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महाभारतम्-01-आदिपर्व-011

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डुण्डुभचरितम्।। 1 ।।

डुण्डुभ उवाच। 1-11-1x
सखा बभूव मे पूर्वं खगमो नाम वै द्विजः।
भृशं संशितवाक्तात तपोबलसमन्वितः।।
1-11-1a
1-11-1b
स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णं भुजंगमम्।
अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै।।
1-11-2a
1-11-2b
लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः।
नर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक्संशितव्रतः।।
1-11-3a
1-11-3b
यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्बिभीषया।
तथावीर्यो भुजंगस्त्वं मम शापाद्भविष्यसि।।
1-11-4a
1-11-4b
तस्याहं तपसो वीर्यं जानन्नासं तपोधन।
भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा।।
1-11-5a
1-11-5b
प्रणतः संभ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः।
सखेति हसतेदं ते नर्मार्थं वै कृतं मया।।
1-11-6a
1-11-6b
क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मञ्शापोऽयं विनिवर्त्यताम्।
सोऽथ मामब्रवीद्दृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम्।।
1-11-7a
1-11-7b
मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसंभ्रान्तस्तपोधनः।
नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन।।
1-11-8a
1-11-8b
यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन।
श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदाऽनघ।।
1-11-9a
1-11-9b
उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः।
तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव।
`एवमुक्तस्तु तेनाहमुरगत्वमवाप्तवान्।।'
1-11-10a
1-11-10b
1-11-10c
स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च।
स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम्।।
1-11-11a
1-11-11b
सौतिरुवाच। 1-11-12x
स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा।
स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः।।
1-11-12a
1-11-12b
इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमौजसम्।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर।।
1-11-13a
1-11-13b
तस्मात्प्राणभृतः सर्वान्न हिंस्याद्ब्राह्मणः क्वचित्।
ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः।।
1-11-14a
1-11-14b
वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः।
अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम्।।
1-11-15a
1-11-15b
ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च।
क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स नेहेष्येत वै तव।।
1-11-16a
1-11-16b
दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम्।
तदिदं क्षत्रियस्यासीत्कर्म वै शृणु मे रुरो।।
1-11-17a
1-11-17b
जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन्सर्पाणां हिंसनं पुरा।
परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि।।
1-11-18a
1-11-18b
तपोवीर्यबलोपेताद्वेदवेदाङ्गपारगात्।
आस्तीकाद्द्विजमुख्याद्वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम।।
1-11-19a
1-11-19b
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
पौलोमपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।।

1-11-1 संशितवाक् तीक्ष्णवचनः।। 1-11-2 तार्णं तृणमयम्।। 1-11-14 सौम्यः अतीक्ष्णस्वभावः।। 1-11-18 परित्राणं दृष्टमिति शेषः।। एकादशोऽध्यायः।। 11 ।।

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