महाभारतम्-01-आदिपर्व-027
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गरुडस्य विनतां प्रति दास्यकारणप्रश्नः।। 1 ।। सर्पैः दास्यमोचनोपायकथनम्।। 2 ।।
सौतिरुवाच। | 1-27-1x |
संप्रहृष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा। सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै।। | 1-27-1a 1-27-1b |
तं द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा। तत्र ते लवणं घोरं ददृशुः पूर्वमागताः।। | 1-27-2a 1-27-2b |
सुपर्णसहिताः सर्पाः काननं च मनोरमम्। सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसङ्घनिजादितम्।। | 1-27-3a 1-27-3b |
विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम्। भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि।। | 1-27-4a 1-27-4b |
प्रसन्नसलिलैश्चापि ह्वदैर्दिव्यैर्विभूषितम्। दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम्।। | 1-27-5a 1-27-5b |
उत्पतद्भिरिवाकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि। शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः।। | 1-27-6a 1-27-6b |
वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथाऽन्यैरपि पादपैः। किरद्भिरिव तत्रस्थान्नागान्पुष्पाम्बुवृष्टिभिः।। | 1-27-7a 1-27-7b |
मनःसंहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्सरसां प्रियम्। मत्तभ्रमस्संघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम्।। | 1-27-8a 1-27-8b |
रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वैर्जनमनोहरैः। नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम्।। | 1-27-9a 1-27-9b |
तत्ते वनं समासाद्य विजह्रुः पन्नगास्तदा। अब्रुवंश्च महावीर्यं सुपर्णं पतगेश्वरम्।। | 1-27-10a 1-27-10b |
वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम्। त्वं हि देशान्बहून्रम्यान्व्रजन्पश्यसि खेचर।। | 1-27-11a 1-27-11b |
सौतिरुवाच। | 1-27-12x |
स विचिन्त्याब्रवीत्पक्षी मातरं विनतो तदा। किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम्।। | 1-27-12a 1-27-12b |
विनतोवाच। | 1-27-13x |
दासीभूतास्मि दुर्योगात्सपत्न्याः पतगोत्तम। पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना कृतम्।। | 1-27-13a 1-27-13b |
सौतिरुवाच। | 1-27-14x |
तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेतरः। उवाच वचनं सर्पांस्तेन दुःखेन दुःखितः।। | 1-27-14a 1-27-14b |
किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम्। दास्याद्वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः।। | 1-27-15a 1-27-15b |
सौतिरुवाच। | 1-27-16x |
श्रुत्वा समब्रुवन्सर्पा आहरामृतमोजसा। ततो दास्याद्विप्रमोक्षो भविता तव खेचर।। | 1-27-16a 1-27-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।। |
1-27-2 लवणं लवणासुरं पूर्वं ददृशुः।। 1-27-8 मनःसंहर्षजं मनसः संहर्षाय जातम्।। 1-27-15 लेलिहाः भोसर्पाः।। सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।।
आदिपर्व-026 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-028 |