महाभारतम्-01-आदिपर्व-189
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पुनरन्तर्हितायां तपत्यां मोहितस्य संवरणस्य समीपे अमात्यादीनामागमनं।। 1 ।।
अमात्येनाश्वासितस्य राज्ञः सूर्योपासनसमये वसिष्ठस्यागमनं।। 2 ।।
सूर्यसमीपं गत्वा वसिष्ठेनादित्यस्तुतिकरणं।। 3 ।।
स्तुत्या तुष्टेन सूर्येण संवरणार्थं वसिष्ठाय तपतीदानं।। 4 ।।
तस्मिन्नेव तपतीसंवरणयोर्विवाहः।। 5 ।।
तया सह तत्रैव रममाणस्य संवरणस्य राज्ये द्वादशवार्षिक्यनावृष्टिः।। 6 ।।
वसिष्ठेनानावृष्टिनिवर्तनं।। 7 ।।
तपत्युपाख्यानोपसंहारः।। 8 ।।
गन्धर्व उवाच। | 1-189-1x |
एवमुक्त्वा ततस्तूर्णं जगामोर्ध्वमनिन्दिता। `तपतीतपतीत्येव विललापातुरो नृपः।। | 1-189-1a 1-189-1b |
प्रास्स्वलच्चासकृद्राजा पुनरुत्थाय धावति। धावमानस्तु तपतीमदृष्ट्वैव महीपतिः।' स तु राजा पुनर्भूमौ तत्रैव निपपात ह।। | 1-189-2a 1-189-2b 1-189-2c |
अन्वेषमाणः सबलस्तं राजानं नृपोत्तमम्। अमात्यः सानुयात्रश्च तं ददर्श महावने।। | 1-189-3a 1-189-3b |
क्षितौ निपतितं काले शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम्। त हि दृष्ट्वा महेष्वासं निरस्तं पतितं भुवि।। | 1-189-4a 1-189-4b |
बभूव सोऽस्य सचिवः संप्रदीप्त इवाग्निना। त्वरया चोपसङ्गम्य स्नेहादागतसंभ्रमः।। | 1-189-5a 1-189-5b |
तं समुत्थापयामास नृपतिं काममोहितम्। भूतलाद्भूमिपालेशं पितेव पतितं सुतम्।। | 1-189-6a 1-189-6b |
प्रज्ञया वयसा चैव वृद्धः कीर्त्या नयेन च। अमात्यस्तं समुत्थाप्य बभूव विगतज्वरः।। | 1-189-7a 1-189-7b |
उवाच चैनं कल्याण्या वाचा मधुरयोत्थिम्। मा भैर्मनुजशार्दूल भद्रमस्तु तवानघ।। | 1-189-8a 1-189-8b |
क्षुत्पिपासापरिश्रान्तं तर्कयामास वै नृपम्। पतितं पातनं सङ्ख्ये शात्रवाणां महीतले।। | 1-189-9a 1-189-9b |
वारिणा च सुशीतेन शिरस्तस्याभ्यषेचयत्। अस्पृशन्मुकुटं राज्ञः पुण्डरीकसुगन्धिना।। | 1-189-10a 1-189-10b |
ततः प्रत्यागतप्राणस्तद्बलं बलवान्नृपः। सर्वं विसर्जयामास तमेकं सचिवं विना।। | 1-189-11a 1-189-11b |
ततस्तस्याज्ञया राज्ञो विप्रतस्थे महद्बलम्। स तु राजा गिरिप्रस्थे तस्मिन्पुनरुपाविशत्।। | 1-189-12a 1-189-12b |
ततस्तस्मिन् गिरिवरे शुचिर्भूत्वा कृताञ्जलिः। आरिराधयिषुः सूर्यं तस्थावूर्ध्वमुखः क्षितौ।। | 1-189-13a 1-189-13b |
जगाम मनसा चैव वसिष्ठमृषिसत्तमम्। पुरोहितममित्रघ्नं तदा संवरणो नृपः।। | 1-189-14a 1-189-14b |
नक्तन्दिनमथैकत्र स्थिते तस्मिञ्जनाधिपे। अथाजगाम विप्रर्षिस्तदा द्वादशमेऽहनि।। | 1-189-15a 1-189-15b |
स विदित्वैव नृपतिं तपत्या हृतमानसम्। दिव्येन विधिना ज्ञात्वा भावितात्मा महानृपिः।। | 1-189-16a 1-189-16b |
तथा तु नियतात्मानं तं नृपं मुनिसत्तमः। आबभाषे स धर्मात्मा तस्यैवार्थचिकीर्षया।। | 1-189-17a 1-189-17b |
स तस्य मनुजेन्द्रस्य पश्यतो भगवानृषिः। ऊर्ध्वमाचक्रमे द्रष्टुं भास्करं भास्करद्युतिः।। | 1-189-18a 1-189-18b |
`योजनानां तु नियुतं क्षणाद्गत्वा तपोधनः।' सहस्रांशुं ततो विप्रः कृताञ्जलिरुपस्थितः। वसिष्ठोहमिति प्रीत्या स चात्मानं न्यवेदयत्।। | 1-189-19a 1-189-19b 1-188-19c |
तमुवाच महातेजा विवस्वान्मुनिसत्तमम्। महर्षे स्वागतं तेऽस्तु कथयस्व यथेप्सितम्।। | 1-189-20a 1-189-20b |
यदिच्छसि महाभाग मत्तः प्रवदतां वर। तत्ते दद्यामभिप्रेतं यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्।। | 1-189-21a 1-189-21b |
एवमुक्तः स तेनर्षिर्वसिष्ठः संस्तुवन्गिरा। प्रणिपत्य विवस्वन्तं भानुमन्तमथाब्रवीत्।। | 1-189-22a 1-189-22b |
`योजनानां चतुष्षष्टिं निमेषात्त्रिशतं तथा। अश्वैर्गच्छति नित्यं यस्तत्पार्श्वस्थोऽब्रवीदिदम्।। | 1-189-23a 1-189-23b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-189-24x |
अजाय लोकत्रयपावनाय भूतात्मने गोपतये वृषाय। सूर्याय सर्गप्रलयालयाय नमो महाकारुणिकोत्तमाय।। | 1-189-24a 1-189-24b 1-189-24c 1-189-24d |
विवस्वते ज्ञानभृतेऽन्तरात्मने जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे। स्वयंभुवे दीप्तसहस्रचक्षुषे सुरोत्तमायामिततेजसे नमः।। | 1-189-25a 1-189-25b 1-189-25c 1-189-25d |
नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे। त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरिञ्चनारायणशङ्करात्मने।। | 1-189-26a 1-189-26b 1-189-26c 1-189-26d |
सूर्य उवाच। | 1-189-27x |
संस्तुतो वरदः सोऽहं वरं वरय सुव्रत। स्तुतिस्त्वयोक्ता भक्तानां जप्येयं वग्दोस्म्यहम्'।। | 1-189-27a 1-189-27b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-189-28x |
यैषा ते तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता। तां त्वां संवरणस्यार्थे वरयामि विभावसो।। | 1-189-28a 1-189-28b |
स हि राजा बृहत्कीर्तिर्धर्मार्थविदुदारधीः। युक्तः संवरणो भर्ता दुहितुस्ते विहङ्गम।। | 1-189-29a 1-189-29b |
गन्धर्व उवाच। | 1-189-30x |
इत्युक्तः स तदा तेन ददानीत्येव निश्चितः। प्रत्यभाषत तं विप्रं प्रतीनन्द्य दिवाकरः।। | 1-189-30a 1-189-30b |
वरः संवरणो राज्ञां त्वमृषीणां वरो मुने। तपती योषितां श्रेष्ठा किमन्यत्रापवर्जनात्।। | 1-189-31a 1-189-31b |
ततः सर्वानवद्याङ्गीं तपतीं तपनः स्वयम्। ददौ संवरणस्यार्थे वसिष्ठाय महात्मने।। | 1-189-32a 1-189-32b |
प्रतिजग्राह तां कन्यां महर्षिस्तपतीं तदा। वसिष्ठोऽथ विसृष्टस्तु पुनरेवाजगाम ह।। | 1-189-33a 1-189-33b |
यत्र विख्यातकीर्तिः स कुरूणामृषभोऽभवत्। स राजा मन्मथाविष्टस्तद्गतेनान्तरात्मना।। | 1-189-34a 1-189-34b |
दृष्ट्वा च देवकन्यां तां तपतीं चारुहासिनीम्। वसिष्ठेन सहायान्तीं संहृष्टोऽभ्यधिकं बभौ।। | 1-189-35a 1-189-35b |
रुरुचे साऽधिकं सुभ्रूरापतन्ती नभस्तलात्। सौदामनीव विभ्रष्टा द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।। | 1-189-36a 1-189-36b |
कृच्छ्राद्द्वादशरात्रे तु तस्य राज्ञः समाहिते। आजगाम विशुद्धात्मा वसिष्ठो भगवानृषिः।। | 1-189-37a 1-189-37b |
तपसाऽऽराध्य वरदं देवं गोपतिमीश्वरम्। लेभे संवरणो भार्यां वसिष्ठस्यैव तेजसा।। | 1-189-38a 1-189-38b |
ततस्तस्मिन्गिरिश्रेष्ठे देवगन्धर्वसेविते। जग्राह विधिवत्पाणिं तपत्याः स नरर्षभः।। | 1-189-39a 1-189-39b |
वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञातस्तस्मिन्नेव धराधरे। सोऽकामयत राजर्षिर्विहर्तुं सह भार्यया।। | 1-189-40a 1-189-40b |
ततः पुरे च राष्ट्रे च वनेषूपवनेषु च। आदिदेश महीपालस्तमेव सचिवं तदा।। | 1-189-41a 1-189-41b |
नृपतिं त्वभ्यनुज्ञाप्य वसिष्ठोऽथापचक्रमे। सोऽथ राजा गिरौ तस्मिन्विजहारामरो यथा।। | 1-189-42a 1-189-42b |
ततो द्वादशवर्षाणि काननेषु वनेषु च। रेमे तस्मिन्गिरौ राजा तयैव सह भार्यया।। | 1-189-43a 1-189-43b |
तस्य राज्ञः पुरे तस्मिन्समा द्वादश सत्तम। न ववर्ष सहस्राक्षो राष्ट्रे चैवास्य भारत।। | 1-189-44a 1-189-44b |
ततस्तस्यामनावृष्ट्यां प्रवृत्तायामरिन्दम। प्रजाः क्षयमुपाजग्मुः सर्वाः सस्थाणुजङ्गमाः।। | 1-189-45a 1-189-45b |
तस्मिंस्तथाविधे काले वर्तमाने सुदारुणे। नावश्यायः पपातोर्व्यां ततः सस्यानि नाऽरुहन्।। | 1-189-46a 1-189-46b |
ततो विभ्रान्तमनसो जनाः क्षुद्भपीडिताः। गृहाणि संपरित्यज्य बभ्रमुः प्रदिशो दिशः।। | 1-189-47a 1-189-47b |
ततस्तस्मिन्पुरे राष्ट्रे त्यक्तदारपरिग्रहाः। परस्परममर्यादाः क्षुधार्ता जघ्निरे जनाः।। | 1-189-48a 1-189-48b |
तत्क्षुधार्तैर्निरानन्दैः शवभूतैस्तथा नरैः। अभवत्प्रेतराजस्य पुरं प्रेतैरिवावृतम्।। | 1-189-49a 1-189-49b |
ततस्तत्तादृशं दृष्ट्वा स एव भगवानृषिः। अभ्याद्रवत धर्मात्मा वसिष्ठो मुनिसत्तमः।। | 1-189-50a 1-189-50b |
तं च पार्थिवशार्दूलमानयामास तत्पुरम्। तपत्या सहितं राजन्वर्षे द्वादशमे गते। ततः प्रवृष्टस्तत्रासीद्यथापूर्वं सुरारिहा।। | 1-189-51a 1-189-51b 1-188-51c |
तस्मिन्नृपतिशार्दूले प्रविष्टे नगरं पुनः। प्रववर्ष सहस्राक्षः सस्यानि जनयन्प्रभुः।। | 1-189-52a 1-189-52b |
ततः सराष्ट्रं मुमुदे तत्पुरं परया मुदा। तेन पार्थिवमुख्येन भावितं भावितात्मना।। | 1-189-53a 1-189-53b |
ततो द्वादश वर्षाणि पुनरीजे नराधिपः। तपत्या सहितः पत्न्या यथा शच्या मरुत्पतिः।। | 1-189-54a 1-189-54b |
गन्धर्व उवाच। | 1-189-55x |
एवमासीन्महाभागा तपती नाम पौर्विकी। तव वैवस्वती पार्थ तापत्यस्त्वं यया मतः।। | 1-189-55a 1-189-55b |
तस्यां संजनयामास कुरुं संवरणो नृपः। तपत्यां तपतां श्रेष्ठ तापत्यस्त्वं ततोऽर्जुन।। | 1-189-56a 1-189-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 189 ।। |
1-189-10 मुकुटं तत्स्थानं ललाटम्।। 1-189-15 द्वादशमे द्वादशसंख्यया मिते।। 1-189-16 दिव्येन विधिना योगबलेन।। एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 189 ।।
आदिपर्व-188 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-190 |