महाभारतम्-01-आदिपर्व-187
दिखावट
← आदिपर्व-186 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-187 वेदव्यासः |
आदिपर्व-188 → |
सूर्यकन्यायाः तपत्या उपाख्यानम्--स्वभक्ताय संवरणाय स्वकन्यां दातुं सवितुर्निश्चयः।। 1 ।।
मृगयार्थं गतस्य संवरणस्य गिरौ तपतीदर्शनेन कामोत्पत्तिः।। 2 ।।
राजनि तया सह भाषितुं प्रवृत्ते तप्त्या अन्तर्धानम्।। 3 ।।
अर्जुन उवाच। | 1-187-1x |
तापत्य इति यद्वाक्यमुक्तवानसि मामिह। तदहं ज्ञातुमिच्छामि तापत्यार्थं विनिश्चितम्।। | 1-187-1a 1-187-1b |
तपती नाम का चैषा तापत्या यत्कृते वयम्। कौन्तेया हि वयं साधो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।। | 1-187-2a 1-187-2b |
वैशंपायन उवाच। | 1-187-3x |
एवमुक्तः स गन्धर्वः कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्। विश्रुतं त्रिषु लोकेषु श्रावयामास वै कथाम्।। | 1-187-3a 1-187-3b |
हन्त ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम्। यथावदखिलां पार्थ सर्वबुद्धिमतां वर।। | 1-187-4a 1-187-4b |
उक्तवानस्मि येन त्वां तापत्य इति यद्वचः। तत्तेऽहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना भव।। | 1-187-5a 1-187-5b |
य एष दिवि धिष्ण्येन नाकं व्याप्नोति तेजसा। एतस्य तपती नाम बभूव सदृशी सुता।। | 1-187-6a 1-187-6b |
विवस्वतो वै देवस्य सावित्र्यवरजा विभो। विश्रुता त्रिषु लोकेषु तपती तपसा युता।। | 1-187-7a 1-187-7b |
न देवी नासुरी चैव न यक्षी न च राक्षसी। नाप्सरा न च गन्धर्वी तथा रूपेण काचन।। | 1-187-8a 1-187-8b |
सुविभक्तानवद्याङ्गी स्वसितायतलोचना। स्वाचारा चैव साध्वी च सुवेषा चैव भामिनी।। | 1-187-9a 1-187-9b |
त तस्याः सदृशं कंचित्त्रिषु लोकेषु भारत। भर्तारं सविता मेने रूपशीलगुणश्रुतैः।। | 1-187-10a 1-187-10b |
संप्राप्तयौवनां पश्यन्देयां दुहितरं तु ताम्। `द्व्यष्टवर्षां तु तां श्यामां सविता रूपशालिनीम्।' नोपलेभे ततः शान्तिं संप्रदानं विचिन्तयन्।। | 1-187-11a 1-187-11b 1-187-11c |
अथर्क्षपुत्रः क्रान्तेय कुरूणामृषभो बली। सूर्यमाराधयामास नृपः संवरणस्तदा।। | 1-187-12a 1-187-12b |
अर्ध्यमाल्योपहाराद्यैर्गन्धैश्च नियतः शुचिः। नियमैरुपवासैश्च तपोभिर्विविधैरपि।। | 1-187-13a 1-187-13b |
सुश्रूषुरनहंवादी शुचिः पौरवनन्दन। अंशुमन्तं समुद्यन्तं पूजयामास भक्तिमान्।। | 1-187-14a 1-187-14b |
ततः कृतज्ञं धर्मज्ञं रूपेणासदृशं भुवि। तपत्याः सदृशं मेने सूर्यः संवरणं पतिम्।। | 1-187-15a 1-187-15b |
दातुमैच्छत्ततः कन्यां तस्मै संवरणाय ताम्। नृपोत्तमाय कौरव्य विश्रुताभिजनाय च।। | 1-187-16a 1-187-16b |
यथा हि दिवि दीप्तांशुः प्रभासयति तेजसा। तथा भुवि महिपालो दीप्त्या संवरणोऽभवत्।। | 1-187-17a 1-187-17b |
यथाऽर्चयन्ति चादित्यमुद्यन्तं ब्रह्मवादिनः। तथा संवरणं पार्थ ब्राह्मणावरजाः प्रजाः।। | 1-187-18a 1-187-18b |
स सोममति कान्तत्वादादित्यमति तेजसा। बभूव नृपतिः श्रीमान्सुहृदां दुर्हृदामपि।। | 1-187-19a 1-187-19b |
एवंगुणस्य नृपतेस्तथावृत्तस्य कौरव। तस्मै दातुं मनश्चक्रे तपतीं तपनः स्वयम्।। | 1-187-20a 1-187-20b |
स कदाचिदथो राजा श्रीमानमितविक्रमः। चचार मृगयां पार्थ पर्वतोपवने किल।। | 1-187-21a 1-187-21b |
चरतो मृगयां तस्य क्षुत्पिपासासमन्वितः। ममार राज्ञः कौन्तेय गिरावप्रतिमो हयः।। | 1-187-22a 1-187-22b |
स मृताश्वश्चरन्पार्थ पद्भ्यामेव गिरौ नृपः। ददर्शासदृशीं लोके कन्यामायतलोचनाम्।। | 1-187-23a 1-187-23b |
स एव एकामासाद्य कन्यां परबलार्दनः। तस्थौ नृपतिशार्दूलः पश्यन्नविचलेक्षणः।। | 1-187-24a 1-187-24b |
स हि तां तर्कयामास रूपतो नृपतिः श्रियम्। पुनः संतर्कयामास रवेर्भ्रष्टामिव प्रभाम्।। | 1-187-25a 1-187-25b |
वपुषा वर्चसा चैव शिखामिव विभावसोः। प्रसन्नत्वेन कान्त्या च चन्द्ररेखामिवामलाम्।। | 1-187-26a 1-187-26b |
गिरिपृष्ठे तु सा यस्मिन्स्थिता स्वसितलोचना। विभ्राजमाना शुशुभे प्रतिमेव हिरण्मयी।। | 1-187-27a 1-187-27b |
तस्या रूपेण स गिरिर्वेषेण च विशेषतः। ससवृक्षक्षुपलतो हिरण्मय इवाभवत्।। | 1-187-28a 1-187-28b |
अवमेने च तां दृष्ट्वा सर्वलोकेषु योषितः। अवाप्तं चात्मनो मेने स राजा चक्षुषः फलं।। | 1-187-29a 1-187-29b |
जन्मप्रभृति यत्किचिंद्दृष्टवान्स महीपतिः। रूपं न सदृशं तस्यास्तर्कयामास किंचन।। | 1-187-30a 1-187-30b |
तया बद्धमनश्चक्षुः पाशैर्गुणमयैस्तदा। न चचाल ततो देशाद्बुबुधे न च किंचन।। | 1-187-31a 1-187-31b |
अस्या नूनं विशालाक्ष्याः सदेवासुरमानुषम्। लोकं निर्मथ्य धात्रेदं रूपमाविष्कृतं कृतम्।। | 1-187-32a 1-187-32b |
एवं संतर्कयामास रूपद्रविणसंपदा। कन्यामसदृशीं लोके नृपः संवरणस्तदा।। | 1-187-33a 1-187-33b |
तां च दृष्ट्वैव कल्याणीं कल्याणाभिजनो नृपः। जगाम मनसा चिन्तां कामबाणेन पीडितः।। | 1-187-34a 1-187-34b |
दह्यमानः स तीव्रेण नृपतिर्मन्मथाग्निना। अप्रगल्भां प्रगल्भस्तां तदोवाच मनोहराम्।। | 1-187-35a 1-187-35b |
काऽसि कस्यासि रम्भोरु किमर्थं चेह तिष्ठसि। कथं च निर्जनेऽरण्ये चरस्येका शुचिस्मिते।। | 1-187-36a 1-187-36b |
त्वं हि सर्वानवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता। विभूषणमिवैतेषां भूषणानामभीप्सितम्।। | 1-187-37a 1-187-37b |
न देवीं नासुरीं चैव न यक्षीं न च राक्षसीम्। न च भोगवतीं मन्ये न गन्धवीं न मानुषीम्।। | 1-187-38a 1-187-38b |
या हि दृष्टा मया काश्चिच्छ्रुता वाऽपि वराङ्गनाः। न तासां सदृशीं मन्ये त्वामहं मत्तकाशिनि।। | 1-187-39a 1-187-39b |
दृष्ट्वैव चारुवदने चन्द्रात्कान्ततरं तव। वदनं पद्मपत्राक्षं मां मथ्नातीव मन्मथः।। | 1-187-40a 1-187-40b |
एवं तां स महीपालो बभाषे न तु सा तदा। कामार्तं निर्जनेऽरण्ये प्रत्यबाषथ किंचन।। | 1-187-41a 1-187-41b |
ततो लालप्यमानस्य पार्थिवस्यायतेक्षणा। सौदामिनीव चाभ्रेषु तत्रैवान्तरधीयत।। | 1-187-42a 1-187-42b |
तामन्वेष्टुं स नृपतिः परिचक्राम सर्वतः। वनं वनजपत्राक्षीं भ्रमन्नुन्मत्तवत्तदा।। | 1-187-43a 1-187-43b |
अपश्यमानः स तु तां बहु तत्र विलप्य च। निश्चेष्टः पार्थिवश्रेष्ठो मुहूर्तं स व्यतिष्ठत।। | 1-187-44a 1-187-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 187 ।। |
1-187-1 यत् यस्मात् तत् तस्मात्। तापत्यार्थं तापत्यशब्दार्थम्।। सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 187 ।।
आदिपर्व-186 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-188 |