महाभारतम्-01-आदिपर्व-199
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अर्जुनेन अनुरूपपुरोहितसंपादनं पृष्टेन गन्धर्वेण धौम्यवरणाक्ष्यनुज्ञा।। 1 ।।
गन्धर्वाय आग्नेयास्त्रदानम्।। 2 ।।
उत्को चतीर्थे पाण्डवैः धौम्यस्य पौरोहित्ये वरणम्।। 3 ।।
अर्जुन उवाच। | 1-199-1x |
अस्माकमनुरूपो वै यः स्याद्गन्धर्व वेदवित्। पुरोहितस्तमाचक्ष्व सर्वं हि विदितं तव।। | 1-199-1a 1-199-1b |
गन्धर्व उवाच। | 1-199-2x |
यवीयान्देवलस्यैष वने भ्राता तपस्यति। धौम्य उत्कोचके तीर्थे तं वृणुध्वं यीच्छथ।। | 1-199-2a 1-199-2b |
वैशंपायन उवाच। | 1-199-3x |
ततोऽर्जुनोऽस्त्रमाग्नेयं प्रददौ तद्यथाविधि। गन्धर्वाय `स च प्रीतो वचनं चेदमब्रवीत्।। | 1-199-3a 1-199-3b |
मयि सन्ति हयश्रेष्ठास्तव दास्यामि वै सखे। उपकारकृतं मित्रं प्रतिकारेण योजये।। | 1-199-4a 1-199-4b |
गृह्णीष्व चाक्षुषीं विद्यामिमां भरतसत्तम। एवमुक्तोऽर्जुनः' प्रीतो वचनं चेदमब्रवीत्।। | 1-199-5a 1-199-5b |
त्वय्येव तावत्तिष्ठन्तु हया गन्धर्वसत्तम। कार्यकाले ग्रहीष्यामः स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत्।। | 1-199-6a 1-199-6b |
तेऽन्योन्यमभिसंपूज्य गन्धर्वः पाण्डवाश्च ह। रम्याद्भागीरथीतीराद्यथाकामं प्रतस्थिरे।। | 1-199-7a 1-199-7b |
तत उत्कोचकं तीर्थं गत्वा धौम्याश्रमं तु ते। तं वव्रुः पाण्डवा धौम्यं पौरोहित्याय भारत।। | 1-199-8a 1-199-8b |
तान्धौम्यः प्रतिजग्राह सर्ववेदविदां वरः। वन्येन फलमूलेन पौरोहित्येन चैव ह।। | 1-199-9a 1-199-9b |
ते समाशंसिरे लब्धां श्रियं राज्यं च पाण्डवाः। ब्राह्मणं तं पुरस्कृत्य पाञ्चालीं च स्वयंवरे।। | 1-199-10a 1-199-10b |
पुरोहितेन तेनाथ गुरुणा संगतास्तदा। नाथवन्तमिवात्मानं मेनिरे भरतर्षभाः।। | 1-199-11a 1-199-11b |
स हि वेदार्थतत्त्वज्ञस्तेषां गुरुरुदारधीः। वेदविच्चैव वाग्मी च धौम्यः श्रीमान्द्विजोत्तमः।। | 1-199-12a 1-199-12b |
तेजसा चैव बुद्ध्या च रूपेण यशसा श्रिया। मन्त्रैश्च विविधैर्धौम्यस्तुल्य आसीद्बृहस्पतेः।। | 1-199-13a 1-199-13b |
स चापि विप्रस्तान्मेने स्वभावाभ्यधिकान्भुवि। तेन धर्मविदा पार्था योज्या सर्वविदा वृताः।। | 1-199-14a 1-199-14b |
मेनिरे सहिता वीराः प्राप्तं राज्यं च पाण्डवाः। बुद्धिवीर्यबलोत्साहैर्युक्ता देवा इवापरे।। | 1-199-15a 1-199-15b |
कृतस्वस्त्ययनास्तेन ततस्ते मनुजाधिपाः। मेनिरे सहिता गन्तुं पाञ्चाल्यास्तं स्वयंवरम्।। | 1-199-16a 1-199-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि एकोनद्विशततमोऽध्यायः।। 199 ।। |
।। समाप्तं चैत्ररथपर्व ।।
आदिपर्व-198 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-200 |