महाभारतम्-01-आदिपर्व-177
दिखावट
← आदिपर्व-176 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-177 वेदव्यासः |
आदिपर्व-178 → |
परेद्युः प्रातः ब्राह्मणेन दत्तमन्नं भुक्त्वा बकाय प्रापणीयं अन्नादिपूर्णं शकटमारुह्य बकवंन प्रति भीमस्य गमनम्।। 1 ।।
तत्र भीमेन शकटस्तान्नभोजनम्।। 2 ।।
अन्नं भुञ्जानं भीमं दृष्ट्वा क्रुद्धेन बकेन सह भीमस्य युद्धम्।। 3 ।।
बकवधः।। 4 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 1-177-1x |
उपपन्नमिदं मातस्त्वया यद्बुद्धिपूर्वकम्। आर्तस्य ब्राह्मणस्यैतदनुक्रोशादिदं कृतम्।। | 1-177-1a 1-177-1b |
ध्रुवमेष्यति भीमोऽयं निहत्य पुरुषादकम्। सर्वथा ब्राह्मणस्यार्थे यदनुक्रोशवत्यसि।। | 1-177-2a 1-177-2b |
यथा त्विदं न विन्देयुर्नरा नगरवासिनः। तथाऽयं ब्राह्मणो वाच्यः परिग्राह्यश्च यत्नतः।। | 1-177-3a 1-177-3b |
वैशंपायन उवाच। | 1-177-4x |
`युधिष्ठिरेण संमन्त्र्य ब्राह्मणार्थमरिन्दम। कुन्ती प्रविश्य तान्सर्वान्मन्त्रयामास भारत।। | 1-177-4a 1-177-4b |
अथ रात्र्यां व्यतीतायां भीमसेनो महाबलः। ब्राह्मणं समुपागम्य वचश्चेदमुवाच ह।। | 1-177-5a 1-177-5b |
आपदस्त्वां विमोक्ष्येऽहं सपुत्रं ब्राह्मण प्रियम्। मा भैषी राक्षसात्तस्मान्मां ददातु बलिं भवान्।। | 1-177-6a 1-177-6b |
इद मामशितं कर्तुं प्रयतस्व सकृद्गृहे। आथात्मानं प्रादास्यामि तस्मै घोराय रक्षसे।। | 1-177-7a 1-177-7b |
त्वरध्वं किं विलम्बध्वे मा चिरं कुरुतानघाः। व्यवस्येयं मनः प्राणैर्युष्मान्रक्षितुमद्य वै।। | 1-177-8a 1-177-8b |
वैशंपायन उवाच। | 1-177-9x |
एवमुक्तः स भीमेन ब्राह्मणो भरतर्षभ। सुहृदां तत्समाख्याय ददावन्नं सुसंस्कृतम्।। | 1-177-9a 1-177-9b |
पिशितोदनमाजह्रुरथास्मै पुरवासिनः। सघृतं सोपदंशं च सूपैर्नानाविधैः सह।। | 1-177-10a 1-177-10b |
तदाऽशित्वा भीमसेनो मांसानि विविधानि च। मोदकानि च मुख्यानि चित्रोदनचयान्बहून्।। | 1-177-11a 1-177-11b |
ततोऽपिबद्दधिघटान्सुबहून्द्रोणसंमितान्। तस्य भुक्तवतः पौरा यथावत्समुपार्जितान्।। | 1-177-12a 1-177-12b |
उपजह्रुर्भृतं भागं समृद्धमनसस्तदा। ततो रात्र्यां व्यतीतायां सव्यञ्जनदधिप्लुतम्।। | 1-177-13a 1-177-13b |
समारुह्यान्नसंपूर्णं शकटं स वृकोदरः। प्रययौ तूर्यनिर्घोषैः पौरैश्च परिवारितः।। | 1-177-14a 1-177-14b |
आत्मानमेषोऽन्नभूतो राक्षसाय प्रदास्यति। तरुणोऽप्रतिरूपश्च दृढ औदरिको युवा।। | 1-177-15a 1-177-15b |
वाग्भिरेवंप्रकाराभिः स्तूयमानो वृकोदरः। चुचोद स बलीवर्दौ युक्तौ सर्वाङ्गकालकौ।। | 1-177-16a 1-177-16b |
वादित्राणां प्रवादेन ततस्तं पुरुषादकम्। अभ्यगच्छत्सुसंहृष्टः सर्वत्र मनुजैर्वृतः।। | 1-177-17a 1-177-17b |
संप्राप्य स च तं देशमेकाकी समुपाययौ। पुरुषादभयाद्भीतस्तत्रैवासीज्जनव्रजः।। | 1-177-18a 1-177-18b |
स गत्वा दूरमध्वानं दक्षिणामभितो दिशम्। यतोपदिष्टमुद्देशे ददर्श विपुलं द्रुमम्।। | 1-177-19a 1-177-19b |
केशमज्जास्थिमेदोभिर्बाहूरुचरणैरपि। आर्द्रैः शुष्कैश्च संकीर्णमभितोऽथ वनस्पतिम्।। | 1-177-20a 1-177-20b |
गृध्रकङ्कबलच्छन्नं गोमायुगणसेवितम्। उग्रगन्धमचक्षुष्यं श्मशानमिव दारुणम्।। | 1-177-21a 1-177-21b |
तं प्रविश्य महावृक्षं चिन्तयामास वीर्यवान्। यावन्न पश्यते रक्षो बकाभिख्यं बलोत्तरम्।। | 1-177-22a 1-177-22b |
आचितं विविधैर्भोज्यैरन्नैरुच्चावचैरिदम्। शकटं सूपसंपूर्णं यावद्द्रक्ष्यति राक्षसः।। | 1-177-23a 1-177-23b |
तावदेवेह भोक्ष्येऽहं दुर्लभं हि पुनर्भवेत्। विप्रकीर्येत सर्वं हि प्रयुद्धे मयि रक्षसा।। | 1-177-24a 1-177-24b |
अभोज्यं हि शवस्पर्शे निगृहीते बके भवेत्। स त्वेवं भीमकर्मा तु भीमसेनोऽभिलक्ष्य च।। | 1-177-25a 1-177-25b |
उपविश्य विविक्तेऽन्नं भुङ्क्ते स्म परमं परः। तं ततः सर्वतोऽपश्यन्द्रुमानारुह्य नागराः।। | 1-177-26a 1-177-26b |
नारक्षो बलिमश्नीयादेवं बहु च मानवाः। भुङ्क्ते ब्राह्मणरूपेण बकोऽयमिति चाब्रुवन्।। | 1-177-27a 1-177-27b |
स तं हसति तेजस्वी तदन्नमुपभुज्य च।' आसाद्य तु वनं तस्य रक्षसः पाण्डवो बली। आजुहाव ततो नाम्ना तदन्नमुपपादयन्।। | 1-177-28a 1-177-28b 1-177-28c |
ततः स राक्षसः क्रुद्धो भीमस्य वचनात्तदा। आजगाम सुसंक्रुद्धो यत्र भीमो व्यवस्थितः।। | 1-177-29a 1-177-29b |
महाकायो महावेगो दारयन्निव मेदिनीम्। लोहिताक्षः करालश्च लोहितश्मश्रुमूर्धजः।। | 1-177-30a 1-177-30b |
आकर्णाद्भिन्नवक्त्रश्च शङ्कुकर्णो विभीषणः। त्रिशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा संदश्य दशनच्छदम्।। | 1-177-31a 1-177-31b |
भुञ्जानमन्नं तं दृष्ट्वा भीमसेनं स राक्षसः। विवृत्य नयने क्रुद्ध इदं वचनमब्रवीत्।। | 1-177-32a 1-177-32b |
कोऽयमन्नमिदं भुङ्क्ते मदर्थमुपकल्पितम्। पश्यतो मम दुर्बुद्धिर्यियासुर्यमसादनम्।। | 1-177-33a 1-177-33b |
भीमसेनस्ततः श्रुत्वा प्रहसन्निव भारत। राक्षसं तमनादृत्य भुङ्क्त एव पराङ्मुखः।। | 1-177-34a 1-177-34b |
रवं स भैरवं कृत्वा समुद्यम्य करावुभौ। अभ्यद्रवद्भीमसेनं जिङांसुः पुरुषादकः।। | 1-177-35a 1-177-35b |
तथापि परिभूयैनं प्रेक्षमाणो वृकोदरः। राक्षसं भुङ्क्त एवान्नं पाण्डवः परवीरहा।। | 1-177-36a 1-177-36b |
अमर्षेण तु संपूर्णः कुन्तीपुत्रं वृकोदरम्। जघान पृष्ठे पाणिभ्यामुभाभ्यां पृष्ठतः स्थितः।। | 1-177-37a 1-177-37b |
तथा बलवता भीमः पाणिभ्यां भृशमाहतः। नैवावलोकयामास राक्षसं भुङ्क्त एव सः।। | 1-177-38a 1-177-38b |
ततः स भूयः संक्रुद्धो वृक्षमादाय राक्षसः। ताडयिष्यंस्तदा भीमं पुनरभ्यद्रवद्बली।। | 1-177-39a 1-177-39b |
क्षिप्तं क्रुद्धेन तं वृक्षं प्रतिजग्राह वीर्यवान्। सव्येन पाणिना भीमो दक्षिणेनाप्यभुङ्क्त ह।। | 1-177-40a 1-177-40b |
`शकटान्नं ततो भुक्त्वा रक्षसः पाणिना सह। गृह्णन्नेव तदा वृक्षं निःशेषं पर्वतोपमम्।। | 1-177-41a 1-177-41b |
भीमसेनो हसन्नेव भुक्त्वा त्यक्त्वा च राक्षसम्। पीत्वा दधिघटान्पूर्णान्घृतकुम्भाञ्शतं शतम्।। | 1-177-42a 1-177-42b |
वार्युपस्पृश्य संहृष्टस्तस्थौ गिरिरिवापरः। भ्रामयन्तं महावृक्षमायान्तं भीमदर्शनम्।। | 1-177-43a 1-177-43b |
दृष्ट्वोत्थायाहवे वीरः सिंहनादं व्यनादयत्। भुजवेगं तथाऽऽस्फोटं क्ष्वेलितं च महास्वनम्।। | 1-177-44a 1-177-44b |
कृत्वाऽऽह्वयत संक्रुद्धो भीमसेनोऽथ राक्षसम्। उवाचाशनिशब्देन ध्वनिना भीषयन्निव।। | 1-177-45a 1-177-45b |
भीम उवाच। | 1-177-46x |
बहुकालं सुपुष्टं ते शरीरं राक्षसाधम। द्विपच्चतुष्पन्मांसैश्च बहुभिश्चौदनैरपि।। | 1-177-46a 1-177-46b |
मद्बाहुबलमाश्रित्य न त्वं भूयस्त्वशिष्यसि। अद्य मद्बाहुनिष्पिष्टो गमिष्यसि यमालयम्।। | 1-177-47a 1-177-47b |
अद्यप्रभृति स्वप्स्यन्ति वेत्रकीयनिवासिनः। निरुद्विग्नाः पुरस्यास्य कण्टके सूद्धृते मया।। | 1-177-48a 1-177-48b |
अद्य युद्धे शरीरं ते कङ्कगोमायुवायसाः। मया हतस्य खादन्तु विकर्षन्तु च भूतले।। | 1-177-49a 1-177-49b |
वैशंपायन उवाच। | 1-177-50x |
एवमुक्त्वा सुसंक्रुद्धः पार्थो बकजिघांसया। उपाधावद्बकश्चापि पार्थं पार्थिवसत्तम।। | 1-177-50a 1-177-50b |
महाकायो महावेगो दारयन्निव मेदिनीम्। पिशङ्गरूपः पिङ्गाक्षो भीमसेनमभिद्रवत्।। | 1-177-51a 1-177-51b |
त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा संदश्य दशनच्छदम्। भृशं स भूयः संक्रुद्धो वृक्षमादाय राक्षसः।। | 1-177-52a 1-177-52b |
ताडयिष्यंस्तदा भीमं तरसाऽभ्यद्रवद्बली। क्रुद्धेनाभिहतं वृक्षं प्रतिजग्राह लीलया।। | 1-177-53a 1-177-53b |
सव्येन पाणिना भीमः प्रहसन्निव भारत। ततः स पुनरुद्यम्य वृक्षान्बहुविधान्बली।। | 1-177-54a 1-177-54b |
प्राहिणोद्भीमसेनाय बकोऽपि बलवान्रणे। सर्वानपोहयद्वृक्षान्स्वस्य हस्तस्य शाखया।। | 1-177-55a 1-177-55b |
तद्वृक्षयुद्धमभवद्वृक्षषण्डविनाशनम्।। महत्सुघोरं राजेन्द्र बकपाण्डवयोस्तदा।। | 1-177-56a 1-177-56b |
नाम विश्राव्य स बकः समभिद्रुत्य पाण्डवम्। समयुध्यत तीव्रेण वेगेन पुरुषादकः।। | 1-177-57a 1-177-57b |
तयोर्वेगेन महता पृथिवी समकम्पत। पादपांश्च महामात्रांश्चूर्णयामासतुः क्षणात्।। | 1-177-58a 1-177-58b |
द्रुतमागत्य पाणिभ्यां गृहीत्वा चैनमाक्षिपत्। आक्षिप्तो भीमसेनश्च पुनरेवोत्थितो हसन्।। | 1-177-59a 1-177-59b |
आलिङ्ग्यापि बकं भीमो न्यहनद्वसुधातले। भीमो विसर्जयित्वैनं समाश्वसिहि राक्षस।। | 1-177-60a 1-177-60b |
इत्युक्त्वा पुनरास्फोट्य उत्तिष्ठेति च सोऽब्रवीत्। समुत्पत्य ततः क्रुद्धो रूपं कृत्वा महत्तरम्।। | 1-177-61a 1-177-61b |
विरूपः सहसा तस्थौ2 तर्जयित्वा वृकोदरम्। अहसद्भीमसेनोऽपि राक्षसं भीमदर्शनम्।। | 1-177-62a 1-177-62b |
असौ गृहीत्वा पाणिभ्यां पृष्ठतश्च व्यवस्थितः। जानुभ्यां पीडयित्वाथ पातयामास भूतले।। | 1-177-63a 1-177-63b |
पुनः क्रुद्धो विसृज्यैनं राक्षसं क्रोधजीवितम्। स्वां कटीमीषदुन्नम्य बाहू तस्य परामृशत्।। | 1-177-64a 1-177-64b |
तस्य बाहू समादाय त्वरमाणो वृकोदरः। उत्क्षिप्य चावधूयैनं पातयन्बलवान्भुवि।। | 1-177-65a 1-177-65b |
तं तु वामेन पादेन क्रुद्धो भीमपराक्रमः। उरस्येनं समाजघ्ने भीमस्तु पतितं भुवि।। | 1-177-66a 1-177-66b |
व्यात्ताननेन घोरेण लम्बजिह्वेन रक्षसा। तेनाभिद्रुत्य भीमेन भीमो मूर्ध्नि समाहतः।। | 1-177-67a 1-177-67b |
एवं निहन्यमानः स राक्षसेन बलीयसा। रोषेण महताऽऽविष्टो भीमो भीमपराक्रमः।। | 1-177-68a 1-177-68b |
गृहीत्वा मध्यमुत्क्षिप्य बली जग्राह राक्षसम्। तावन्योन्यं पीडयन्तौ पुरुषादवृकोदरौ।। | 1-177-69a 1-177-69b |
मत्ताविव महानागावन्योन्यं विचकर्षतुः।। | 1-177-70a |
बाहुविक्षेपशब्दैश्च भीमराक्षसयोस्तदा। वेत्रकीयपुरी सर्वा वित्रस्ता समपद्यत।।' | 1-177-71a 1-177-71b |
तयोर्वेगेन महता तत्र भूमिरकम्पत। पादपान्वीरुधश्चैव चूर्णयामासतू रयात्।। | 1-177-72a 1-177-72b |
समागतौ च तौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ। गिरिभिर्गिरिशृह्गैश्च पाषाणैः पर्वतच्युतैः।। | 1-177-73a 1-177-73b |
अन्योन्यं ताडयन्तौ तौ चूर्णयामासतुस्तदा। आयामविस्तराभ्यां च परितो योजनद्वयम्।। | 1-177-74a 1-177-74b |
निर्महीरुहपाषाणतृणकुञ्जलतावलिम्। चक्रतुर्युद्धदुर्मत्तौ कूर्मपृष्ठोपमां महीम्।। | 1-177-75a 1-177-75b |
मुहूर्तमेवं संयुध्य समं रक्षःकुरूद्वहौ। ततो रक्षोविनाशाय मतिं कृत्वा कुरूत्तमः।। | 1-177-76a 1-177-76b |
दन्तान्कटकटीकृत्य दष्ट्वा च दशनच्छदम्। नेत्रे संवृत्य विकटं तिर्यक्प्रैक्षत राक्षसम्।। | 1-177-77a 1-177-77b |
अथ तं लोलयित्वा तु भीमसेनो महाबलः। अगृह्णात्परिरभ्यैनं बाहुभ्यां परिरभ्य च।। | 1-177-78a 1-177-78b |
जानुभ्यां पार्श्वयोः कुक्षौ पृष्ठे वक्षसि जघ्निवान्। भग्नोरुबाहुहृच्चैव विस्रंसद्देहबन्धनः।। | 1-177-79a 1-177-79b |
प्रस्वेददीर्घनिश्वासो निर्यञ्जीवाक्षितारकः। अजाण्डास्फोटनं कुर्वन्नाक्रोशंश्च श्वसञ्छनैः।। | 1-177-80a 1-177-80b |
भूमौ निपत्य विलुठन्दण्डाहत इवोरगः। विस्फुरन्तं महाकायं परितो विचकर्ष ह।। | 1-177-81a 1-177-81b |
विकृष्यमाणो वेगेन पाण्डवेन बलीयसा। समयुज्यत तीव्रेण श्रमेण पुरुषादकः।।' | 1-177-82a 1-177-82b |
हीयमानबलं रक्षः समीक्ष्य पुरुषर्षभः। निष्पिष्य भूमौ जानुभ्यां समाजघ्ने वृकोदरः।। | 1-177-83a 1-177-83b |
ततो।ञस्य जानुना पृष्ठमवपीड्य बलादिव। बाहुना परिजग्राह दक्षिणेन शिरोधराम्।। | 1-177-84a 1-177-84b |
सव्येन च कटीदेशे गृह्य वाससि पाण्डवः। जानुन्यारोप्य तत्पृष्ठं महाशब्दं बभञ्ज ह।। | 1-177-85a 1-177-85b |
ततोऽस्य रुधिरं वक्त्रात्प्रादुरासीद्विशांपते। भज्यमानस्य भीमेन तस्य घोरस्य रक्षसः।। | 1-177-86a 1-177-86b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 177 ।। |
1-177-31 त्रिशिखां त्रिरेखाम्।। सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 177 ।।
आदिपर्व-176 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-178 |