महाभारतम्-01-आदिपर्व-087
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वसुमतः शिबेश्च ययातिना संवादः।। 1 ।। पुनरष्टकययातिसंवादः।। 2 ।। तत्रागतया माधव्या स्वपुत्रान्प्रति यया तेर्मातामहत्वकथनम्।। 3 ।। तद्वचनेन ययातेरष्टकादिदत्तपुण्यस्वीकारपूर्वकमष्टकादिभिः सह स्वर्गगमनम्।। 4 ।। ययातिना मार्गे अष्टकादीन्प्रति विस्तरेण स्ववृत्तान्तकथनम्।। 5 ।। ययात्युपाख्यानश्रवणादिफलकथनम्।। 6 ।।
वसुमानुवाच। | 1-87-1x |
पृच्छामि त्वां वसुमानौषदश्वि- र्यद्यस्ति लोको दिवि मे नरेन्द्र। यद्यन्तरिक्षे प्रथितो महात्मन् क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये।। | 1-87-1a 1-87-1b 1-87-1c 1-87-1d |
ययातिरुवाच। | 1-87-2x |
यदन्तरिक्षं पृथिवी दिशश्च यत्तेजसा तपते भानुमांश्च। लोकास्तावन्तो दिवि संस्थिता वै तेनान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति।। | 1-87-2a 1-87-2b 1-87-2c 1-87-2d |
वसुमानुवाच। | 1-87-3x |
तांस्ते ददानि मा प्रपत प्रपातं ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु। क्रीणीष्वैतांस्तृणकेनापि राज- न्प्रतिग्रहस्ते यदि धीमन्प्रदुष्टः।। | 1-87-3a 1-87-3b 1-87-3c 1-87-3d |
ययातिरुवाच। | 1-87-4x |
न मिथ्याऽहं विक्रयं वै स्मरामि वृथा गृहीतं शिशुकाच्छङ्कमानः। कुर्यां न चैवाकृतपूर्वमन्यै- र्विधित्समानः किमु तत्र साधुः।। | 1-87-4a 1-87-4b 1-87-4c 1-87-4d |
वसुमानुवाच। | 1-87-5x |
तांस्त्वं लोकान्प्रतिपद्यस्व राज- न्मया दत्तान्यदि नेष्टः क्रयस्ते। अहं न तान्वै प्रतिगन्ता नरेन्द्र सर्वे लोकास्तव ते वै भवन्तु।। | 1-87-5a 1-87-5b 1-87-5c 1-87-5d |
शिबिरुवाच। | 1-87-6x |
पृच्छामि त्वां शिबिरौशीनरोऽहं ममापि लोका यदि सन्तीह तात। यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये।। | 1-87-6a 1-87-6b 1-87-6c 1-87-6d |
ययातिरुवाच। | 1-87-7x |
यत्त्वं वाचा हृदयेनापि साधू- न्परीप्समानान्नावमंस्था नरेन्द्र। तेनानन्ता दिवि लोकाः श्रितास्ते विद्युद्रूपाः स्वनवन्तो महान्तः।। | 1-87-7a 1-87-7b 1-87-7c 1-87-7d |
शिबिरुवाच। | 1-87-8x |
तांस्त्वं लोकान्प्रतिपद्यस्व राज- न्मया दत्तान्यदि नेष्टः क्रयस्ते। न चाहं तान्प्रतिपत्स्ये ह दत्त्वा यत्र गत्वा नानुशोचन्ति धीराः।। | 1-87-8a 1-87-8b 1-87-8c 1-87-8d |
ययातिरुवाच। | 1-87-9x |
यथा त्वमिन्द्रप्रतिमप्रभाव- स्ते चाप्यनन्ता नरदेव लोकाः। तथाऽद्य लोके न रमेऽन्यदत्ते तस्माच्छिबे नाभिनन्दामि दायम्।। | 1-87-9a 1-87-9b 1-87-9c 1-87-9d |
अष्टक उवाच। | 1-87-10x |
न चेदेकैकशो राजँल्लोकान्नः प्रतिनन्दसि। सर्वे प्रदाय भवते गन्तारो नरकं वयम्।। | 1-87-10a 1-87-10b |
ययातिरुवाच। | 1-87-11x |
यदर्होऽहं तद्यतध्वं सन्तः सत्याभिनन्दिनः। अहं तन्नाभिजानामि यत्कृतं न मया पुरा।। | 1-87-11a 1-87-11b |
अष्टक उवाच। | 1-87-12x |
कस्यैते प्रतिदृश्यन्ते रथाः पञ्च हिरण्मयाः। यानारुह्य नरो लोकानभिवाञ्छति शाश्वतान्।। | 1-87-12a 1-87-12b |
ययातिरुवाच। | 1-87-13x |
युष्मानेते वहिष्यन्ति रथाः पञ्च हिरण्मयाः। उच्चैः सन्तः प्रकाशन्ते ज्वलन्तोऽग्निशिखा इव।। | 1-87-13a 1-87-13b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-87-14x |
अश्वमेधे महायज्ञे स्वयंभुविहिते पुरा। हयस्य यानि चाङ्गानि संनिकृत्य यथाक्रमम्।। | 1-87-14a 1-87-14b |
होताऽध्वर्युरथोद्गाता ब्रह्मणा सह भारत। अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत्समस्ताः षोडशर्त्विजः।। | 1-87-15a 1-87-15b |
धूमगन्धं च पापिष्ठा ये जिघ्रन्ति नरा भुवि। विमुक्तपापाः पूतास्ते तत्क्षणेनाभवन्नराः।। | 1-87-16a 1-87-16b |
एतस्मिन्नन्तरे चैव माधवी सा तपोधना। मृगचर्मपरीताङ्गी परिधाय मृगत्वचम्।। | 1-87-17a 1-87-17b |
मृगैः परिचरन्ती सा मृगाहारविचेष्टिता। यज्ञवाटं मृगगणैः प्रविश्य भृशविस्मिता।। | 1-87-18a 1-87-18b |
आघ्रायन्ती धूमगन्धं मृगैरेव चचार सा। यज्ञवाटमटन्ती सा पुत्रांस्तानपराजितान्।। | 1-87-19a 1-87-19b |
पश्यन्ती यज्ञमाहात्म्यं मुदं लेभे च माधवी। असंस्पृशन्तं वसुधां ययातिं नाहुषं यदा।। | 1-87-20a 1-87-20b |
दिविष्ठं प्राप्तमाज्ञाय ववन्दे पितरं तदा। तदा वसुमनापृच्छन्मातरं वै तपस्विनीम्।। | 1-87-21a 1-87-21b |
भवत्या यत्कृतमिदं वन्दनं पादयोरिह। कोयं देवोपमो राजा याऽभिवन्दसि मे वद।। | 1-87-22a 1-87-22b |
माधव्युवाच। | 1-87-23x |
शृणुध्वं सहिताः पुत्रा नाहुषोयं पिता मम। ययातिर्मम पुत्राणां मातामह इति स्मृतः।। | 1-87-23a 1-87-23b |
पूरुं मे भ्रातरं राज्ये समावेश्य दिवं गतः। केन वा कारणेनैवमिह प्राप्तो महायशाः।। | 1-87-24a 1-87-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-87-25x |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा स्वर्गाद्भ्रष्टेति चाब्रवीत्। सा पुत्रस्य वचः श्रुत्वा संभ्रमाविष्टचेतना।। | 1-87-25a 1-87-25b |
माधवी पितरं प्राह दौहित्रपरिवारितम्। तपसा निर्जिताँल्लोकान्प्रतिगृह्णीष्व मामकान्।। | 1-87-26a 1-87-26b |
पुत्राणामिव पौत्राणां धर्मादधिगतं धनम्। स्वार्थणेव वदन्तीह ऋषयो धर्मपाठकाः। तस्माद्दानेन तपसा चास्माकं दिवमाव्रज।। | 1-87-27a 1-87-27b 1-87-27c |
ययातिरुवाच। | 1-87-28x |
यदि धर्मफलं ह्येतच्छोभनं भविता तव। दुहित्रा चैव दौहित्रैस्तारितोऽहं महात्मभिः।। | 1-87-28a 1-87-28b |
तस्मात्पवित्रं दौहित्रमद्यप्रभृति पैतृके। त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः।। | 1-87-29a 1-87-29b |
त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वराम्। भोक्तारः परिवेष्टारः श्रावितारः पवित्रकाः।। | 1-87-30a 1-87-30b |
दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभवति भास्करे। स कालः कुतपो नाम पितॄणां दत्तमक्षयम्।। | 1-87-31a 1-87-31b |
तिलाः पिशाचाद्रक्षन्ति दर्भा रक्षन्ति राक्षसात्। रक्षन्ति श्रोत्रियाः पङ्क्तिं यतिभिर्भुक्तमक्षयम्।। | 1-87-32a 1-87-32b |
लब्ध्वा पात्रं तु विद्वांसं श्रोत्रियं सुव्रतं शुचिम्। स कालः कालतो दत्तं नान्यथा काल इष्यते।। | 1-87-33a 1-87-33b |
वैशंपायन उवाच। | 1-87-34x |
एवमुक्त्वा ययातिस्तु पुनः प्रोवाच बुद्धिमान्। सर्वे ह्यवभृथस्नातास्त्वरध्वं कार्यगौरवात्।।' | 1-87-34a 1-87-34b |
अष्टक उवाच। | 1-87-35x |
आतिष्ठ स्वरथं राजन्विक्रमस्व विहायसम्। वयमप्यनुयास्यामो यदा कालो भविष्यति।। | 1-87-35a 1-87-35b |
ययातिरुवाच। | 1-87-36x |
सर्वैरिदानीं गन्तव्यं सह स्वर्गजितो वयम्। एष नो विरजाः पन्था दृश्यते देवसद्मनः।। | 1-87-36a 1-87-36b |
वैशंपायन उवाच। | 1-87-37x |
`अष्टकश्च शिबिश्चैव काशेयश्च प्रतर्दनः। ऐक्ष्वाकवो वसुमनाश्चत्वारो भूमिपास्तदा। सर्वे ह्यवभृथस्नाताः स्वर्गताः साधवः सह।।' | 1-87-37a 1-87-37b 1-87-37c |
तेऽधिरुह्य रथान्सर्वे प्रयाता नृपस्तमाः। आक्रमन्तो दिवं भाभिर्धर्मेणावृत्य रोदसी।। | 1-87-38a 1-87-38b |
अष्टक उवाच। | 1-87-39x |
अहं मन्ये पूर्वमेकोऽस्मि गन्ता सखा चेन्द्रः सर्वथा मे महात्मा। कस्मादेवं शिबिरौशीनरोऽय- मेकोऽत्यगात्सर्ववेगेन वाहान्।। | 1-87-39a 1-87-39b 1-87-39c 1-87-39d |
ययातिरुवाच। | 1-87-40x |
अददद्याचमानाय यावद्वित्तमविन्दत। उशीनरस्य पुत्रोऽयं तस्माच्छ्रेष्ठोहि वः शिबिः।। | 1-87-40a 1-87-40b |
दानं तपः संत्यमथाऽपि धर्मो ह्रीः श्रीः क्षमा सौम्यमथो विधित्सा। राजन्नेतान्यप्रमेयाणि राज्ञः शिबेः स्थितान्यप्रतिमस्य बुद्ध्या।। | 1-87-41a 1-87-41b 1-87-41c 1-87-41d |
एवं वृत्तो ह्रीनिषेवश्च यस्मा- त्तस्माच्छिबिरत्यगाद्वै रथेन। | 1-87-42a 1-87-42b |
वैशंपायन उवाच। | 1-87-42x |
अथाष्टकः पुनरेवान्वपृच्छ- न्मातामहं कौतुकेनेन्द्रकल्पम्।। | 1-87-42c 1-87-42d |
पृच्छामि त्वां नृपते ब्रूहि सत्यं कुतश्च कश्चासि सुतश्च कस्य। कृतं त्वया यद्धि न तस्य कर्ता लोके त्वदन्यः क्षत्रियो ब्राह्मणो वा।। | 1-87-43a 1-87-43b 1-87-43c 1-87-43d |
ययातिरुवाच। | 1-87-44x |
ययातिरस्मि नहुषस्य पुत्रः पूरोः पिता सार्वबौमस्त्विहासम्। गुह्यं चार्थं मामकेभ्यो ब्रवीमि मातामहोऽहं भवतां प्रकाशम्।। | 1-87-44a 1-87-44b 1-87-44c 1-87-44d |
सर्वामिमां पृथिवीं निर्जिगाय दत्त्वा प्रतस्थे विपिनं ब्राह्मणेभ्यः। मेध्यानश्वानेकशतान्सुरूपां- स्तदा देवाः पुण्यभाजो भवन्ति।। | 1-87-45a 1-87-45b 1-87-45c 1-87-45d |
अदामहं पृथिवीं ब्राह्मणेभ्यः पूर्णामिमामखिलां वाहनेन। गोभिः सुवर्णेन धनैश्च मुख्यै- स्तदाऽददं गाः शथमर्बुदानि।। | 1-87-46a 1-87-46b 1-87-46c 1-87-46d |
सत्येन मे द्यौश्च वसुन्धरा च तथैवाग्निज्वर्लते मानुषेषु। न मे वृथा व्याहृतमेव वाक्यं सत्यं हि सन्तः प्रतिपूजयन्ति।। | 1-87-47a 1-87-47b 1-87-47c 1-87-47d |
यदष्टक प्रब्रवीमीह सत्यं प्रतर्दनं चौषदश्विं तथैव। सर्वे च लोका मुनयश्च देवाः सत्येन पूज्या इति मे मनोगतम्।। | 1-87-48a 1-87-48b 1-87-48c 1-87-48d |
यो नः स्वर्गजितः सर्वान्यथावृत्तं निवेदयेत्। अनसूयुर्द्विजाग्र्येभ्यः स लभेन्नः सलोकताम्।। | 1-87-49a 1-87-49b |
वैशंपायन उवाच। | 1-87-50x |
एवं राजा स महात्मा ह्यतीव स्वैर्दौहित्रैस्तारितोऽमित्रसाह। त्यक्त्वा महीं परमोदारकर्मा स्वर्गं गतः कर्मभिर्व्याप्य पृथ्वीम्।। | 1-87-50a 1-87-50b 1-87-50c 1-87-50d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।। |
1-87-2 यत् यत् तपते प्रकाशयति।। 1-87-4 शिशुकात् शैशवमारभ्य।। 1-87-7 परीप्समानान् याचकान्। नावमंस्था नावमानं कृतवानसि। स्वनवन्तः संगीतादिध्वनियुक्ताः।। 1-87-10 गन्तारो मृत्वा प्राप्स्यामः। नरकं भूलोकम्।। 1-87-11 यतध्वं कर्तुम्। नाभिजानामि नाङ्गीकरोमि।। 1-87-13 प्रकाशन्ते दृश्यन्ते। ज्वलन्तो दीप्यमानाः।। 1-87-14 अकृतहोमसमाप्तीनामवभृथायोगात् होमोपि समापित इत्याह। अश्वमेध इति। पुरा स्वयंभुविहिते कर्तव्यतया विहिते अश्वमेधे अष्टकादिभिः क्रियमाणे।। 1-87-41 सौम्यमक्रूरत्वम्। विधित्सा पालनेच्छा।। 1-87-42 सत्यमेव श्रेयःसाधनमिति विधातुं पूर्वोक्तप्रश्नोत्तरे अनुवदति। अथाष्टक इत्यादिना।। 1-87-44 प्रकाशं प्रागुक्तमपि स्पष्टतरम्।। 1-87-45 एवं कृते सति पुण्यभाजः सन्तः देवा भवन्ति।। सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।।
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