महाभारतम्-01-आदिपर्व-230
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सुन्दोपसुन्दयोः दिग्विजयः कुरुक्षेत्रे निवासश्च।। 1 ।।
नारद उवाच। | 1-230-1x |
उत्सवे वृत्तमात्रे तु त्रैलोक्याकाङ्क्षिणावुभौ। मन्त्रयित्वा ततः सेनां तावज्ञापयतां तदा।। | 1-230-1a 1-230-1b |
सुहृद्भिरप्यनुज्ञातौ दैत्यैर्वृद्धैश्च मन्त्रिभिः। कृत्वा प्रास्थानिकं रात्रौ मघासु ययतुस्तदा।। | 1-230-2a 1-230-2b |
गदापिट्टशधारिण्या शूलमुद्गरहस्तया। प्रस्थितौ सह वर्मिण्या महत्या दैत्यसेनया।। | 1-230-3a 1-230-3b |
मङ्गलैः स्तुतिभिश्चापि विजयप्रतिसंहितैः। चारणैः स्तूयमानौ तौ जग्मतुः परया मुदा।। | 1-230-4a 1-230-4b |
तावन्तरिक्षमुत्प्लुत्य दैत्यौ कामगमावुभौ। देवानामेव भवनं जग्मतुर्युद्दुर्मदौ।। | 1-230-5a 1-230-5b |
तयोरागमनं ज्ञात्वा वरदानं च तत्प्रभोः। हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्ब्रह्मलोकं ततः सुराः।। | 1-230-6a 1-230-6b |
ताविन्द्रलोकं निर्जित्य यक्षरक्षोगणांस्तदा। खेचराण्यपि भूतानि जघ्नतुस्तीव्रविक्रमौ।। | 1-230-7a 1-230-7b |
अन्तर्भूमिगतान्नागाञ्जित्वा तौ च महारथौ। समुद्रवासिनीः सर्वा म्लेच्छजातीर्विजिग्यतुः।। | 1-230-8a 1-230-8b |
ततः सर्वां महीं जेतुमारब्धावुग्रशासनौ। सैनिकांश्च समाहूय सुतीक्ष्णं वाक्यमूचतुः।। | 1-230-9a 1-230-9b |
राजर्षयो महायज्ञैर्हव्यकव्यैर्द्विजातयः। तेजो बलं च देवानां वर्धन्ति श्रियं तथा।। | 1-230-10a 1-230-10b |
तेषामेवं प्रवृत्तानां सर्वेषामसुरद्विषाम्। संभूय सर्वैरस्माभिः कार्यः सर्वात्मना वधः।। | 1-230-11a 1-230-11b |
एवं सर्वान्समादिश्य पूर्वतीरे महोदधेः। क्रूरां मतिं समास्थाय जग्मतुः सर्वतोमुखौ।। | 1-230-12a 1-230-12b |
यज्ञैर्यजन्ति ये केचिद्याजयन्ति च ये द्विजाः। तान्सर्वान्प्रसभं हत्वा बलिनौ जग्मतुस्ततः।। | 1-230-13a 1-230-13b |
आश्रमेष्वग्निहोत्राणि मुनीनां भावितात्मनाम्। गृहीत्वा प्रक्षिपन्त्यप्सु विश्रब्धं सैनिकास्तयोः।। | 1-230-14a 1-230-14b |
तपोधनैश्च ये क्रुद्धैः शापा उक्ता महात्मभिः। नाक्रामन्त तयोस्तेऽपि वरदाननिराकृताः।। | 1-230-15a 1-230-15b |
नाक्रामन्त यदा शापा बाणा मुक्ताः शिलास्विव। नियमान्संपरित्यज्य व्यद्रवन्त द्विजातयः।। | 1-230-16a 1-230-16b |
पृथिव्यां ये तपःसिद्धा दान्ताः शमपरायणाः। तयोर्भयाद्दुद्रुवुस्ते वैनतेयादिवोरगाः।। | 1-230-17a 1-230-17b |
मथितैराश्रमैर्भग्नैर्विकीर्णकलशस्रुवैः। शून्यमासीज्जगत्सर्वं कालेनेव हतं तदा।। | 1-230-18a 1-230-18b |
ततो राजन्नदृश्यद्भिर्ऋषिभिश्च महासुरौ। उभौ विनिश्चयं कृत्वा विकुर्वाते वधैषिणौ।। | 1-230-19a 1-230-19b |
प्रभिन्नकरटौ मत्तौ भूत्वा कुञ्जररूपिणौ। संलीनमपि दुर्गेषु निन्यतुर्यमसादनम्।। | 1-230-20a 1-230-20b |
सिंहौ भूत्वा पुनर्व्याघ्रौ पुनश्चान्तर्हितावुभौ। तैस्तैरुपायैस्तौ क्रूरावृषीन्दृष्ट्वा निजघ्नतुः।। | 1-230-21a 1-230-21b |
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया प्रनष्टनृपतिद्विजा। उत्सन्नोत्सवयज्ञा च बभूव वसुधा तदा।। | 1-230-22a 1-230-22b |
हाहाभूता भयार्ता च निवृत्तविपणापणा। निवृत्तदेवकार्या च पुण्योद्वाहविवर्जिता।। | 1-230-23a 1-230-23b |
निवृत्तकृषिगोरक्षा विध्वस्तनगराश्रमा। अस्थिकङ्कालसंकीर्णा भूर्बभूवोग्रदर्शना।। | 1-230-24a 1-230-24b |
निवृत्तपितृकार्यं च निर्वषट्कारमङ्गलम्। जगत्प्रतिभयाकारं दुष्प्रेक्ष्यमभवत्तदा।। | 1-230-25a 1-230-25b |
चन्द्रादित्यौ ग्रहास्तारा नक्षत्राणि दिवौकसः। जग्मुर्विषादं तत्कर्म दृष्ट्वा सुन्दोपसुन्दयोः।। | 1-230-26a 1-230-26b |
एवं सर्वा दिशो दैत्यौ जित्वा क्रूरेण कर्मणा। निःसपत्नौ कुरुक्षेत्रे निवेशमभिचक्रतुः।। | 1-230-27a 1-230-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 230 ।। |
1-230-3 प्रस्थितौ सहधर्मिण्या इति ख.पाठः। जयमरणरूपतुल्यधर्म पत्येत्यर्थः। रत्नo।। 1-230-19 अदृश्यद्भिः अदृश्यैः तृतीयाचेयं सप्तर्म्येथ ऋषिष्वदृश्येषु सत्स्वित्यर्थः।। त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 230 ।।
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