महाभारतम्-01-आदिपर्व-168
दिखावट
← आदिपर्व-167 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-168 वेदव्यासः |
आदिपर्व-169 → |
हिडिम्बया सह पाण्डवानां शालिहोत्रसरोगमनम्।। 1 ।।
शालिहोत्रेण तेषामातिथ्यकरणम्।। 2 ।।
समयकरणपूर्वकं भीमेन हिडिम्ब्याः परिग्रहः।। 3 ।।
रमणीयेषु प्रदेशेषु भीमेन सह क्रीडित्वा सायाह्ने शालिहोत्राश्रमं प्रति हिडिम्ब्या निवर्तनम्।। 4 ।।
तत्र व्यासागमनम्।। 5 ।।
व्यासेन कुन्त्या आश्वासनम्।। 6 ।।
व्यासस्य प्रतिनिवर्तनम्।। 7 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-168-1x |
युधिष्ठिरवचः श्रुत्वा कुन्तीमङ्गेऽधिरोप्य सा। भीमार्जुनान्तरगता यमाभ्यां च पुरस्कृता।। | 1-168-1a 1-168-1b |
तिर्यग्युधिष्ठिरे याति हिडिम्बा भीमगामिनी। शालिहोत्रसरो रम्यमाससाद जलार्थिनी।। | 1-168-2a 1-168-2b |
वनस्पतितलं गत्वा परिमृज्य गृहं यथा। पाण्डवानां च वासं सा कृत्वा पर्णमयं तथा।। | 1-168-3a 1-168-3b |
आत्मनश्च तथा कुन्त्या एकोद्देशे चकार सा। पाण्डवास्तु ततः स्नात्वा शुद्धाः सन्ध्यामुपास्य च।। | 1-168-4a 1-168-4b |
तृषिताः क्षुत्पिपासार्ता जलमात्रेण वर्तयन्। शालिहोत्रस्ततो ज्ञात्वा क्षुधार्तान्पाण्डवांस्तदा।। | 1-168-5a 1-168-5b |
मनसा चिन्तयामास पानीयं भोजनं महत्। ततस्ते पाण्डवाः सर्वे विश्रान्ताः पृथया सह।। | 1-168-6a 1-168-6b |
यथा जतुगृहे वृत्तं राक्षसेन कृतं च यत्। कृत्वा कथा बहुविधाः कथान्ते पाण्डुनन्दनम्।। | 1-168-7a 1-168-7b |
कुन्ती राजसुता वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत्। यथा पाण्डुस्तथा मान्यस्तव ज्येष्ठो युधिष्ठिरः।। | 1-168-8a 1-168-8b |
अहं धर्मविदाऽनेन मान्या गुरुतरा तव। तस्मात्पाण्डुहितार्थं मे युवराज हितं कुरु।। | 1-168-9a 1-168-9b |
निकृता धार्तराष्ट्रेण पापेनाकृतबुद्धिना। दुष्कृतस्य प्रतीकारं न पश्यामि वृकोदर।। | 1-168-10a 1-168-10b |
तस्मात्कतिपयाहेन योगक्षेमं भविष्यति। क्षेमं दुर्गमिमं वासं वत्स्याम हि यथा वयम्।। | 1-168-11a 1-168-11b |
इदमन्यन्महदुःखं धर्मकृच्छ्रं वृकोदर। दृष्ट्वैव त्वां महाप्राज्ञ अनङ्गाभिप्रचोदिता।। | 1-168-12a 1-168-12b |
युधिष्ठिरं च मां चैव वरयामास धर्मतः। धर्मार्थं देहि पुत्रं त्वं स नः श्रेयः करिष्यति।। | 1-168-13a 1-168-13b |
प्रतिवाक्यं तु नेच्छामि आवयोर्वचनं कुरु। | 1-168-14a |
वैशंपायन उवाच। | 1-168-14x |
तथेति तत्प्रतिज्ञाय भीमसेनोऽब्रवीदिदम्।। | 1-168-14b |
शासनं ते करिष्यामि वेदशासनमित्यपि। समक्षं भ्रातृमध्ये तु तां चोवाच स राक्षसीम्।। | 1-168-15a 1-168-15b |
शृणु राक्षसि सत्येन समयं ते वदाम्यहम्।' यावत्कालेन भवति पुत्रस्योत्पादनं शुभे।। | 1-168-16a 1-168-16b |
तावत्कालं चरिष्यामि त्वया सह सुमध्यमे। `विशेषतो मत्सकाशे मा प्रकाशय नीचताम्।। | 1-168-17a 1-168-17b |
उत्तमस्त्रीगुणोपेता भजेथा वरवर्णिनि। | 1-168-18a |
वैशंपायन उवाच। | 1-168-18x |
सा तथेति प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तथा।। | 1-168-18b |
गताऽहनि निवेशेषु भोज्यं राजार्हमानयत्। सा कदाचिद्विहारार्थं हिडिम्बा कामरूपिणी।। | 1-168-19a 1-168-19b |
भीमसेनमुपादाय ऊर्ध्वमाचक्रमं तदा। शैलशृङ्गेषु रम्येषु देवतायतनेषु च।। | 1-168-20a 1-168-20b |
मृगपक्षिविघृष्टेषु रमणीयेषु सर्वेषु। कृत्वा सा परमं रूपं सर्वाभरणभूषिता।। | 1-168-21a 1-168-21b |
संजल्पन्ती सुमधुरं रमयामास पाण्डवम्। तथैव वनदुर्गेषु पर्वतद्रुमसानुषु।। | 1-168-22a 1-168-22b |
सरस्तु रमणीयेषु पद्मोत्पलवनेषु च। नदीद्वीपप्रदेशेषु वैडूर्यसिकतेषु च।। | 1-168-23a 1-168-23b |
देवारण्येषु पुण्येषु तथा पर्वतसानुषु। सुतीर्थवनतोयासु तथा गिरिनदीषु च।। | 1-168-24a 1-168-24b |
सागरस्य प्रदेशेषु भणिहेमयुतेषु च। गुह्यकानां निवासेषु कुलपर्वतसानुषु।। | 1-168-25a 1-168-25b |
सर्वर्तुफलवृक्षेषु मानसेषु वनेषु च। बिभ्रती परमं रूपं रमयामास पाण्डवम्।। | 1-168-26a 1-168-26b |
`यथा सुमोदते स्वर्गे सुकृत्यप्सरसा सह। सुतरां परमप्रीतस्तथा रेमे महाद्युतिः।। | 1-168-27a 1-168-27b |
शुभं हि जघनं तस्याः सवर्णमणिमेखलम्। न ततर्प तदा मृद्गन्भीमसेनो मुहुर्मुहुः।।' | 1-168-28a 1-168-28b |
रमयन्ती ततो भीमं तत्रतत्र मनोजवा। सा रेमे तेन संहर्षात्तृप्यन्ती च मुहुर्मुहुः।। | 1-168-29a 1-168-29b |
अहस्सु रमयन्ती सा निशाकालेषु पाण्डवम्। आनीय वै स्वके गेहे दर्शयामास मातरम्।। | 1-168-30a 1-168-30b |
भ्रातृभिः सहितो नित्यं स्वपते पाण्डवस्तथा। कुन्त्याः परिचरन्ती सा तस्याः पार्श्वेवसन्निशां।। | 1-168-31a 1-168-31b |
कामांश्च मुखवासादीनानयिष्यति भोजनम्। तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामाजगाम महाव्रतः।। | 1-168-32a 1-168-32b |
पाराशर्यो महाप्राज्ञो दिव्यदर्शी महातपाः। तेऽभिवाद्य महात्मानं कृष्णद्वैपायनं शुभम्। तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे सस्नुषा चैव माधवी।। | 1-168-33a 1-168-33b 1-168-33c |
श्रीव्यास उवाच। | 1-168-34x |
मयेदं मनसा पूर्वं विदितं भरतर्षभाः। यथा स्थितैरधर्मेण धार्तराष्ट्रौर्विवासिताः।। | 1-168-34a 1-168-34b |
तद्विदित्वाऽस्मि संप्राप्तश्चिकीर्ष्वै परं हितम्। न विषादो हि वः कार्यः सर्वमेतत्सुखाय वः।। | 1-168-35a 1-168-35b |
सुहृद्वियोजनं कर्म पुराकृतमरिन्दमाः। तस्य सिद्धिरियं प्राप्ता मा शोचत परन्तपाः।। | 1-168-36a 1-168-36b |
समाप्ते दुष्कृते चैव यूयं ते वै न संशयः। स्वराष्ट्रे विहरिष्यन्तो भविष्यथ सबान्धवाः।। | 1-168-37a 1-168-37b |
दीनतो बालतश्चैव स्नेहं कुर्वन्ति बान्धवाः। तस्मादभ्यधिकः स्नेहो युष्मासु मम संप्रति।। | 1-168-38a 1-168-38b |
स्नेहपूर्वं चिकीर्षामि हितं यत्तन्निबोधत। वसतेह प्रतिच्छन्ना ममागमनकाङ्क्षिणः।। | 1-168-39a 1-168-39b |
एतद्वै शालिहोत्रस्य तपसा निर्मितं सरः। रमणीयमिदं तोयं क्षुत्पिपासाश्रमापहम्।। | 1-168-40a 1-168-40b |
कार्यार्थिनस्तु षण्मासान्विहरध्वं यथासुखम्।। | 1-168-41a |
वैशंपायन उवाच। | 1-168-42x |
एवं स तान्समाश्वास्य व्यासः पार्थानरिन्दमान्। स्नेहाच्च संपरिष्वज्य कुन्तीमाश्वासयत्प्रभुः।। | 1-168-42a 1-168-42b |
स्नुषे मा रोद मा रोदेत्येवं व्यासोऽब्रवीद्वचः। जीवपुत्रे सुतस्तेऽयं धर्मनित्यो युधिष्ठिरः।। | 1-168-43a 1-168-43b |
पृथिव्यां पार्थइवान्सर्वान्प्रशासिष्यति धर्मराट्। धर्मेण जित्वा पृथिवीमखिलां धर्मकृद्वशी।। | 1-168-44a 1-168-44b |
स्थापयित्वा वशे सर्वां सपर्वतवनां शुभाम्। भीमसेनार्जुनबलाद्भोक्ष्यत्ययमसंशयम्।। | 1-168-45a 1-168-45b |
पुत्रास्तव च माद्र्याश्च पञ्चैते लोकविश्रुताः। स्वराष्ट्रे विहरिष्यन्ति सुखं सुमनसस्तदा।। | 1-168-46a 1-168-46b |
यक्ष्यन्ति च नरव्याघ्रा विजित्य पृथिवीमिमाम्। राजसूयाश्वमेधाद्यैः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः।। | 1-168-47a 1-168-47b |
अनुगृह्य सुहृद्वर्गं धनेन च सुखेन च। पितृपैतामहं राज्यमहारिष्यन्ति ते सुताः।। | 1-168-48a 1-168-48b |
स्नुषा कमलपत्राक्षी नाम्ना कमलपालिका। वशवर्तिनी तु भीमस्य पुत्रमेषा जनिष्यति।। | 1-168-49a 1-168-49b |
तेन पुत्रेण कृच्छ्रेषु भविष्यथ च तारिताः। इह मासं प्रतीक्षध्वमागमिष्याम्यहं पुनः।। | 1-168-50a 1-168-50b |
देशकालौ विदित्वैवं यास्यध्वं परमां मुदम्।। | 1-168-51a |
वैशंपायन उवाच। | 1-168-52x |
स तैः प्राञ्जलिभिः सर्वैस्तथेत्युक्तो जनाधिप। जगाम भगवान्व्यासो यथागतमृषिः प्रभुः।। | 1-168-52a 1-168-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 168 ।। |
1-168-38 दीनतो बालत इति द्वयं भावप्रधानम्।। अष्टषष्ट्युत्तरशततमोऽध्यायः।। 168 ।।
आदिपर्व-167 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-169 |