महाभारतम्-01-आदिपर्व-253
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इन्द्राभिवृष्टस्य जलस्यार्जुनेन निवारणम्।। 1 ।।
पुत्रं निगीर्याकाशमुत्पतन्त्याः तक्षकभार्यायाः अर्जुनेन शिरश्छेदः।। 2 ।।
इन्द्रेण स्वकृतवायुवर्षमोहितादर्जुनात्तक्षकपुत्रस्याश्वसेनस्य मोचनम्।। 3 ।।
पावकान्मुमुक्षूणां नागादीनां मारणम्।। 4 ।।
इन्द्रस्य कृष्णार्जुनाभ्यां युद्धम्।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-253-1x |
तस्याथ वर्षतो वारि पाण्डवः प्रत्यवारयत्। शरवर्षेण बीभत्सुरुत्तमास्त्राणि दर्शयन्।। | 1-253-1a 1-253-1b |
खाण्डवं च वनं सर्वं पाण्डवो बहुभिः शरैः। प्राच्छादयदमेयात्मा नीहारेणेव चन्द्रमाः।। | 1-253-2a 1-253-2b |
न च स्म किंचिच्छक्नोति भूतं निश्चरितुं ततः। संछाद्यमाने खे बाणैरस्यता सव्यसाचिना।। | 1-253-3a 1-253-3b |
तक्षकस्तु न तत्रासीन्नागराजो महाबलः। दह्यमाने वने तस्मिन्कुरुक्षेत्रं गतो हि सः।। | 1-253-4a 1-253-4b |
अश्वसेनोऽभवत्तत्र तक्षकस्य सुतो बली। स यत्नमकरोत्तीव्रं मोक्षार्थं जातवेदसः।। | 1-253-5a 1-253-5b |
न शशाक स निर्गन्तुं निरुद्धोऽर्जुनपत्रिभिः। मोक्षयामास तं माता निगीर्य भुजगात्मजा।। | 1-253-6a 1-253-6b |
तस्य पूर्वं शिरो ग्रस्तं पुच्छमस्य निगीर्यते। निगीर्य सोर्ध्वमक्रामत्सुतं नागी मुमुक्षया।। | 1-253-7a 1-253-7b |
तस्याः शरेण तीक्ष्णेन पृथुधारेण पाण्डवः। शिरश्चिच्छेद गच्छन्त्यास्तामपश्यच्छचीपतिः।। | 1-253-8a 1-253-8b |
तं मुमोचयिषुर्वज्री वातवर्षेण पाण्डवम्। मोहयामास तत्कालमश्वसेनस्त्वमुच्यत।। | 1-253-9a 1-253-9b |
तां च मायां तदा दृष्टा घोरां नागेन वञ्चितः। द्विधा त्रिधा च खगतान्प्राणिनः पाण्डवोच्छिनत्।। | 1-253-10a 1-253-10b |
शशाप तं च संक्रुद्धो बीभत्सुर्जिह्मगामिनम्। पावको वासुदेवश्चाप्यप्रतिष्ठो भविष्यसि।। | 1-253-11a 1-253-11b |
ततो जिष्णुः सहस्राक्षं खं वितत्याशुगैः शरैः। योधयामास संक्रुद्धो वञ्चनां तामनुस्मरन्।। | 1-253-12a 1-253-12b |
देवराजोऽपि तं दृष्ट्वा संरब्धं समरेऽर्जुनम्। स्वमस्त्रमसृजत्तीव्रं छादयित्वाऽखिलं नभः।। | 1-253-13a 1-253-13b |
ततो वायुर्महाघोषः क्षोभयन्सर्वसागरान्। वियत्स्थो जनयन्मेघाञ्जलधारासमाकुलान्।। | 1-253-14a 1-253-14b |
ततोऽशनिमुचो घोरांस्तडित्स्तनितनिःस्वनान्। तद्विघातार्थमसृजदर्जुनोऽप्यस्त्रमुत्तमम्।। | 1-253-15a 1-253-15b |
वायव्यमभिमन्त्र्याथ प्रतिपत्तिविशारदः। तेनेन्द्राशनिमेघानां वीर्यौजस्तद्विनाशितम्।। | 1-253-16a 1-253-16b |
जलधाराश्च ताः शोषं जग्मुर्नेशुश्च विद्युतः। क्षणेन चाभवद्व्योम संप्रशान्तरजस्तमः।। | 1-253-17a 1-253-17b |
सुखशीतानिलवहं प्रकृतिस्थार्कमण्डलम्। निष्प्रतीकारहृष्टश्च हुतभुग्विविधाकृतिः।। | 1-253-18a 1-253-18b |
सिच्यमानो वसौघैस्तैः प्राणिनां देहनिःसृतैः। प्रजज्वालाथ सोऽर्चिष्मान्स्वनादैः पूरयञ्जगत्।। | 1-253-19a 1-253-19b |
कृष्णाभ्यां रक्षितं दृष्ट्वा तं च दावमहङ्कृताः। खमुत्पेतुर्महाराज सुपर्णाद्याः पतत्त्रिणः।। | 1-253-20a 1-253-20b |
गरुत्मान्वज्रसदृशैः पक्षतुण्डनखैस्तथा। प्रहर्तुकामो न्यपतदाकाशात्कृष्णपाण्डवौ।। | 1-253-21a 1-253-21b |
तथैवोरगसङ्घाताः पाण्डवस्य समीपतः। उत्सृजन्तो विषं घोरं निपेतुर्ज्वलिताननाः।। | 1-253-22a 1-253-22b |
तांश्चकर्त शरैः पार्थः सरोषाग्निसमुक्षितैः। विविशुश्चापि तं दीप्तं देहाभावाय पावकम्।। | 1-253-23a 1-253-23b |
ततः सुराः सगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः। उत्पेतुर्नादमतुलमुत्सृजन्तो रणार्थिनः।। | 1-253-24a 1-253-24b |
अयःकणपचक्राश्मभुशुण्ड्युद्यतबाहवः। कृष्णपार्थौ जिघांसन्तः क्रोधसंमूर्च्छितौजसः।। | 1-253-25a 1-253-25b |
तेषामतिव्याहरतां शस्त्रवर्षं प्रमुञ्चताम्। प्रममाथोत्तमाङ्गानि बीभत्सुर्निशितैः शरैः।। | 1-253-26a 1-253-26b |
कृष्णश्च सुमहातेजाश्चक्रेणारिविनाशनः। दैत्यदानवसङ्घानां चकार कदनं महत्।। | 1-253-27a 1-253-27b |
अथापरे शरैर्विद्धाश्चक्रवेगेरितास्तथा। वेलामिव समासाद्य व्यतिष्ठन्नमितौजसः।। | 1-253-28a 1-253-28b |
ततः शक्रोऽतिसक्रुद्धस्त्रिदशानां महेश्वरः। पाण्डुरं गजमास्थाय तावुभौ समुपाद्रवत्।। | 1-253-29a 1-253-29b |
वेगेनाशनिमादाय वज्रमस्त्रं च सोऽसृजत्। हतावेताविति प्राह सुरानसुरसूदनः।। | 1-253-30a 1-253-30b |
ततः समुद्यतां दृष्ट्वा देवेन्द्रेण महाशनिम्। जगृहुः सर्वशस्त्राणि स्वानि स्वानि सुरास्तथा।। | 1-253-31a 1-253-31b |
कालदण्डं यमो राजन् गदां चैव धनेश्वरः। पाशांश्च तत्र वरुणो विचित्रां च तथाऽशनिम्।। | 1-253-32a 1-253-32b |
स्कन्दः शक्तिं समादाय तस्थौ मेरुरिवाचलः। ओषधीर्दीप्यमानाश्च जगृहातेऽस्विनावपि।। | 1-253-33a 1-253-33b |
जगृहे च धनुर्धाता मुसलं तु जयस्तथा। पर्वतं चापि जग्राह क्रूद्धस्त्वष्टा महाबलः।। | 1-253-34a 1-253-34b |
अंशस्तु शक्तिं जग्राह मृत्युर्देवः परश्वधम्। प्रगृह्य परिघं घोरं विचचारार्यमा अपि।। | 1-253-35a 1-253-35b |
मित्रश्च क्षुरपर्यन्तं चक्रमादाय तस्थिवान्। पूषा भगश्च संक्रुद्धः सविता च विशांपते।। | 1-253-36a 1-253-36b |
आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशाः कृष्णापार्थौ प्रदुद्रुवुः। रुद्राश्च वसवश्चैव मरुतश्च महाबलाः।। | 1-253-37a 1-253-37b |
विश्वेदेवास्तथा साध्या दीप्यमानाः स्वतेजसा। एते चान्ये च बहवो देवास्तौ पुरुषोत्तमौ।। | 1-253-38a 1-253-38b |
कृष्णपार्थौ जिघांसन्तः प्रतीयुर्विविधायुधाः। तत्राद्भुतान्यदृश्यन्त निमित्तानि महाहवे।। | 1-253-39a 1-253-39b |
युगान्तसमरूपाणि भूतसंमोहनानि च। तथा दृष्ट्वा सुसंरब्धं शक्रं देवैः सहाच्युतौ।। | 1-253-40a 1-253-40b |
अभीतौ युधि दुर्धर्षौ तस्थतुः सज्जकार्मुकौ। आगच्छतस्ततो देवानुभौ युद्धविशारदौ।। | 1-253-41a 1-253-41b |
व्यताडयेतां संक्रुद्धौ शरैर्वज्रोपमैस्तदा। असकृद्भग्नसंकल्पाः सुराश्च बहुशः कृताः।। | 1-253-42a 1-253-42b |
भयाद्रणं परित्यज्य शख्रमेवाभिशिश्रियुः। दृष्ट्वा निवारितान्देवान्माधवेनार्जुनेन च।। | 1-253-43a 1-253-43b |
आश्चर्यमगमंस्तत्र मुनयो नभसि स्थिताः। शक्रश्चापि तयोर्वीर्यमुपलभ्यासकृद्रणे।। | 1-253-44a 1-253-44b |
बभूव परमप्रीतो भूयश्चैतावयोधयत्। ततोऽश्मवर्षं सुमहद्व्यसृजत्पाकशासनः।। | 1-253-45a 1-253-45b |
भूय एव तदा वीर्यं जिज्ञासुः सव्यसाचिनः। तच्छैरर्जुनो वर्षं प्रतिजघ्नेऽत्यमर्षितः।। | 1-253-46a 1-253-46b |
विफलं क्रियमाणं तत्समवेक्ष्य शतक्रतुः। भूयः संवर्धयामास तद्वर्षं पाकशासनः।। | 1-253-47a 1-253-47b |
सोश्मवर्षं महावेगैरिषुभिः पाकशासनिः। विलयं गमयामास हर्षयन्पितरं तथा।। | 1-253-48a 1-253-48b |
तत उत्पाट्य पाणिभ्यां मन्दराच्छिखरं महत्। सद्रुमं व्यसृजच्छक्रो जिघांसुः पाण्डुनन्दनम्।। | 1-253-49a 1-253-49b |
ततोऽर्जुनो वेगवद्भिर्ज्वलिताग्रैरजिह्मगैः। शरैर्विध्वंसयामास गिरेः शृङ्गं सहस्रधा।। | 1-253-50a 1-253-50b |
गिरेर्विशीर्यमाणस्य तस्य रूपं तदा बभौ। सार्कचन्द्रग्रहस्येव नभसः परिशीर्यतः।। | 1-253-51a 1-253-51b |
तेनाभिपतता दावं शैलेन महता भृशम्। शृङ्गेण निहतास्तत्र प्राणिनः खाण्डवालयाः।। | 1-253-52a 1-253-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि | |
।। समाप्तं च खाण्डवदाहपर्व ।। |
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