश्यते पञ्चमहायज्ञेषु। अपचमानेभ्यः यत्यादिभ्यः ।। 3-2-54 तृणानि आसनार्थानि ।। 3-2-58 वृथा श्राद्यज्ञादिनिमित्तंविना ।। 3-2-59 विश्वं सर्वजातीयं प्राणिजातं देवो देवता यस्मिंस्तद्विश्वदेवम्। स्वार्थे तद्धितः। वैश्वदेवं नाम कर्म ।। 3-2-62 अपरिक्लिष्टं कार्पण्यं विना। अध्वनि वर्तते मार्गस्थाय ।। 3-2-65 विघसं देवताद्युपयुक्तशेषं कामुको बहुकरोति। इन्द्रियार्थाः शब्दादयः ।। 3-2-66 हारिभिः हरणशीलैः ।। 3-2-68 इन्द्रियस्येन्द्रियाणां विषयान् शब्दादीन् ।। 3-2-74 इति च वेदवचनमित्यन्वयः। फलेच्छां विनैः समाचरेदित्यर्थः ।। 3-2-76 कर्तव्यमवश्यानुष्ठेयं नित्याग्निहोत्रसंध्योपासनादि। अभिमानात्सङ्गात् ।। 3-2-77 अष्टाङ्गेन वक्ष्यमाणसंकल्पसंबन्धाद्यङ्गाष्टकवता तदाचरेदिति पूर्वेण संबन्धः। विशुद्धात्मा शुद्धचित्तः ।। 3-2-78 संकल्पो मानसं कर्म तस्य संबन्धो निरोधः ।। 3-2-83 कर्ममयी यज्ञयुद्धादिकर्मरूपसाधनप्रधाना सिद्धिः। पितृमातृमयी परलोकेहलोकफलप्रधाना ।।

आरण्यकपर्व-001 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आरण्यकपर्व-003