महाभारतम्-01-आदिपर्व-141
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द्रुपदसमीपं गत्वा तेन सह स्वस्य सखित्वं कथयतो द्रोणस्य द्रुपदकृतं भर्त्सनम्।। 1 ।।
तेन कुपितस्य द्रोणस्य हास्तिन पुरगमनम्।। 2 ।।
क्रीडाकाले कूपपतितयोर्विदाकन्दुकयोरुद्धरणे अशक्नुवतां कुमाराणां द्रोणकृतोऽधिक्षेपः।। 3 ।।
द्रोणेन वीटामुद्रिकयोः कूपादुद्धारः।। 4 ।।
द्रोणवृत्तान्तश्रवणेन भीष्मेण स्वगृहनिवासार्थं द्रोणं प्रति प्रार्थनम्।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-141-1x |
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्। अब्रवीत्पार्थिवं राजन्सखायं विद्धि मामिह।। | 1-141-1a 1-141-1b |
इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिर्पूर्वं जनेश्वरः। भारद्वाजेन पाञ्चाल्यो नामृष्यत वचोऽस्य तत्।। | 1-141-2a 1-141-2b |
स क्रोधामर्षजिह्मभ्रूः कषायीकृतलोचनः। ऐश्वर्यमदसंपन्नो द्रोणं राजाऽब्रवीदिदम्।। | 1-141-3a 1-141-3b |
द्रुपद उवाच। | 1-141-4x |
अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसा। यन्मां व्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज।। | 1-141-4a 1-141-4b |
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवंभूतैर्नरैः क्वचित्। सख्यं भवति मन्दात्मञ्श्रिया हीनैर्धनच्युतैः।। | 1-141-5a 1-141-5b |
सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः। सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्।। | 1-141-6a 1-141-6b |
न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्। कामश्चैतन्नाशयति क्रोधो वैनं रहत्युत।। | 1-141-7a 1-141-7b |
मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवदुपाधिकृत्। आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्।। | 1-141-8a 1-141-8b |
न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा। न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते।। | 1-141-9a 1-141-9b |
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्। तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः।। | 1-141-10a 1-141-10b |
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते।। | 1-141-11a 1-141-11b |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-12x |
द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान्। मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाऽभिपरिप्लुतः।। | 1-141-12a 1-141-12b |
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं प्रतिबुद्धिमान्। `शिष्यैः परिवृतः श्रीमान्पुत्रेण सहितस्तथा।।' | 1-141-13a 1-141-13b |
जगाम कुरुमुख्यानां नागरं नागसाह्वयम्। तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्ता नचिरादिव।। | 1-141-14a 1-141-14b |
स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने। भारद्वाजोऽवसत्तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः।। | 1-141-15a 1-141-15b |
ततोऽस्य तनुजः पार्थान्कृपस्यानन्तरं प्रभुः। अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः।। | 1-141-16a 1-141-16b |
एवं स तत्र गूढात्मा कंचित्कालमुवास ह। कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात्।। | 1-141-17a 1-141-17b |
क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन्मुदा। `तेषां संक्रीडमानानामुदपानेऽङ्गुलीयकम्।। | 1-141-18a 1-141-18b |
पपात धर्मपुत्रस्य वीटा तत्रैव चापतत्। गर्तान्बुना प्रतिच्छन्नं तारारूपमिवाम्बरे।। | 1-141-19a 1-141-19b |
दृष्ट्वा चैते कुमाराश्च तं यत्नात्पर्यवारयन्।' ततस्ते यत्नमातिष्ठन्वीटामुद्धर्तुमादृताः। न च ते प्रत्ययद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये।। | 1-141-20a 1-141-20b 1-141-20c |
ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त व्रीडयावनताननाः। तस्या योगमविदन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन्।। | 1-141-21a 1-141-21b |
तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्। कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्।। | 1-141-22a 1-141-22b |
ते तं दृष्ट्वा महातमानमुपगम्य कुमारकाः। भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन्।। | 1-141-23a 1-141-23b |
अथ द्रोणः कुमारांस्तान्दृष्ट्वा कत्यवशस्तदा। प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान्।। | 1-141-24a 1-141-24b |
अहो वो धिग्बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्रताम्। भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत।। | 1-141-25a 1-141-25b |
वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्। उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम्।। | 1-141-26a 1-141-26b |
ततोऽब्रवीत्तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। कृपस्यानुमते ब्रह्मन्भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम्।। | 1-141-27a 1-141-27b |
एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्। | 1-141-28a |
द्रोण उवाच। | 1-141-28x |
एषा मुष्टिरिषीकाणां मयाऽस्त्रेणाभिमन्त्रिता।। | 1-141-28b |
अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्येषु न विद्यते। वेत्स्यामीषिकया वीटां तामिषीकां तथाऽन्यया।। | 1-141-29a 1-141-29b |
तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम। | 1-141-30a |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-30x |
ततो यथोक्तं द्रोणेन तत्सर्वं कृतमञ्जसा।। | 1-141-30b |
तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः। आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन्।। | 1-141-31a 1-141-31b |
मुद्रिकामणि विप्रर्षे शीध्रमेतां समुद्धरथ | 1-141-32a |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-32x |
ततः शरं समादाय धनुश्चापि महायशाः।। | 1-141-32b |
शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत्प्रभुः। स शरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम्।। | 1-141-33a 1-141-33b |
ददौ ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः। मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः।। | 1-141-34a 1-141-34b |
अभिवन्दामहे ब्रह्मन्नैतदन्येषु विद्यते। कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे।। | 1-141-35a 1-141-35b |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-36x |
एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्। आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम्।। | 1-141-36a 1-141-36b |
स एव सुमहातेजाः सांप्रतं प्रतिपत्स्यते। | 1-141-37a |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-37x |
तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः।। | 1-141-37b |
ब्राह्मणस्य वचः कृत्स्नं तच्च कर्म तथाविधम्। भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत।। | 1-141-38a 1-141-38b |
युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च। अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम्।। | 1-141-39a 1-141-39b |
परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः। हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत्।। | 1-141-40a 1-141-40b |
द्रोण उवाच। | 1-141-41x |
महर्षेरग्निवेश्यस्य सकाशमहमच्युत। अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया।। | 1-141-41a 1-141-41b |
ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः। अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः।। | 1-141-42a 1-141-42b |
पाञ्चाल्यो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः। इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत्तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः।। | 1-141-43a 1-141-43b |
स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। तेनाहं सह संगम्य वर्तयन्सुचिरं प्रभो।। | 1-141-44a 1-141-44b |
बाल्यात्प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च। स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियंकरः।। | 1-141-45a 1-141-45b |
अब्रवीदिति मां भीष्म वचनं प्रीतिवर्धनम्। अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः।। | 1-141-46a 1-141-46b |
अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चाल्यो यदा तदा। तद्भोज्यं भवता राज्यमर्धं सत्येन ते शपे।। | 1-141-47a 1-141-47b |
मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च। एवमुक्त्वाऽथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया।। | 1-141-48a 1-141-48b |
तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा। सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद्यशस्विनीम्।। | 1-141-49a 1-141-49b |
शारद्वतीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम्। अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्।। | 1-141-50a 1-141-50b |
लेभे च गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम्। भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम्।। | 1-141-51a 1-141-51b |
पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा। गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्। अश्वत्थामारुदद्बालस्तन्मे संदेहयद्दिशः।। | 1-141-52a 1-141-52b 1-141-52c |
न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु। इति संचिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन्।। | 1-141-53a 1-141-53b |
विशुद्धणिच्छन्गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्। अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम्।। | 1-141-54a 1-141-54b |
यवपिष्टोदकेनैनं लोभयेयं कुमारकम्। पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयाऽपि च।। | 1-141-55a 1-141-55b |
ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद्विमोहितः। तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम्।। | 1-141-56a 1-141-56b |
हास्यतामुपसंप्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्। द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति।। | 1-141-57a 1-141-57b |
पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया। नृत्यतिस्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाऽप्युत।। | 1-141-58a 1-141-58b |
इति संभाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्। आत्मानं चात्मना गर्हन्मनसेदं व्यचिन्तयम्।। | 1-141-59a 1-141-59b |
अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे। परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया।। | 1-141-60a 1-141-60b |
इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्। पूर्वस्नेहानुरागित्वात्सदारः सौमकिं गतः।। | 1-141-61a 1-141-61b |
अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्। प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम्।। | 1-141-62a 1-141-62b |
संस्मरन्सङ्गमं चैव वचनं चैव तस्य तत्। ततो द्रुपदमागम्य सखइपूर्वमहं प्रभो।। | 1-141-63a 1-141-63b |
अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति। उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि सङ्गतः।। | 1-141-64a 1-141-64b |
स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्। अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसा।। | 1-141-65a 1-141-65b |
यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज। संगतनीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः।। | 1-141-66a 1-141-66b |
सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्। नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।। | 1-141-67a 1-141-67b |
साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते। न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित्।। | 1-141-68a 1-141-68b |
कामो वैनं विहरति क्रोधो वैनं रहत्युत। मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवदुपाधिकृत्।। | 1-141-69a 1-141-69b |
आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्। नह्यनाढ्यः सखाऽऽढ्यस्य नाविद्वान्विदुषः सखा।। | 1-141-70a 1-141-70b |
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते। न हि राज्ञामुदीर्णानामेवं भूतैर्नरैः क्वचित्।। | 1-141-71a 1-141-71b |
सख्यं भवति मन्दात्मञ्छ्रिया हीनैर्धनच्युतैः। नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।। | 1-141-72a 1-141-72b |
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते। अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम्।। | 1-141-73a 1-141-73b |
एकरात्रं तु ते ब्रह्मन्कामं दास्यामि भोजनम्। एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा।। | 1-141-74a 1-141-74b |
तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्ताऽस्म्यचिरादिव। द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाऽभिपरिप्लुतः।। | 1-141-75a 1-141-75b |
अभ्यागच्छं कुरून्भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः। ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः।। | 1-141-76a 1-141-76b |
इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते। | 1-141-77a |
वैशंपायन उवाच। | 1-141-77x |
एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत।। | 1-141-77b |
भीष्म उवाच। | 1-141-78x |
अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय। भुङ्क्ष भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये।। | 1-141-78a 1-141-78b |
कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्। त्वमेव परमो राजा सर्वे वाक्यकरास्तव।। | 1-141-79a 1-141-79b |
यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन्कृतं तदिति चिन्त्यताम्। दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान्मेऽनुग्रहः कृतः।। | 1-141-80a 1-141-80b |
1-141-4 अकृता असंस्कृता।। 1-141-7 रहति सख्याच्च्यावयति।। 1-141-13 प्रतिबुद्धिमान् प्रतीवपुद्धिमान्।। 1-141-18 वीटया कन्दुकेन।। 1-141-24 पैशल्यात् कौशल्यात्।। 1-141-27 गौतमीं च महातेजा भिक्षामश्नीत माचिरम् इति पाठान्तरम्।। 1-141-52 दिशः संदेहयत् दिङ्मोहमनयत्। अडभाव आर्षः।। 1-141-53 स्नातको यः कश्चिदल्पगोधनः स्वधर्मलोपान्नावसीदेतातो बहुगोधनवतो ब्राह्मणस्य प्रतिग्रहमिच्छन्।। 1-141-54 अन्तादन्तं देशाद्देशम्।। 1-141-60 वसे उपवसे।। 1-141-78 अधिज्यं कुरुवीराणां इति पाठान्तरम्। कुरुक्षये कुरुगृहे।। एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 141 ।।
आदिपर्व-140 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-142 |