महाभारतम्-01-आदिपर्व-159
पठन सेटिंग्स
← आदिपर्व-158 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-159 वेदव्यासः |
आदिपर्व-160 → |
खनकेन सुरङ्गकरणम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-159-1x |
विदुरस्य सुहृत्कश्चित्खनकः कुशलः क्वचित्। विविक्ते पाण्डवान्राजन्निदं वचनमब्रवीत्।। | 1-159-1a 1-159-1b |
प्रहितो विदुरेणास्मि खनकः कुशलो ह्यहम्। पाण्डवानां प्रियं कार्यमिति किं करवाणि वः।। | 1-159-2a 1-159-2b |
प्रच्छन्नं विदुरेणोक्तं प्रियं यन्म्लेच्छभाषया। त्वया च तत्तथेत्युक्तमेतद्विश्वासकारणम्।। | 1-159-3a 1-159-3b |
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रावस्यां पुरोचनः। भवनस्य तव द्वारि प्रदास्यति हुताशनम्।। | 1-159-4a 1-159-4b |
मात्रा सह प्रदग्धव्याः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। इति व्यवसितं तस्य धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।। | 1-159-5a 1-159-5b |
वैशंपायन उवाच। | 1-159-6x |
उवाच तं सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। अभिजानामि सौम्य त्वां सुहृदं विदुरस्य वै।। | 1-159-6a 1-159-6b |
शुचिमाप्तं प्रियं चैव सदा च दृढभक्तिकम्। न विद्यते कवेः किंचिदविज्ञातं प्रयोजनम्।। | 1-159-7a 1-159-7b |
यथा तस्य तथा नस्त्वं निर्विशेषा वयं त्वयि। भवतश्च यथा तस्य पालयास्मान्यथा कविः।। | 1-159-8a 1-159-8b |
इदं शरणमाग्नेयं मदर्थमिति मे मतिः। पुरोचनेन विहितं धार्तराष्ट्रस्य शासनात्।। | 1-159-9a 1-159-9b |
स पापः कोशवांश्चैव ससहायश्च दुर्मतिः। अस्मानपि च पापात्मा नित्यकालं प्रबाधते।। | 1-159-10a 1-159-10b |
स भवान्भोक्षयत्वस्मान्यत्नेनास्माद्धुताशनात्। अस्मास्विह हि दग्धेषु सकामः स्यात्सुयोधनः।। | 1-159-11a 1-159-11b |
समृद्धमायुधागारमिदं तस्य दुरात्मनः। वप्रान्तं निष्प्रतीकारमाश्रित्येदं कृतं महत्।। | 1-159-12a 1-159-12b |
इदं तदशुभं नूनं तस्य कर्म चिकीर्षितम्। प्रागेव विदुरो वेद तेनास्मानन्वबोधयत्।। | 1-159-13a 1-159-13b |
सेयमापदनुप्राप्ता क्षत्ता यां दृष्टवान्पुरा। पुरोचनस्याविदितानस्मांस्त्वं प्रतिमोचय।। | 1-159-14a 1-159-14b |
वैशंपायन उवाच। | 1-159-15x |
स तथेति प्रतिश्रुत्य खनको यत्नमास्थितः। परिखामुत्किरन्नाम चकार च महाबिलम्।। | 1-159-15a 1-159-15b |
चक्रे च वेश्मनस्तस्य मध्ये नातिमहद्बिलम्। कपाटयुक्तमज्ञातं समं भूम्याश्च भारत।। | 1-159-16a 1-159-16b |
पुरोचनभयादेव व्यदधात्संवृतं मुखम्। स तस्य तु गृहद्वारि वसत्यशुभधीः सदा। तत्र ते सायुधाः सर्वे वसन्ति स्म क्षपां नृप।। | 1-159-17a 1-159-17b 1-159-17c |
दिवा चरन्ति मृगयां पाण्डवेया वनाद्वनम्। विश्वस्तवदविश्वस्ता वञ्चयन्तः पुरोचनम्।। | 1-159-18a 1-159-18b |
अतुष्टास्तुष्टवद्राजन्नूषुः परमविस्मिताः।। | 1-159-19a |
न चैनानन्वबुध्यन्त नरा नगरवासिनः। अन्यत्र विदुरामात्यात्तस्मात्खनकसत्तमात्।। | 1-159-20a 1-159-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि ऊनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 159 ।। |
1-159-4 आर्द्रायां च पुरोचनः। भवनस्य निशि द्वारि इति ङ. पाठः।। 1-159-7 कवेः सर्वज्ञस्य क्रान्तदर्शिनो वा।। 1-159-8 यथा वयं तस्य तथा भवतश्च।। 1-159-9 शरणं गृहम्।। 1-159-12 वप्रान्तं प्राकारमूलम्। निष्प्रतीकारं बहिर्निर्गमनप्रकारशून्यम्।। 1-159-14 अस्मांस्त्वं विप्रवासय इति ङ. पाठः।। 1-159-15 परिखा प्राकारपरिधिभूतो गर्तस्ताम्। नाम प्रसिद्धण्। उत्किरन्परिखापरिष्कारव्याजेन बिलान्मृदमुत्किरन् बहिः क्षिपन् महाबिलं सुरङ्गाख्यं चकार।। 1-159-16 नातिमहामुखं इति ङ. पाठः।। ऊनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 159 ।।
आदिपर्व-158 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-160 |