महाभारतम्-01-आदिपर्व-083
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ययातेः स्वनामकथनपूर्वकं अष्टकेन सह संवादः।। 1 ।। तत्र ययातिना स्वस्य स्वर्गादधःपतनकारणकथनम्।। 2 ।।
ययातिरुवाच। | 1-83-1x |
अहं ययातिर्नहुषस्य पुत्रः पूरोः पिता सर्वभूतावमानात्। प्रभ्रंशितः सुरसिद्धर्षिलोका- त्परिच्युतः प्रपताम्यल्पपुण्यः।। | 1-83-1a 1-83-1b 1-83-1c 1-83-1d |
अहं हि पूर्वो वयसा भवद्भ्य- स्तेनाभिवादं भवतां न प्रयुञ्जे। यो विद्यया तपसा जन्मना वा वृद्धः स पूज्यो भवति द्विजानाम्।। | 1-83-2a 1-83-2b 1-83-2c 1-83-2d |
अष्टक उवाच। | 1-83-3x |
अवादीस्त्वं वयसा यः प्रवृद्धः स वै राजन्नाभ्यधिकः कथ्यते च। यो विद्यया तपसा संप्रवृद्धः स एव पूज्यो भवति द्विजानाम्।। | 1-83-3a 1-83-3b 1-83-3c 1-83-3d |
ययातिरुवाच। | 1-83-4x |
प्रतिकूलं कर्मणां पापमाहु- स्तद्वर्ततेऽप्रवणे पापलोक्यम्। सन्तोऽसतां नानुवर्तन्ति चैत- द्यथा चैषामनुकूलास्तथाऽऽसन्।। | 1-83-4a 1-83-4b 1-83-4c 1-83-4d |
अभूद्धनं मे विपुलं गतं त- द्विचेष्टमानो नाधिगन्ता तदस्मि। एवं प्रधार्यात्महिते निविष्टो यो वर्तते स विजानाति जीवः।। | 1-83-5a 1-83-5b 1-83-5c 1-83-5d |
महाधनो यो यजते सुयज्ञै- र्यः सर्वविद्यासु विनीतबुद्धिः। वेदानधीत्य तपसा योज्य देहं दिवं स यायात्पुरुषो वीतमोहः।। | 1-83-6a 1-83-6b 1-83-6c 1-83-6d |
दिष्टं बलीय इति मत्वाऽऽत्मबुद्ध्या।। | 1-83-7f |
सुखं हि जन्तुर्यदि वाऽपि दुःखं दैवाधीनं विन्दते नात्मशक्त्या। तस्माद्दिष्टं बलवन्मन्यमानो न संज्वरेन्नापि हृष्येत्कथंचित्।। | 1-83-8a 1-83-8b 1-83-8c 1-83-8d |
दुःखैर्न तप्येन्न सुखैः प्रहृष्ये- त्समेन वर्तेत सदैव धीरः। दिष्टं बलीय इति मन्यमानो न संज्वरेन्नापि हृष्येत्कथंचित्।। | 1-83-9a 1-83-9b 1-83-9c 1-83-9d |
भये न मुह्याम्यष्टकाहं कदाचि- त्सन्तापो मे मानसो नास्ति कश्चित्। धाता यथा मां विदधीत लोके ध्रुवं तथाऽहं भवितेति मत्वा।। | 1-83-10a 1-83-10b 1-83-10c 1-83-10d |
संस्वेदजा अण्डजाश्चोद्भिदश्च सरीसृपाः कृमयोऽथाप्सु मत्स्याः। तथाश्मनस्तृणकाष्ठं च सर्वे दिष्टक्षये स्वां प्रकृतिं भजन्ति।। | 1-83-11a 1-83-11b 1-83-11c 1-83-11d |
अनित्यतां सुखदुःस्वस्य बुद्ध्वा कस्मात्संतापमष्टकाहं भजेयम्। किं कुर्यां वै किं च कृत्वा न तप्ये तस्मात्सन्तापं वर्जयाम्यप्रमत्तः।। | 1-83-12a 1-83-12b 1-83-12c 1-83-12d |
वैशंपायन उवाच। | 1-83-13x |
एवं व्रुवाणं नृपतिं ययाति- मथाष्टकः पुनरेवान्वपृच्छत्। मातामहं सर्वगुणोपपन्नं तत्रस्थितं स्वर्गलोके यथावत्।। | 1-83-13a 1-83-13b 1-83-13c 1-83-13d |
अष्टक उवाच। | 1-83-14x |
ये ये लोकाः पार्थिवेन्द्रप्रधाना- स्त्वया भुक्ता यं च कालं यथावत्। तान्मे राजन्ब्रूहि सर्वान्यथाव- त्क्षेत्रज्ञवद्भाषसे त्वं हि धर्मान्।। | 1-83-14a 1-83-14b 1-83-14c 1-83-14d |
ययातिरुवाच। | 1-83-15x |
राजाऽहमासमिह सार्वभौम- स्ततो लोकान्महतश्चाजयं वै। तत्रावसं वर्षसहस्रमात्रं ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः।। | 1-83-15a 1-83-15b 1-83-15c 1-83-15d |
ततः पुरीं पुरुहूतस्य रम्यां सहस्रद्वारां शतयोजनायताम्। अध्यावसं वर्षसहस्रमात्रं ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः।। | 1-83-16a 1-83-16b 1-83-16c 1-83-16d |
ततो दिव्यमजरं प्राप्य लोकं प्रजापतेर्लोकपतेर्दुरापम्। तत्रावसं वर्षसहस्रमात्रं ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः।। | 1-83-17a 1-83-17b 1-83-17c 1-83-17d |
स देवदेवस्य निवेशने च विहृत्य लोकानवसं यथेष्टम्। संपूज्यमानस्त्रिदशैः समस्तै- स्तुल्यप्रभावद्युतिरीश्वराणाम्।। | 1-83-18a 1-83-18b 1-83-18c 1-83-18d |
तथाऽऽवसं नन्दने कामरूपी संवत्सराणामयुतं शतानाम्। सहाप्सरोभिर्विहरन्पुण्यगन्धा- न्पश्यन्नगान्पुष्पितांश्चारुरूपान्।। | 1-83-19a 1-83-19b 1-83-19c 1-83-19d |
तत्र स्थितं मां देव सुखेषु सक्तं कालेऽतीते महति ततोऽतिमात्रम्। दूतो देवानामब्रवीदुग्ररूपो ध्वंसेत्युच्चैस्त्रिः प्लुतेन स्वरेण।। | 1-83-20a 1-83-20b 1-83-20c 1-83-20d |
एतावन्मे विदितं राजसिंह ततो भ्रष्टोऽहं नन्दनात्क्षीणपुण्यः। वाचोऽश्रौषं चान्तरिक्षे सुराणां सानुक्रोंशाः शोचतां मां नरेन्द्र।। | 1-83-21a 1-83-21b 1-83-21c 1-83-21d |
अहो कष्टं क्षीणपुण्यो ययातिः पतत्यसौ पुण्यकृत्पुण्यकीर्तिः। तानब्रुवं पतमानस्ततोऽहं सतां मध्ये निपतेयं कथं नु।। | 1-83-22a 1-83-22b 1-83-22c 1-83-22d |
तैराख्याता भवतां यज्ञभूमिः समीक्ष्य चेमां त्वरितमुपागतोऽस्मि। हविर्गन्धं देशिकं यज्ञभूमे- र्धूमापाङ्गं प्रतिगृह्य प्रतीतः।। | 1-83-23a 1-83-23b 1-83-23c 1-83-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।। |
1-83-2 ययातिरपनीततपोविद्यागर्वत्वाद्वयोज्यैष्ठ्यमेव पुरस्कृत्याह। अहं हीति। तदेवोपपादयत्युत्तरार्धेन।। 1-83-3 तदसहमानोऽष्टक आह। अवादीरिति। त्वं च विद्यातपःसंप्रवृद्ध इति भावः।। 1-83-4 विद्यातपसोः श्रैष्ठ्ये अष्टकेन स्तुते तत्र स्वानुभूतं विघ्नं दर्शयन्ययातिरुवाच। प्रतिकूलमिति। कर्मणां पुण्यानां प्रतिकूलं नाशकं पापं गर्वस्तच्चाप्रवणेऽनम्रे दर्पवति वर्तते। पापलोक्यं नरकप्रदम्। एतत्पापमसतां संबन्धि सन्तो नानुवर्तन्ते इदानीमपि। किंच प्राञ्चोपि सन्तो यथैषां कर्मणामनुकूला उपबृंहकाः स्युस्तथा तेन प्रकारेण दम्भदर्पादिराहित्येन आसन्। अहं त्वत द्विधत्वात्स्वर्गादिन्द्रेण च्यावित इत्याशयः।। 1-83-5 तद्दम्भादिराहित्येन प्रसिद्धं धनं पुण्यं मे मम विपुलं यदभूत्तद्गतं नष्टं दर्पादित्यर्थः। पुनरिदानीं तच्चेष्टमानोऽपि तत्पुनर्नाधिगन्तास्मि। एवं प्रधार्य मामिकां गतिं ज्ञात्वा य आत्महिते निविष्टो यो वर्तते स धीरो जानाति नान्य इत्यर्थः।। 1-83-7 एतदेवाह। न जात्विति धनेन तपसा तर्हि त्वमे कुतोऽहंकारं कृतवानित्यत आह। नानेति। जीवलोकेऽस्मिन् जीवा नानाभावाः पृथक्स्वभावाः केचिद्धर्मरुचयः केचिद्विपरीताः। यतो दैवाधीनाः। अतएव नष्टा वृथाभूता चेष्टा उद्योगोऽधिकारः सामर्थ्यं च येषां ते तथा। दृष्टा इति शेषः। मूढानां पुण्ये पण्डितानां पापे च प्रवृत्तिकरं दैवमेव बलवदित्यर्थः। एवं विद्वांस्तत्तप्राप्य तत्सुखं दुःखं वा प्राप्य न विहन्येत। हर्षविषादाभ्यामात्मानं न हिंस्यादित्यर्थः।। 1-83-8 एतदेव विवृणोति। सुखं हीति द्वाभ्याम्।। 1-83-10 भयं तु ते व्येतु विषादमोहाविति यदष्टकेनोक्तं तत्रोत्तरमाह। भये इति। धाता दिष्टं।। 1-83-11 अहमिवान्येऽपि दिष्टाधीना एवेत्याह। संस्वेदजा इति। एतेपि दिष्टक्षये पुण्यपापानुभवानन्तरम्। स्वां प्रकृतिं स्वकर्मशेषानुगुणां योनिं भजन्ति प्राप्नुवन्ति।। 1-83-12 अहं तु दिष्टक्षयाभावात्प्राप्तेपि दुःखे न तप्ये इत्याह। अनित्यतामिति।। 1-83-14 क्षेत्रज्ञवत् ज्ञानिवत्।। 1-83-23 तैरिति। देशिकमुपदेष्टारमिव स्थितं। हविषां गन्धो यत्र तं धूमापाङ्गं धूमप्रान्तं प्रतिगृह्य आघ्राय प्रतीतः जातप्रत्ययः।। त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।।
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