महाभारतम्-01-आदिपर्व-092
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वैशंपायन उवाच। | 1-92-1x |
ततो गच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान्विसृज्य तान्। नापश्यच्चाश्रमे तस्मिंस्तमृषिं संशितव्रतम्।। | 1-92-1a 1-92-1b |
सोऽपश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्ट्वा तथाऽऽश्रमम्। उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं सन्नादयन्निव।। | 1-92-2a 1-92-2b |
श्रुत्वाऽथ तस्य तं शब्दं कन्या श्रीरिव रूपिणी। निश्चक्रामाश्रमात्तस्मात्तापसीवेषधारिणी।। | 1-92-3a 1-92-3b |
सा तं दृष्ट्वैव राजानं दुष्यन्तमसितेक्षणा। `सुप्रीताऽभ्यागतं तं तु पूज्यं प्राप्तमथेश्वरम्।। | 1-92-4a 1-92-4b |
रूपयौवनसंपन्ना शीलाचारवती शुभा। सा तमायतपद्माक्षं व्यूढोरस्कं महाभुजम्।। | 1-92-5a 1-92-5b |
सिंहस्कन्धं दीर्घबाहुं सर्वलक्षणपूजितम्। स्पृष्टं मधुरया वाचा साऽब्रवीज्जनमेजया।।' | 1-92-6a 1-92-6b |
स्वागतं त इति क्षिप्रमुवाच प्रतिपूज्य च। आसनेनार्चयित्वा च पाद्येनार्घ्येण चैव हि।। | 1-92-7a 1-92-7b |
पप्रच्छानामयं राजन्कुशलं च नराधिपम्। यथावदर्चयित्वाऽथ पृष्ट्वा चानामयं तदा।। | 1-92-8a 1-92-8b |
उवाच स्मयमानेव किं कार्यं क्रियतामिति। `आश्रमस्याभिगमने किं त्वं कार्यं चिकीर्षसि।। | 1-92-9a 1-92-9b |
कस्त्वमद्येह संप्राप्तो महर्षेराश्रमं शुभम्।' तामब्रवीत्ततो राजा कन्यां मधुरभाषिणीम्।। | 1-92-10a 1-92-10b |
दृष्ट्वा सर्वानवद्याङ्गीं यथावत्प्रतिपूजितः। `राजर्षेस्तस्य पुत्रोऽहमिलिनस्य महात्मनः।। | 1-92-11a 1-92-11b |
दुष्यन्त इति मे नाम सत्यं पुष्करलोचने। आगतोऽहं महाभागमृषिं कण्वमुपासितुम्।। | 1-92-12a 1-92-12b |
क्व गतो भगवान्भद्रे गन्ममाचक्ष्व शोभने। | 1-92-13a |
शकुन्तलोवाच। | 1-92-13x |
गतः पिता मे भगवान्फलान्याहर्तुमाश्रमात्। मुहूर्तं संप्रतीक्षस्व द्रष्टास्येनमुपागतम्।। | 1-92-13b 1-92-13c |
वैशंपायन उवाच। | 1-92-14x |
अपश्यमानस्तमृषिं तथा चोक्तस्तया च सः। तां दृष्ट्वा च वरारोहां श्रीमतीं चारुहासिनीम्।। | 1-92-14a 1-92-14b |
विभ्राजमानां वपुषा तपसा च दमेन च। रूपयौवनसंपन्नामित्युवाच महीपतिः।। | 1-92-15a 1-92-15b |
का त्वं कस्यासि सुश्रोणि किमर्थं चागता वनम्। एवंरूपगुणोपेता कुतस्त्वमसि शोभने।। | 1-92-16a 1-92-16b |
दर्शनादेव हि शुभे त्वया मेऽपहृतं मनः। इच्छामि त्वामहं ज्ञातुं तन्ममाचक्ष्व शोभने।। | 1-92-17a 1-92-17b |
`स्थितोस्म्यमितसौभाग्ये विवक्षुश्चास्मि किंचन। शृणु मे नागनासोरु वचनं मत्तकाशिनि।। | 1-92-18a 1-92-18b |
राजर्षेरन्वये जातः पूरोरस्मि विशेषतः। वृण्वे त्वामद्य सुश्रोणि दुष्यन्तो वरवर्णिनि।। | 1-92-19a 1-92-19b |
न मेऽन्यत्र क्षत्रियाया मनो जातु प्रवर्तते। ऋषिपुत्रीषु चान्यासु नावरासु परासु च।। | 1-92-20a 1-92-20b |
तस्मात्प्रणिहितात्मानं विद्दि मां कलभाषिणि। यस्यां मे त्वयि भावोऽस्ति क्षत्रिया ह्यसि का वदा।। | 1-92-21a 1-92-21b |
न हि मे भीरु विप्रायां मनः प्रसहते गतिम्। भजे त्वामायतापाङ्गे भक्तं भजितुमर्हसि। भुङ्क्ष राज्यं विशालाक्षि बुद्धिं मात्वन्यथा कृथाः'।। | 1-92-22a 1-92-22b 1-92-22c |
एवमुक्ता तु सा कन्या तेन राज्ञा तमाश्रमे। उवाच हसती वाक्यमिदं सुमधुराक्षरम्।। | 1-92-23a 1-92-23b |
कण्वस्याहं भगवतो दुष्यन्त दुहिता मता। तपस्विनो धृतिमतो धर्मज्ञस्य महात्मनः।। | 1-92-24a 1-92-24b |
`अस्वतन्त्रास्मि राजेन्द्र काश्यपो मे गुरुः पिता। तमेव प्रार्थय स्वार्थं नायुक्तं कर्तुमर्हसि।।' | 1-92-25a 1-92-25b |
दुष्यन्त उवाच। | 1-92-26x |
ऊर्ध्वरेता महाभागे भगवाँल्लोकपूजितः। चलेद्धि वृत्ताद्धर्मोपि न चलेत्संशितव्रतः।। | 1-92-26a 1-92-26b |
कथं त्वं तस्य दुहिता संभूता वरवर्णिनी। संशयो मे महानत्र तन्मे छेत्तुमिहार्हसि।। | 1-92-27a 1-92-27b |
शकुन्तलोवाच। | 1-92-28x |
यथाऽयमागमो मह्यं यथा चेदमभूत्पुरा। `अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।। | 1-92-28a 1-92-28b |
स पापेनावृतो मूर्खस्तेन आत्मापहारकः।' शृणु राजन्यथातत्त्वं यथाऽस्मि दुहिता मुनेः।। | 1-92-29a 1-92-29b |
ऋषिः कश्चिदिहागम्य मम जन्माभ्यचोदयत्। `ऊर्ध्वरेता यथासि त्वं कुतस्त्वेयं शकुन्तला।। | 1-92-30a 1-92-30b |
पुत्री त्वत्तः कथं जाता तत्त्वं मे ब्रूहि काश्यप।' तस्मै प्रोवाच भगवान्यथा तच्छृणु पार्थिवा।। | 1-92-31a 1-92-31b |
कण्व उवाच। | 1-92-32x |
तप्यमानः किल पुरा विश्वामित्रो महत्तपः। सुभृशं तापयामास शक्रं सुरगणेश्वरम्।। | 1-92-32a 1-92-32b |
तपसा दीप्तवीर्योऽयं स्थानान्मां च्यावयेदिति। भीतः पुरन्दरस्तस्मान्मेनकामिदमब्रवीत्।। | 1-92-33a 1-92-33b |
गुणैरप्सरसां दिव्यैर्मेनके त्वं विशिष्यसे। श्रेयो मे कुरु कल्याणि यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु।। | 1-92-34a 1-92-34b |
असावादित्यशङ्काशो विश्वामित्रो महातपाः। तप्यमानस्तपो घोरं मम कम्पयते मनः।। | 1-92-35a 1-92-35b |
मेनके तव भारोऽयं विश्वामित्रः सुमध्यमे। शंसितात्मा सुदुर्धर्ष उग्रे तपसि वर्तते।। | 1-92-36a 1-92-36b |
स मां न च्यावयेत्स्थानात्तं वै गत्वा प्रलोभय। चर तस्य तपोविघ्नं कुरु मे प्रियमुत्तमम्।। | 1-92-37a 1-92-37b |
रूपयौवनमाधुर्यचेष्टितस्मितभाषणैः। लोभयित्वा वरारोहे तपसस्तं निवर्तय।। | 1-92-38a 1-92-38b |
मेनकोवाच। | 1-92-39x |
महातेजाः स भगवांस्तथैव च महातपाः। कोपनश्च तथा ह्येनं जानाति भगवानपि।। | 1-92-39a 1-92-39b |
तेजस्तपसश्चैव कोपस्य च महात्मनः। त्वमप्युद्विजसे यस्य नोद्विजेयमहं कथम्।। | 1-92-40a 1-92-40b |
महाभागं वसिष्ठं यः पुत्रैरिष्टैर्व्ययोजयत्। क्षत्रजातश्च यः पूर्वमभवद्ब्राह्मणो बलात्।। | 1-92-41a 1-92-41b |
शौचार्थं यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलैः। यां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विदुर्जनाः।। | 1-92-42a 1-92-42b |
बभार यत्रास्य पुरा काले दुर्गे महात्मनः। दारान्मतङ्गो धर्मात्मा राजर्षिर्व्याधतां गतः।। | 1-92-43a 1-92-43b |
अतीतकाले दुर्भिक्षे अभ्येत्य पुनराक्षमम्। मुनिः पारेति नद्या वै नाम चक्रे तदा प्रभुः।। | 1-92-44a 1-92-44b |
मतङ्गं याजयाञ्चक्रे यत्र प्रीतमनाः स्वयम्। त्वं च सोमं भयाद्यस्य गतः पातुं सुरेश्वर।। | 1-92-45a 1-92-45b |
चकारान्यं च लोकं वै क्रुद्धो नक्षत्रसंपदा। प्रतिश्रवणपूर्वाणि नक्षत्राणि चकार यः। गुरुशापहतस्यापि त्रिशङ्कोः शरणं ददौ।। | 1-92-46a 1-92-46b 1-92-46c |
ब्रह्मर्षिशापं राजर्षिः कथं मोक्ष्यति कौशिकः। अवमत्य तदा देवैर्यज्ञाङ्गं तद्विनाशितम्।। | 1-92-47a 1-92-47b |
अन्यानि च महातेजा यज्ञाङ्गान्यसृजत्प्रभुः। निनाय च तदा स्वर्गं त्रिशङ्कुं स महातपाः।। | 1-92-48a 1-92-48b |
एतानि यस्य कर्माणि तस्याहं भृशमुद्विजे। यथाऽसौ न दहेत्क्रुद्धस्तथाऽऽज्ञापय मां विभो।। | 1-92-49a 1-92-49b |
तेजसा निर्दहेल्लोकान्कम्पयेद्धरणीं पदा। संक्षिपेच्च महामेरुं तूर्णमावर्तयेद्दिशः।। | 1-92-50a 1-92-50b |
तादृशं तपसा युक्तं प्रदीप्तमिव पावकम्। कथमस्मद्विधा नारी जितेन्द्रियमभिस्पृशेत्।। | 1-92-51a 1-92-51b |
हुताशनमुखं दीप्तं सूर्यचन्द्राक्षितारकम्। कालजिह्वं सुरश्रेष्ठ कथमस्मद्विधा स्पृशेत्।। | 1-92-52a 1-92-52b |
यमश्च सोमश्च महर्षयश्च साध्या विश्वे वालस्विल्याश्च सर्वे। एतेऽपि यस्योद्विजन्ते प्रभावा- त्तस्मात्कस्मान्मादृशी नोद्विजेत।। | 1-92-53a 1-92-53b 1-92-53c 1-92-53d |
त्वयैवमुक्ता च कथं समीप- मृषेर्न गच्छेयमहं सुरेन्द्र। रक्षां च मे चिन्तय देवराज यथा त्वदर्थं रक्षिताऽहं चरेयम्।। | 1-92-54a 1-92-54b 1-92-54c 1-92-54d |
कामं तु मे मारुतस्तत्र वासः प्रक्रीडिताया विवृणोतु देव। भवेच्च मे मन्मथस्तत्र कार्ये सहायभूतस्तु तव प्रसादात्।। | 1-92-55a 1-92-55b 1-92-55c 1-92-55d |
वनाच्च वायुः सुरभिः प्रवाया- त्तस्मिन्काले तमृषिं लोभयन्त्याः। तथेत्युक्त्वा विहिते चैव तस्मिं- स्ततो ययौ साऽऽश्रमं कौशिकस्य।। | 1-92-56a 1-92-56b 1-92-56c 1-92-56d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि |
1-92-23 हसती हसन्ती।। 1-92-30 अभ्यचोदयत् पृष्टवान्।। 1-92-43 बभार पोषितवान्। मतङ्गस्त्रिशङ्कुः।। 1-92-44 आश्रममभ्येत्य तपस्तप्त्वेति शेषः। नद्याः कौशिक्याः।। 1-92-49 तस्य तस्मात्।। 1-92-50 आवर्तयेदेकीकुर्यात्।। 1-92-52 सूर्यचन्द्रावेवाक्ष्णोः संबन्धिनी तारके यस्य तावपि भ्रूभङ्गमात्रेण स्रष्टुं समर्थ इत्यर्थः।। 1-92-55 प्रक्रीडितायाः प्रकृष्टं क्रीडितं यस्याः। विवृणोतु अपसारयतु।।
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