महाभारतम्-01-आदिपर्व-127
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कुन्त्या पाण्डुं प्रति व्युषिताश्वकथाकथनम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-127-1x |
एवमुक्ता महाराज कुन्ती पाण्डुमभाषत। कुरूणामृषभं वीरं तदा भूमिपतिं पतिम्।। | 1-127-1a 1-127-1b |
कुन्त्युवाच। | 1-127-2x |
न मामर्हसि धर्मज्ञ वक्तुमेवं कथंचन। धर्मपत्नीमभिरतां त्वयि राजीवलोचने।। | 1-127-2a 1-127-2b |
त्वमेव तु महाबाहो मय्यपत्यानि भारत। वीर वीर्योपपन्नानि धर्मतो जनयिष्यसि।। | 1-127-3a 1-127-3b |
स्वर्गं मनुजशार्दूल गच्छेयं सहिता त्वया। अपत्याय च मां गच्छ त्वमेव कुरुनन्दन।। | 1-127-4a 1-127-4b |
न ह्यहं मनसाप्यन्यं गच्छेयं त्वदृते नरम्। त्वत्तः प्रति विशिष्टश्च कोऽन्योऽस्ति भुवि मानवः।। | 1-127-5a 1-127-5b |
इमां च तावद्धर्मात्मन्पौराणीं शृणु मे कथाम्। परिश्रुतां विशालाक्ष कीर्तयिष्यामि यामहम्।। | 1-127-6a 1-127-6b |
व्युषइताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः। पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः।। | 1-127-7a 1-127-7b |
तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महाभुजे। उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्रा देवर्षिभिः सह।। | 1-127-8a 1-127-8b |
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः। व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।। | 1-127-9a 1-127-9b |
देवा ब्रह्मर्षयश्चैव चक्रुः कर्म स्वयं तदा। व्युषिताश्वस्ततो राजन्नति मर्त्यान्व्यरोचत।। | 1-127-10a 1-127-10b |
सर्वभूतान्प्रति यथा तपनः शिशिरात्यये। स विजित्य गृहीत्वा च नृपतीन्राजसत्तमः।। | 1-127-11a 1-127-11b |
प्राच्यानुदिच्यान्पाश्चात्यान्दाक्षिणात्यानकालयत्। अश्वमेधे महायज्ञे व्युषिताश्वः प्रतापवान्।। | 1-127-12a 1-127-12b |
बभूव स हि राजेन्द्रो दशनागबलान्वितः। अप्यत्र गाथां गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।। | 1-127-13a 1-127-13b |
व्युषिताश्वे यशोवृद्धे मनुष्येन्द्रे कुरूत्तम। व्युषिताश्वः समुद्रान्तां विजित्येमां वसुन्धराम्।। | 1-127-14a 1-127-14b |
अपालयत्सर्ववर्णान्पिता पुत्रानिवौरसान्। यजमानो महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ।। | 1-127-15a 1-127-15b |
अनन्तरत्नान्यादाय स जहार महाक्रतून्। सुषाव च बहून्सोमान्सोमसंस्थास्ततान च।। | 1-127-16a 1-127-16b |
आसीत्काक्षीवती चास्य भार्या परमसंमता। भद्रा नाम मनुष्येन्द्र रूपेणासदृशी भुवि।। | 1-127-17a 1-127-17b |
कामयामासतुस्तौ च परस्परमिति श्रुतम्। स तस्यां कामसंपन्नो यक्ष्मणा समपद्यत।। | 1-127-18a 1-127-18b |
तेनाचिरेण कालेन जगामास्तमिवांशुमान्। तस्मिन्प्रेते मनुष्येन्द्रे भार्याऽस्य भृशदुःखिता।। | 1-127-19a 1-127-19b |
अपुत्रा पुरुषव्याघ्र विललापेति नः श्रुतम्। भद्रा परमदुःखार्ता तन्निबोध जनाधिप।। | 1-127-20a 1-127-20b |
भद्रोवाच। | 1-127-21x |
नारी परमधर्मज्ञ सर्वा भर्तृविनाकृता। पतिं विना जीवति या न सा जीवति दुःखिता।। | 1-127-21a 1-127-21b |
पतिं विना मृतं श्रेयो नार्याः क्षत्रियपुंगव।। त्वद्गतिं गन्तुमिच्छामि प्रसीदस्वनयस्वमाम्।। | 1-127-22a 1-127-22b |
त्वया हीना क्षणमपि नाहं जीवितुमुत्सहे। प्रसादं कुरु मे राजन्नितस्तूर्णं नयस्व माम्।। | 1-127-23a 1-127-23b |
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि समेषु विषमेषु च। त्वामहं नरशार्दूल गच्छन्तमनिवर्तितुम्।। | 1-127-24a 1-127-24b |
छायेवानुगता राजन्सततं वशवर्तिनी। भविष्यामि नरव्याघ्र नित्यं प्रियहिते रता।। | 1-127-25a 1-127-25b |
अद्यप्रभृति मां राजन्कष्टा हृदयशोषणाः। आधयोऽभिभविष्यन्ति त्वामृते पुष्करेक्षण।। | 1-127-26a 1-127-26b |
अभाग्यया मया नूनं वियुक्ताः सहचारिणः। तेन मे विप्रयोगोऽयमुपपन्नस्त्वया सह।। | 1-127-27a 1-127-27b |
विप्रयुक्ता तु या पत्या मुहूर्तमपि जीवति। दुःखं जीवति सा पापा नरकस्थेव पार्थिव।। | 1-127-28a 1-127-28b |
संयुक्ता विप्रयुक्ताश्च पूर्वदेहे कृता मया। तदिदं कर्मभिः पापैः पूर्वदेहेषु संचितम्।। | 1-127-29a 1-127-29b |
दुःखं मामनुसंप्राप्तं राजंस्त्वद्विप्रयोगजम्। अद्यप्रभृत्यहं राजन्कुशसंस्तरशायिनी। भविष्याम्यसुखाविष्टा त्वद्दर्शनपरायणा।। | 1-127-30a 1-127-30b 1-127-30c |
दर्शयस्व नरव्याघ्र शाधि मामसुखान्विताम्। कृपणां चाथ करुणं विलपत्नीं नरेश्वर।। | 1-127-31a 1-127-31b |
कन्त्युवाच। | 1-127-32x |
एवं बहुविधं तस्यां विलपन्त्यां पुनःपुनः। तं शवं संपरिष्वज्य वाक्किलाऽन्तर्हिताऽब्रवीत्।। | 1-127-32a 1-127-32b |
उत्तिष्ठ भद्रे गच्छ त्वं ददानीह वरं तव। जनयिष्याम्यपत्यानि त्वय्यहं चारुहासिनि।। | 1-127-33a 1-127-33b |
आत्मकीये वरारोहे शयनीये चतुर्दशीम्। अष्टमीं वा ऋतुस्नाता संविशेथा मया सह।। | 1-127-34a 1-127-34b |
एवमुक्ता तु सा देवी तथा चक्रे पतिव्रता। यथोक्तमेव तद्वाक्यं भद्रा पुत्रार्थिनी तदा।। | 1-127-35a 1-127-35b |
सा तेन सुषुवे देवी शवेन भरतर्षभ। त्रीञ्शाल्वांश्चतुरो मद्रान्सुतान्भरतसत्तम।। | 1-127-36a 1-127-36b |
तथा त्वमपि मय्येवं मनसा भरतर्षभ। शक्तो जनयितुं पुत्रांस्तपोयोगबलान्वितः।। | 1-127-37a 1-127-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 127 ।। |
1-127-12 अकालयद्वशीकृतवान्।। 1-127-16 जहार आहृतवान् चकारेत्यर्थः। सोमसंस्थाः अग्निष्टोमात्यग्निष्टोमादयः सप्त।। 1-127-22 मृतं मरा।। 1-127-32 शवं प्रेवशरीरं संपरिष्वज्य विलपन्त्यामित्यन्वयः।। सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 127 ।।
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