महाभारतम्-01-आदिपर्व-214
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पञ्चे उपाख्यानप्रारम्भः।। 1 ।।
नैमिशारण्ये देवैरारब्धे सत्रे यमस्य शामित्रकर्मणि व्यापृतत्वात् लोके प्रजाबाहुल्यं दृष्ट्वा तत्परिजिहीर्षया देवैर्ब्रह्मसमीपगमनम्।। 2 ।।
ब्रह्माज्ञया पुनर्नैमिशारण्यं गतस्य गङ्गायां पुण्डरीकं दृष्ट्वा तज्जिहीर्षया गतस्य इन्द्रस्य तत्र रुदन्ताः स्त्रियाः दर्शनम्।। 3 ।।
तामनुगच्छतेन्द्रेण पर्वतविवरे पूर्वेषां चतुर्णां इन्द्राणां दर्शनम्।। 4 ।।
बलरामकेशवद्रौपद्यादीनामुत्पत्तिकथा।। 5 ।।
व्यासदत्तदिव्यदृष्टेर्द्रुपदस्य पाण्डवद्रौपदीपूर्वरूपदर्शनं।। 6 ।।
द्रौपद्या अव्यवहितपूर्वजन्मवृत्तान्तकथनम्।। 7 ।।
व्यास उवाच। | 1-214-1x |
पुरा वै नैमिशारण्ये देवाः सत्रमुपासते। तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत्तदा।। | 1-214-1a 1-214-1b |
ततो यमो दीक्षितस्तत्र राज- न्नामारयत्कंचिदपि प्रजानाम्। ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः कालातिपातान्मरणप्रहीणाः।। | 1-214-2a 1-214-2b 1-214-2c 1-214-2d |
सोमश्च शक्रो वरुणः कुबेरः साध्या रुद्रा वसवोऽथाश्विनौ च। प्रजापतिर्भुवनस्य प्रणेता समाजग्मुस्तत्र देवास्तथाऽन्ये।। | 1-214-3a 1-214-3b 1-214-3c 1-214-3d |
ततोऽब्रुवँल्लोकगुरुं समेता भयात्तीव्रान्मानुषाणां विवृद्ध्या। तस्माद्भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम्।। | 1-214-4a 1-214-4b 1-214-4c 1-214-4d |
पितामह उवाच। | 1-214-5x |
किं वो भयं मानुषेभ्यो यूयं सर्वे यदाऽमराः। मा वो मर्त्यसकाशाद्वै भयं भवितुमर्हति।। | 1-214-5a 1-214-5b |
देवा ऊचुः। | 1-214-6x |
मर्त्या अमर्त्याः संवृत्ता न विशेषोऽस्ति कश्चन। अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः।। | 1-214-6a 1-214-6b |
श्रीभगवानुवाच। | 1-214-7x |
वैवस्वतो व्यापृतः सत्रहेतो- स्तेन त्विमे न म्रियन्ते मनुष्याः। तस्मिन्नेकाग्रे कृतसर्वकार्ये तत एषां भवितैवान्तकालः।। | 1-214-7a 1-214-7b 1-214-7c 1-214-7d |
वैवस्वतस्यैव तनुर्विभक्ता वीर्येण युष्माकमुत प्रवृद्धा। सैषामन्तो भविता ह्यन्तकाले न तत्र वीर्यं भविता नरेषु।। | 1-214-8a 1-214-8b 1-214-8c 1-214-8d |
व्यास उवाच। | 1-214-9x |
ततस्तु ते पूर्वजदेववाक्यं श्रुत्वा जग्मुर्यत्र देवा यजन्ते। समासीनास्ते समेता महाबला भागीरथ्यां ददृशुः पुण्डरीकम्।। | 1-214-9a 1-214-9b 1-214-9c 1-214-9d |
दृष्ट्वा च तद्विस्मितास्ते बभूवु- स्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम। सोऽपश्यद्योषामथ पावकप्रभां यत्र देवी गङ्गा सततं प्रसूता।। | 1-214-10a 1-214-10b 1-214-10c 1-214-10d |
सा तत्र योषा रुदती जलार्थिनी गङ्गां देवीं व्यवगाह्य व्यतिष्ठत्। तस्याश्रुबिन्दुः पतितो जले य- स्तत्पद्ममासीदथ तत्र काञ्चनम्।। | 1-214-11a 1-214-11b 1-214-11c 1-214-11d |
तदद्भुतं प्रेक्ष्य वज्री तदानी- मपृच्छत्तां योषितमन्तिकाद्वै। का त्वं भद्रे रोदिषि कस्य हेतो- र्वाक्यं तथ्यं कामयेऽहं ब्रवीहि।। | 1-214-12a 1-214-12b 1-214-12c 1-214-12d |
स्त्र्युवाच। | 1-214-13x |
त्वं वेत्स्यसे मामिह याऽस्मि शक्र यदर्थं चाहं रोदिमि मन्दभाग्या। आगच्छ राजन्पुरतो गमिष्ये द्रष्टाऽसि तद्रोदिमि यत्कृतेऽहम्।। | 1-214-13a 1-214-13b 1-214-13c 1-214-13d |
व्यास उवाच। | 1-214-14x |
तां गच्छन्तीमन्वगच्छत्तदानीं सोऽपश्यदारात्तरुणं दर्शनीयम्। सिद्धासनस्थं युवतीसहायं क्रीडन्तमक्षैर्गिरिराजमूर्ध्नि।। | 1-214-14a 1-214-14b 1-214-14c 1-214-14d |
तमब्रवीद्देवराजो ममेदं त्वं विद्धि विद्वन्भुवनं वशे स्थितम्। ईशोऽहस्मीति समन्युरब्रवी- द्दृष्ट्वा तमक्षैः सुभृशं प्रमत्तम्।। | 1-214-15a 1-214-15b 1-214-15c 1-214-15d |
क्रुद्धं च शक्रं प्रसमीक्ष्य देवो जहाय शक्रं च शैरुदैक्षत। संस्तम्भितोऽभूदथ देवराज- स्तेनेक्षितः स्थाणुरिवावतस्थे।। | 1-214-16a 1-214-16b 1-214-16c 1-214-16d |
यदा तु पर्याप्तमिहास्य क्रीडया तदा देवीं रुदतीं तामुवाच। आनीयतामेष यतोऽहमारा- न्नैनं दर्पः पुनरप्याविशेत।। | 1-214-17a 1-214-17b 1-214-17c 1-214-17d |
ततः शक्रः स्पृष्टमात्रस्तया तु स्रस्तैरङ्गैः पतितोऽभूद्धरण्याम्। तमब्रवीद्भगवानुग्रतेजा मैवं पुनः शक्र कृथाः कथंचित्।। | 1-214-18a 1-214-18b 1-214-18c 1-214-18d |
निवर्तयैनं च महाद्रिराजं बलं च वीर्यं च तवाप्रमेयम्। छिद्रस्य चैवाविश मध्यमस्य यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः।। | 1-214-19a 1-214-19b 1-214-19c 1-214-19d |
स तद्विवृत्य विवरं महागिरे- स्तुल्यद्युतींश्चतुरोऽन्यान्ददर्श। स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः कच्चिन्नाहं भविता वै यथेमे।। | 1-214-20a 1-214-20b 1-214-20c 1-214-20d |
ततो देवो गिरिशो वज्रपाणिं विवृत्य नेत्रे कुपितोऽभ्युवाच। दरीमेतां प्रविश त्वं शतक्रतो यन्मां बाल्यादवमंस्थाः पुरस्तात्।। | 1-214-21a 1-214-21b 1-214-21c 1-214-21d |
उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः प्रावेपताऽऽर्तो भृशमेवाभिषङ्गात्। स्रस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्न- मश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि।। | 1-214-22a 1-214-22b 1-214-22c 1-214-22d |
स प्राञ्जलिर्वै वृषवाहनेन प्रवेपमानः सहसैवमुक्तः। उवाच देवं बहुरूपमुग्र- मद्याशेषस्य भुवनस्य त्वं भवाद्यः।। | 1-214-23a 1-214-23b 1-214-23c 1-214-23d |
तमब्रवीदुग्रवर्चाः प्रहस्य नैवंशीलाः शेषमिहाप्नुवन्ति। एतेऽप्येवं भवितारः पुरस्ता- त्तस्मादेतां दरीमाविश्य शेष्य।। | 1-214-24a 1-214-24b 1-214-24c 1-214-24d |
एषा भार्या भविता वो न संशयो योनिं सर्वे मानुषीमाविशध्वम्। तत्र यूयं कर्म कृत्वाऽविषह्यं बहूनन्यान्निधनं प्रापयित्वा।। | 1-214-25a 1-214-25b 1-214-25c 1-214-25d |
कर्तव्यमन्यद्विविधार्थयुक्तम्।। | 1-214-26f |
पूर्वेन्द्रा ऊचुः। | 1-214-27x |
गमिष्यामो मानुषं देवलोका- द्दुराधरो विहितो यत्र मोक्षः। देवास्त्वस्मानादधीरञ्जनन्यां धर्मो वायुर्मघवानश्विनौ च।। | 1-214-27a 1-214-27b 1-214-27c 1-214-27d |
व्यास उवाच। | 1-214-28x |
एतच्छ्रुत्वा वज्रपाणिर्वचस्तु देवश्रेष्ठं पुनरेवेदमाह। वीर्येणाहं पुरुषं कार्यहेतो- र्दद्यामेषां पञ्चमं मत्प्रसूतम्।। | 1-214-28a 1-214-28b 1-214-28c 1-214-28d |
विश्वभुग्भूतधामा च शिबिरिन्द्रः प्रतापवान्। शान्तिश्चतुर्थस्तेषां वै तेजस्वी पञ्चमः स्मृतः।। | 1-214-29a 1-214-29b |
तेषां कामं भगवानुग्रधन्वा प्रादादिष्टं सन्निसर्गाद्यथोक्तम्। तां चाप्येषां योषितं लोककान्तां श्रियं भार्यां व्यदधान्मानुषेषु।। | 1-214-30a 1-214-30b 1-214-30c 1-214-30d |
तैरेव सार्धं तु ततः स देवो जगाम नारायणमप्रमेयम्। अनन्तमव्यक्तमजं पुराणं सनातनं विश्वमनन्तरूपम्।। | 1-214-31a 1-214-31b 1-214-31c 1-214-31d |
शुक्लमेकमपरं चापि कृष्णम्।। | 1-214-32f |
केशो योऽसौ वर्णतः कृष्ण उक्तः।। | 1-214-33f |
ये ते पूर्वं शक्ररूपा निबद्धा- स्तस्यां दर्यां पर्वतस्योत्तरस्य। इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची।। | 1-214-34a 1-214-34b 1-214-34c 1-214-34d |
एवमेते पाण्डवाः संबभूवु- र्ये ते राजन्पूर्वमिन्द्रा बभूवुः। लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा।। | 1-214-35a 1-214-35b 1-214-35c 1-214-35d |
कथं हि स्त्री कर्मणा ते महीतला- त्समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात्। यस्या रूपं सोमसूर्यप्रकाशं गन्धश्चास्याः कोशमात्रात्प्रवाति।। | 1-214-36a 1-214-36b 1-214-36c 1-214-36d |
इदं चान्यत्प्रीतिपूर्वं नरेन्द्र ददानि ते वरमत्यद्भुतं च। दिव्यं चक्षुः पश्य कुन्तीसुतांस्त्वं पुण्यैर्दिव्यैः पूर्वदेहैरुपेतान्।। | 1-214-37a 1-214-37b 1-214-37c 1-214-37d |
वैशंपायन उवाच। | 1-214-38x |
ततो व्यासः परमोदारकर्मा शुचिर्विप्रस्तपसा तस्य राज्ञः। चक्षुर्दिव्यं प्रददौ तांश्च सर्वान् राजाऽपश्यत्पूर्वदेहैर्यथावत्।। | 1-214-38a 1-214-38b 1-214-38c 1-214-38d |
ततो दिव्यान्हेमकिरीटमालिनः शक्रप्रख्यान्पावकादित्यवर्णान्। बद्धापीडांश्चारुरूपांश्च यूनो व्यूढोरस्कांस्तालमात्रान्ददर्श।। | 1-214-39a 1-214-39b 1-214-39c 1-214-39d |
दिव्यैर्वस्त्रैरजोभिः सुगन्धै- र्माल्यैश्चाग्र्यैः शोभमानानतीव। साक्षात्त्र्यक्षान्वा वसूंश्चापि रुद्रा- नादित्यान्वा सर्वगुणोपपन्नान्।। | 1-214-40a 1-214-40b 1-214-40c 1-214-40d |
तान्पूर्वेन्द्रानभिवीक्ष्याभिरूपा- त्र्शक्रात्मजं चेन्द्ररूपं निशम्य। प्रीतो राजा द्रुपदो विस्मितश्च दिव्यां मायां तामवेक्ष्याप्रमेयाम्।। | 1-214-41a 1-214-41b 1-214-41c 1-214-41d |
तां चैवाग्र्यां स्त्रियमतिरूपयुक्तां दिव्यां साक्षात्सोमवह्निप्रकाशाम्। योग्यां तेषां रूपतेजोयशोभिः पत्नी मत्वा हृष्टवान्पार्थिवेन्द्रः।। | 1-214-42a 1-214-42b 1-214-42c 1-214-42d |
स तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यरूपं जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य। नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम्।। | 1-214-43a 1-214-43b 1-214-43c 1-214-43d |
`व्यास उवाच। | 1-214-44x |
इदं चापि पुरावृत्तं तन्निबोध च भूमिम। कीर्त्यमानं नृपर्षीणां पूर्वेषां दारकर्मणि।। | 1-214-44a 1-214-44b |
नितन्तुर्नाम राजर्षिर्बभूव भुवि विश्रुतः। तस्य पुत्रा महेष्वासा बभूवुः पञ्च भूमिताः।। | 1-214-45a 1-214-45b |
साल्वेयः शूरसेनश्च श्रुतसेनश्च वीर्यवान्। तिन्दुसारोऽतिसारश्च क्षत्रियाः क्रतुयाजिनः।। | 1-214-46a 1-214-46b |
नातिचक्रमुरन्योन्यमन्योन्यस्य प्रियंवदाः। अनीर्ष्यवो धर्मविदः सौम्याश्चैव प्रियकराः।। | 1-214-47a 1-214-47b |
एतान्नैतन्तवान्पञ्च शिबिपुत्री स्वयंवरे। अवाप स्वपतीन्वीरान्भौमाश्वी मनुजाधिपान्।। | 1-214-48a 1-214-48b |
वीणेव मधुरारावा गान्धर्वस्वरमूर्च्छिता। उत्तमा सर्वनारीणां भौमाश्वी ह्यभवत्तदा।। | 1-214-49a 1-214-49b |
यस्या नैतन्तवाः पञ्च पतयः क्षत्रियर्षभाः। बभूवुः पृथिवीपालाः सर्वैः समुदिता गुणैः।। | 1-214-50a 1-214-50b |
तेषामेकाभवद्भार्या राज्ञामौशीनरी शुभा। भौमाश्वी नाम भद्रं ते तथारूपगुणान्विता।। | 1-214-51a 1-214-51b |
पञ्चभ्यः पञ्चधा पञ्च दायादान्सा व्यजायत। तेभ्यो नैतन्तवेभ्यस्तु राजशार्दूल वै तदा।। | 1-214-52a 1-214-52b |
पृथगाख्याऽभवत्तेषां भ्रातॄणां पञ्चधा भुवि। यथावत्कीर्त्यमानांस्ताञ्छृणु मे राजसत्तम।। | 1-214-53a 1-214-53b |
साल्वेयाः शूरसेनाश्च श्रुतसेनाश्च पार्थिवाः। तिन्दुसारातिसाराश्च वंशा एषां नृपोत्तम।। | 1-214-54a 1-214-54b |
एवमेकाऽभवद्भार्या भौमाश्वी भुवि विश्रुता। तथैव द्रुपदैषा ते सुता वै देवरूपिणी। पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता'।। | 1-214-55a 1-214-55b 1-214-55c |
व्यास उवाच। | 1-214-56x |
आसीत्तपोवंने काचिदृषेः कन्या महात्मनः। नाध्यगच्छत्पतिं सा तु कन्या रूपवती सती।। | 1-214-56a 1-214-56b |
तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शङ्करम्। तामुवाचेश्वरः प्रीतो वृणु काममिति स्वयम्।। | 1-214-57a 1-214-57b |
सैवमुक्ताऽब्रवीत्कन्या देवं वरदमीश्वरम्। पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनःपुनः।। | 1-214-58a 1-214-58b |
ददौ तस्यै स देवेशस्तं वरं प्रीतमानसः। पञ्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति शङ्करः।। | 1-214-59a 1-214-59b |
सा प्रसादयती देवमिदं भूयोऽभ्यभाषत। एकं पतिं गुणोपेतं त्वत्तोऽर्हामीति शङ्कर।। | 1-214-60a 1-214-60b |
तां देवदेवः प्रीतात्मा पुनः प्राह शुभं वचः। पञ्चकृत्वस्त्वयोक्तोऽहं पतिं देहीति वै पुनः।। | 1-214-61a 1-214-61b |
तत्तथा भविता भद्रे वचस्तद्भद्रमस्तु ते। देहमन्यं गतायास्ते सर्वमेतद्भविष्यति।। | 1-214-62a 1-214-62b |
द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता वै देवरूपिणी। पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता।। | 1-214-63a 1-214-63b |
`सैव नालायनी भूत्वा रूपेणाप्रतिमा भुवि। मौद्गल्यं पतिमास्थाय शिवाद्वरमभीप्सती।। | 1-214-64a 1-214-64b |
एतद्देवरहस्यं ते श्रावितं राजसत्तम। नाख्यातव्यं कस्यचिद्वै देवगुह्यमिदं यतः।।' | 1-214-65a 1-214-65b |
स्वर्गश्रीः पाण्डवार्थं तु समुत्पन्ना महामखे। सेह तप्त्वा तपो घोरं दुहितृत्वं तवागता।। | 1-214-66a 1-214-66b |
सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा पञ्चानामेका स्वकृतेनेह कर्मणा। सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयंभुवा श्रुत्वा राजन्द्रुपदेष्टं कुरुष्व।। | 1-214-67a 1-214-67b 1-214-67c 1-214-67d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 214 ।। |
1-214-1 शमिता यज्ञे पशुवधकर्ता तस्य भावः शामित्रम्।। 1-214-3 यत्र प्रजापतिस्तत्र सोमादयः समाजग्मुः।। 1-214-11 तस्याः अश्रुबिन्दुः। सन्धिरार्षः।। 1-214-21 ततः शीघ्रमप्रवेशाद्धेतोः।। 1-214-23 हे भव अद्य त्वमशेषस्य भुवनस्य आद्यः पतिरसि। अद्येत्यनेन मां जित्वैव नत्वन्यथेति सूचितम्।। 1-214-24 शेषं प्रसादम्।। 1-214-27 दुराधरो दुष्प्रापः।। 1-214-28 वीर्येण शुक्रद्वारा पुरुषमंशभूतं दद्याम्।। 1-214-29 तेजस्वी इन्द्रांशः।। 1-214-31 तैर्विश्वभुगादिभिः। स देवो महादेवः।। 1-214-32 व्यदधाद्विहितवान् आज्ञप्तवानित्यर्थः। उद्बबर्ह उद्धृतवान्।। 1-214-38 तस्य राज्ञः। तस्मै राज्ञे।। चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 214 ।।
आदिपर्व-213 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-215 |