महाभारतम्-01-आदिपर्व-096
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शकुन्तलाया दुष्यन्तं प्रति प्रेषयितुं कण्वकृत उपदेशः।। 1 ।।
हास्तिनपुरगमनविषयेकण्वशकुन्तलासर्वदमनानां विवादः।। 2 ।।
कण्वेन स्वशिष्यद्वारा शकुन्तलासर्वदमनयोर्हास्तिनपुरप्रेषणम्।। 3 ।।
पुरप्रवेशान्निर्विण्णैः शिष्यैः कण्वाश्रमं प्रति निवर्तनम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-96-1x |
तं कुमारमृषिर्दृष्ट्वा कर्म चास्यातिमानुषम्। समयो यौवराज्याय इत्यनुध्याय स द्विजः।। | 1-96-1a 1-96-1b |
`शकुन्तलां समाहूय कण्वो वचनमब्रवीत्। | 1-96-2a |
कण्व उवाच। | 1-96-2x |
शृणु भद्रे मम सुते मम वाक्यं शुचिस्मिते।। | 1-96-2b |
पतिव्रतानां नारीणां विशिष्टमिति चोच्यते। पतिशुश्रूषणं पूर्वं मनोवाक्कायचेष्टितैः।। | 1-96-3a 1-96-3b |
अनुज्ञाता मया पूर्वं पूजयैतद्व्रतं तव। एतेनैव च वृत्तेन पुण्याँल्लोकानवाप्य च।। | 1-96-4a 1-96-4b |
तस्यान्ते मानुषे लोके विशिष्टां तप्स्यसे श्रियम्। तस्माद्भद्रेऽद्य यातव्यं समीपं पौरवस्य ह।। | 1-96-5a 1-96-5b |
स्वयं नायाति मत्वा ते गतं कालं शुचिस्मिते। गत्वाऽऽराधय राजानं दुष्यन्तं हितकाम्यया।। | 1-96-6a 1-96-6b |
दौष्यन्तिं यौवराज्यस्थं दृष्ट्वा प्रीतिमवाप्स्यसि। देवतानां गुरूणां च क्षत्रियाणां च भामिनि।। | 1-96-7a 1-96-7b |
भर्तॄणां च विशेषेम हितं संगमनं भवेत्। तस्मात्पुत्रि कुमारेण गन्तव्यं मत्प्रियेप्सया।। | 1-96-8a 1-96-8b |
प्रतिवाक्यं न दद्यास्त्वं शपिता मम पादयोः।। | 1-96-9a |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-10x |
एवमुक्त्वा सुतां तत्र पौत्रं कण्वोऽभ्यभाषत। परिष्वज्य च बाहुभ्यां मूर्ध्न्युपाघ्राय पौरवम्।। | 1-96-10a 1-96-10b |
सोमवंशोद्भवो राजा दुष्यन्त इति विश्रुतः। तस्याग्रमहिषी चैषा तव माता शुचिव्रता।। | 1-96-11a 1-96-11b |
गन्तुकामा भर्तृपार्श्वं त्वया सह सुमध्यमा। गत्वाऽभिवाद्य राजनं यौवराज्यमवाप्स्यसि।। | 1-96-12a 1-96-12b |
स पिता तव राजेन्द्रस्तस्य त्वं वशगो भव। पितृपैतामहं राज्यमातिष्ठस्व स्वभावतः।। | 1-96-13a 1-96-13b |
तस्मिन्काले स्वराज्यस्थो मामनुस्मर पौरव।। | 1-96-14a |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-15x |
अभिवाद्य मुनेः पादौ पौरवो वाक्यमब्रवीत्। त्वं पिता मम विप्रर्षे त्वं माता त्वं गतिश्च मे।। | 1-96-15a 1-96-15b |
न चान्यं पितरं मन्ये त्वामृते तु महातपः। तव शुश्रूषणं पुण्यमिह लोके परत्र च।। | 1-96-16a 1-96-16b |
शकुन्तला भर्तृकामा स्वयं यातु यथेष्टतः। अहं सुश्रूषणपरः पादमूले वसामि वः।। | 1-96-17a 1-96-17b |
क्रीडां व्यालमृगैः सार्धं करिष्ये न पुरा यथा। त्वच्छासनपरो नित्यं स्वाध्यायं च करोम्यहम्।। | 1-96-18a 1-96-18b |
एवमुक्त्वा तु संश्लिष्य पादौ कण्वस्य तिष्ठतः। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्ररुरोद शकुन्तला।। | 1-96-19a 1-96-19b |
स्नेहात्पितुश्च पुत्रस्य हर्षशोकसमन्विता। निशाम्य रुदतीमार्तां दौष्यन्तिर्वाक्यमब्रवीत्।। | 1-96-20a 1-96-20b |
श्रुत्वा भगवतो वाक्यं किं रोदिषि शकुन्तले। गन्तव्यं काल्य उत्थाय भर्तृप्रीतिस्ववास्ति चेत्।। | 1-96-21a 1-96-21b |
शकुन्तलोवाच। | 1-96-22x |
एकस्तु कुरुते पापं फलं भुङ्क्ते महाजनः। मया निवारितो नित्यं न करोषि वचो मम।। | 1-96-22a 1-96-22b |
निःसृतान्कुञ्जरान्नित्यं बाहुभ्यां संप्रमथ्य वै। वनं च लोडयन्नित्यं सिंहव्याघ्रगणैर्वृतम्।। | 1-96-23a 1-96-23b |
एवंविधानि चान्यानि कृत्वा वै पुरुनन्दन। रुषितो भगवांस्तात तस्मादावां विवासितौ।। | 1-96-24a 1-96-24b |
नाहं गच्छामि दुष्यन्तं नास्मि पुत्र हितैषिणी। पादमूले वसिष्यामि महर्षेर्भावितात्मनः।। | 1-96-25a 1-96-25b |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-26x |
एवमुक्त्वा तु रुदती पपात मुनिपादयोः। एवं विलपतीं कण्वश्चानुनीय च हेतुभिः। पुनः प्रोवाच भगवानानृशंस्याद्धितं वचः।। | 1-96-26a 1-96-26b 1-96-26c |
कण्व उवाच। | 1-96-27x |
शकुन्तले शृणुष्वेदं हितं पथ्यं च भामिनि। पतिव्रताभावगुणान्हित्वा साध्यं न किंचन।। | 1-96-27a 1-96-27b |
प्रतिव्रतानां देवा वै तुष्टाः सर्वरप्रदाः। प्रसादं च करिष्यन्ति आपदो मोक्षयन्ति च।। | 1-96-28a 1-96-28b |
पतिप्रसादात्पुण्यं च प्राप्नुवन्ति न चाशुभम्। तस्माद्गत्वा तु राजानमाराधय शुचिस्मिते।। | 1-96-29a 1-96-29b |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-30x |
शकुन्तलां तथोक्त्वा वै शाकुन्तलमथाब्रवीत्। दौहित्रो मम पौत्रस्त्वमिलिलस्य महात्मनः।। | 1-96-30a 1-96-30b |
शृणुष्व वचनं सत्यं प्रब्रवीमि तवानघ। मनसा भर्तृकामा वै वाग्भिरुक्त्वा पृथग्विधम्।। | 1-96-31a 1-96-31b |
गन्तुं नेच्छति कल्याणी तस्मात्तात वहस्व वै। शक्तस्त्वं प्रतिगन्तुं च मुनिभिः सह पौरव।।' | 1-96-32a 1-96-32b |
इत्युक्त्वा सर्वदमनं कण्वः शिष्यानथाब्रवीत्। शकुन्तलामिमां शीग्रं सपुत्रामाश्रमादितः।। | 1-96-33a 1-96-33b |
भर्तुः प्रापयताभ्याशं सर्वलक्षणपूजिताम्। नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते।। | 1-96-34a 1-96-34b |
कीर्तिचारित्रधर्म्नस्तस्मान्नयत मा चिरम्।। | 1-96-35a |
`वैशंपायन उवाच। | 1-96-36x |
धर्माभिपूजितं पुत्रं काश्यपेन निशाम्य तु। काश्यपात्प्राप्य चानुज्ञां मुमुदे च शकुन्तला।। | 1-96-36a 1-96-36b |
कण्वस्य वचनं श्रुत्वा प्रतिगच्छेति चासकृत्। तथेत्युक्त्वा तु कण्वं च मातरं पौरवोऽब्रवीत्। किं चिरायसि मातस्त्वं गमिष्यामो नृपालयम्।। | 1-96-37a 1-96-37b 1-96-37c |
एवमुक्त्वा तु तां देवीं दुष्यन्तस्य महात्मनः। अभिवाद्य मुनेः पादौ गन्तुमैच्छत्स पौरवः।। | 1-96-38a 1-96-38b |
शकुन्तला च पितरमभिवाद्य कृताञ्जलिः। प्रदक्षिणीकृत्य तदा पितरं वाक्यमब्रवीत्।। | 1-96-39a 1-96-39b |
अज्ञानान्मे पिता चेति दुरुक्तं वापि चानृतम्। अकार्यं वाप्यनिष्टं वा क्षन्तुमर्हति तद्भवान्।। | 1-96-40a 1-96-40b |
एवमुक्तो नतशिरा मुनिर्नोवाच किंचन। मनुष्यभावात्कण्वोऽपि मुनिरश्रूण्यवर्तयत्।। | 1-96-41a 1-96-41b |
अब्भक्षान्वायुभक्षांश्च शीर्णपर्णाशनान्मुनीन्। फलमूलाशिनो दान्तान्कृशान्धमनिसंततान्।। | 1-96-42a 1-96-42b |
व्रतिनो जटिलान्मुण्डान्वल्कलाजिनसंवृतान्। समाहूय मुनिः कण्वः कारुण्यादिदमब्रवीत्।। | 1-96-43a 1-96-43b |
मया तु लालिता नित्यं मम पुत्री यशस्विनी। वने जाता विवृद्धा च न च जानाति किंचन।। | 1-96-44a 1-96-44b |
आश्रमात्तु पथा सर्वैर्नीयतां क्षत्रियालयम्। द्वितीययोजने विप्राः प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठितम्।। | 1-96-45a 1-96-45b |
प्रतिष्ठाने पुरे राजा शाकुन्तलपितामहः। अध्युवास चिरं कालमुर्वश्या सहितः पुरा।। | 1-96-46a 1-96-46b |
अनूपजाङ्गलयुतं धनधान्यसमाकुलम्। प्रतिष्ठितं पुरवरं गङ्गायामुनसङ्गमे।। | 1-96-47a 1-96-47b |
तत्र सङ्गममासाद्य स्नात्वा हुतहुताशनाः। शाकमूलफलाहारा निवर्तध्वं तपोधनाः। अन्यथा तु भवेद्विप्रा अध्वनो गमने श्रमः।।' | 1-96-48a 1-96-48b 1-96-48c |
तथेत्युक्त्वा च ते सर्वे प्रातिष्ठन्त महौजसः। `शकुन्तलां पुरस्कृत्य दुष्यन्तस्य पुरं प्रति।। | 1-96-49a 1-96-49b |
गृहीत्वा चामरप्रख्यं पुत्रं कमललोचनम्। आजग्मुश्च पुरं रम्यं दुष्यन्ताध्युषितं वनात्।। | 1-96-50a 1-96-50b |
शकुन्तलां समादाय मुनयो धर्मवत्सलाः। ते वनानि नदीः शैलान्गिरिप्रस्रवणानि च।। | 1-96-51a 1-96-51b |
कन्दराणि नितम्बांश्च राष्ट्राणि नगराणि च। आश्रमाणि च पुण्यानि गत्वा चैव गतश्रमाः।। | 1-96-52a 1-96-52b |
शनैर्मध्याह्नवेलायां प्रतिष्ठानं समाययुः। तां पुरीं पुरुहूतेन ऐलस्यार्थे विनिर्मिताम्।। | 1-96-53a 1-96-53b |
परिघाट्टालकैर्मुख्यैरुपकल्पशतैरपि। शतघ्नीचक्रयन्त्रैश्च गुप्तामन्यैर्दुरासदाम्।। | 1-96-54a 1-96-54b |
हर्म्यप्रसादसंबाधां नानापण्यविभूषिताम्। मण्टपैः ससभै रम्यैः प्रपाभिश्च समावृताम्।। | 1-96-55a 1-96-55b |
राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिताम्। कैलासशिखराकारैर्गोपुरैः समलङ्कृताम्।। | 1-96-56a 1-96-56b |
द्वारतोरणनिर्यूहैर्मङ्गलैरुपशोभिताम्। उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम्।। | 1-96-57a 1-96-57b |
सर्वपुष्करिणीभिश्च उद्यानैश्च समावृताम्। वर्णाश्रमैः स्वधर्मस्थैर्नित्योत्सवसमाहितैः।। | 1-96-58a 1-96-58b |
धनधान्यसमृद्धैश्च संतुष्टै रत्नपूजितैः। कृतयज्ञैश्च विद्वद्भिरग्निहोत्रपरैः सदा।। | 1-96-59a 1-96-59b |
वर्जिता कार्यकरणैर्दानशीलैर्दयापरैः। अधर्मभीरुभिः सर्वैः स्वर्गलोकजिगीषुभिः।। | 1-96-60a 1-96-60b |
एवंविधजनोपेतमिन्द्रलोकमिवापरम्। तस्मिन्नगरमध्ये तु राजवेश्म प्रतिष्ठितम्।। | 1-96-61a 1-96-61b |
इन्द्रसद्मप्रतीकाशं संपूर्णं वित्तसंचयैः। तस्य मध्ये सभा दिव्या नानारत्नविभूषिता।। | 1-96-62a 1-96-62b |
तस्यां सभायां राजर्षिः सर्वालङ्कारभूषितः। ब्राह्मणैः क्षत्रियैश्चापि मन्त्रिभिश्चापि संवृतः।। | 1-96-63a 1-96-63b |
संस्तूयमानो राजेन्द्रः सूतमागधबन्दिभिः। कार्यार्थिषु तदाऽभ्येत्य कृत्वा कार्यं गतेषु सः।। | 1-96-64a 1-96-64b |
सुखासीनोऽभवद्राजा तस्मिन्काले महर्षयः। शकुन्तानां स्वनं श्रुत्वा निमित्तज्ञास्त्वलक्षयन्।। | 1-96-65a 1-96-65b |
शकुन्तले निमित्तानि शोभनानि भवन्ति नः। कार्यसिद्धिं वदन्त्येते ध्रुवं राज्ञी भविष्यसि। अस्मिंस्तु दिवसे पुत्रो युवराजो भविष्यति।। | 1-96-66a 1-96-66b 1-96-66c |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-67x |
वर्धमानपुरद्वारं तूर्यघोषनिनादितम्। शकुन्तलां पुरस्कृत्य विविशुस्ते महर्षयः।। | 1-96-67a 1-96-67b |
प्रविशन्तं नृपसुतं प्रशशंसुश्च वीक्षकाः। वर्धमानपुरद्वारं प्रविशन्नेव पौरवः।। | 1-96-68a 1-96-68b |
इन्द्रलोकस्थमात्मानं मेने हर्षसमन्वितः।। | 1-96-69a |
ततो वै नागराः सर्वे समाहूय परस्परम्। द्रष्टुकामा नृपसुतं समपद्यन्त भारत।। | 1-96-70a 1-96-70b |
नागरा ऊचुः। | 1-96-71x |
देवतेव जनस्याग्रे भ्राजते श्रीरिवागता। जयन्तेनेव पौलोमी इन्द्रलोकादिहागता।। | 1-96-71a 1-96-71b |
इति ब्रुवन्तस्ते सर्वे महर्षीनिदमब्रुवन्। अभिवादयन्तः सहिता महर्षीन्देववर्चसः।। | 1-96-72a 1-96-72b |
अद्य नः सफलं जन्म कृतार्थाश्च ततो वयम्। एवं ये स्म प्रपश्यामो महर्षीन्सूर्यवर्चसः।। | 1-96-73a 1-96-73b |
वैशंपायन उवाच। | 1-96-74x |
इत्युक्त्वा सहिताः केचिदन्वगच्छन्त पौरवम्। हैमवत्याः सुतमिव कुमारं पुष्करेक्षणम्।। | 1-96-74a 1-96-74b |
ये केचिदब्रुवन्मूढाः शाकुन्तलदिदृक्षवः। कृष्णाजिनेन संछन्नाननिच्छन्तो ह्यवेक्षितुम्।। | 1-96-75a 1-96-75b |
पिशाचा इव दृश्यन्ते नागराणां विरूपिणः। विना सन्ध्यां पिशाचास्ते प्रविशन्ति पुरोत्तमम्।। | 1-96-76a 1-96-76b |
क्षुत्पिपासार्दितान्दीनान्वल्कलाजिनवाससः। त्वगस्थिभूतान्निर्मांसान्धमनीसन्ततानपि।। | 1-96-77a 1-96-77b |
पिङ्गलाक्षान्पिङ्गजटान्दीर्घदन्तान्निरूदरान्। विशीर्षकानूर्ध्वहस्तान्दृष्ट्वा हास्यन्ति नागराः।। | 1-96-78a 1-96-78b |
एवमुक्तवतां तेषां गिरं श्रुत्वा महर्षयः। अन्योन्यं ते समाहूय इदं वचनमब्रुवन्।। | 1-96-79a 1-96-79b |
उक्तं भगवता वाक्यं न कृतं सत्यवादिना। पुरप्रवेशनं नात्र कर्तव्यमिति शासनम्।। | 1-96-80a 1-96-80b |
किं कारणं प्रवेक्ष्यामो नगरं दुर्जनैर्वृतम्। त्यक्तसङ्गस्य च मुनेर्नगरे किं प्रयोजनम्।। | 1-96-81a 1-96-81b |
गमिष्यामो वनं तस्माद्गङ्गायामुनसङ्गमम्। एवमुक्त्वा मुनिगणाः प्रतिजग्मुर्यथागतम्।। | 1-96-82a 1-96-82b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96 ।। |
1-96-10 पुत्र्याः पुत्रः पौत्रः दौहित्र इत्यर्थः।।
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