महाभारतम्-01-आदिपर्व-113
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दीर्घतमसो ऋषेरुपाख्यानम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 1-113-1x |
जामदग्न्येन रामेण पितुर्वधममृष्यता। राजा परशुना पूर्वं हैहयाधिपतिर्हतः।। | 1-113-1a 1-113-1b |
शतानि दशबाहूनां निकृत्तान्यर्जुनस्य वै। लोकस्याचरितो धर्मस्तेनाति किल दुश्चरः।। | 1-113-2a 1-113-2b |
पुनश्च धनुरादाय महास्त्राणि प्रमुञ्चता। निर्दग्धं क्षत्रमसकृद्रथेन जयता महीम्।। | 1-113-3a 1-113-3b |
एवमुच्चावचैरस्त्रैर्भार्गवेण महात्मना। त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा।। | 1-113-4a 1-113-4b |
एवं निःक्षत्रिये लोके कृते तेन महर्षिणा। ततः संभूय सर्वाभिः क्षत्रियाभिः समन्ततः।। | 1-113-5a 1-113-5b |
उत्पादितान्यपत्यानि ब्राह्मणैर्वेदपारगैः। पाणिग्राहस्य तनय इति वेदेषु निश्चितम्।। | 1-113-6a 1-113-6b |
धर्मं मनसि संस्थाप्य ब्राह्मणांस्ताः समभ्ययुः। लोकेऽप्याचरितो दृष्टः क्षत्रियाणां पुनर्भवः।। | 1-113-7a 1-113-7b |
ततः पुनः समुदितं क्षत्रं समभवत्तदा। इमं चैवात्र वक्ष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।। | 1-113-8a 1-113-8b |
अथोचथ्य इति ख्यात आसीद्धीमानृषिः पुरा। ममता नाम तस्यासीद्भार्या परमसंमता।। | 1-113-9a 1-113-9b |
उचथ्यस्य यवीयांस्तु पुरोधास्त्रिदिवौकसाम्। बृहस्पतिर्बृहत्तेजा ममतामन्वपद्यत।। | 1-113-10a 1-113-10b |
उवाच ममता तं तु देवरं वदतां वरम्। अन्तर्वत्नी त्वहं भ्रात्रा ज्येष्ठेनारम्यतामिति।। | 1-113-11a 1-113-11b |
अयं च मे महाभाग कुक्षावेव बृहस्पते। औचथ्यो देवमत्रापि षडङ्गं प्रत्यधीयत।। | 1-113-12a 1-113-12b |
अमोघरेतास्त्वं चापि द्वयोर्नास्त्यत्र संभवः। तस्मादेवं गते त्वद्य उपारमितुमर्हसि।। | 1-113-13a 1-113-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-113-14x |
एवमुक्तस्तदा सम्यक् बृहस्पतिरुदारधीः। कामात्मानं तदात्मानं न शशाक नियच्छितुम्।। | 1-113-14a 1-113-14b |
स बभूव ततः कामी तया सार्धमकामया। उत्सृजन्तं तु तं रेतः स गर्भस्थोऽभ्यभाषत।। | 1-113-15a 1-113-15b |
भोस्तात मा गमः कामं द्वयोर्नास्तीह संभवः। अल्पावकाशो भगवन्पूर्वं चाहमिहागतः।। | 1-113-16a 1-113-16b |
अमोघरेताश्च भवान्न पीडां कर्तुमर्हति। अश्रुत्वैव तु तद्वाक्यं गर्भस्थस्य बृहस्पतिः।। | 1-113-17a 1-113-17b |
जगाम मैथुनायैव ममतां चारुलोचनाम्। शुक्रोत्सर्गं ततो बुद्ध्वा तस्या गर्भगतो मुनिः।। | 1-113-18a 1-113-18b |
पद्भ्यामारोधयन्मार्गं शुक्रस्य च बृहस्पतेः। स्थानमप्राप्तमथ तच्छुक्रं प्रतिहतं तदा।। | 1-113-19a 1-113-19b |
पपात सहसा भूमौ ततः क्रुद्धो बृहस्पतिः। तं दृष्ट्वा पतितं शुक्रं शशाप स रुषान्वितः।। | 1-113-20a 1-113-20b |
उचथ्यपुत्रं गर्भस्थं निर्भर्त्स्य भगवानृषिः। यन्मां त्वमीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति।। | 1-113-21a 1-113-21b |
एवमात्थ वचस्तस्मात्तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि। स वै दीर्घतमा नाम शापादृषिरजायत।। | 1-113-22a 1-113-22b |
बृहस्पतेर्बृहत्कीर्तेर्बृहस्पतिरिवौजसा। जात्यन्धो वेदवित्प्राज्ञः पत्नीं लेभे स विद्यया।। | 1-113-23a 1-113-23b |
तरुणीं रुपसंपन्नां प्रद्वेषीं नाम ब्राह्मणीम्। स पुत्राञ्जनयामास गौतमादीन्महायशाः।। | 1-113-24a 1-113-24b |
ऋषेरुचथ्यस्य तदा सन्तानकुलवृद्धये। धर्मात्मा च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः।। | 1-113-25a 1-113-25b |
गोधर्मं सौरभेयाच्च सोऽधीत्य निखिलं मुनिः। प्रावर्तत तदा कर्तुं श्रद्धावांस्तमशङ्कया।। | 1-113-26a 1-113-26b |
ततो वितथमर्यादं तं दृष्ट्वा मुनिसत्तमाः। क्रुद्धा मोहाभिभूतास्ते सर्वे तत्राश्रमौकसः।। | 1-113-27a 1-113-27b |
अहोऽयं भिन्नमर्यादो नाश्रमे वस्तुमर्हति। तस्मादेनं वयं सर्वे पापात्मानं त्यजामहे।। | 1-113-28a 1-113-28b |
इत्यन्योन्यं समाभाष्य ते दीर्घतमसं मुनिम्। पुत्रलाभाच्च सा पत्नी न तुतोष पतिं तदा।। | 1-113-29a 1-113-29b |
प्रद्विषन्तीं पतिर्भार्यां किं मां द्वेक्षीति चाब्रवीत्। | 1-113-30a |
प्रद्वेष्युवाच। | 1-113-30x |
भार्याया भरणाद्भर्ता पालनाच्च पतिः स्मृतः।। | 1-113-30b |
अहं त्वद्भरणाशक्ता जात्यन्धं ससुतं तदा। नित्यकालं श्रमेणार्ता न भरेयं महातपः।। | 1-113-31a 1-113-31b |
भीष्म उवाच। | 1-113-32x |
तस्मास्तद्वचनं श्रुत्वा ऋषिः कोपसमन्वितः। प्रत्युवाच ततः पत्नीं प्रद्वेषीं ससुतां तदा।। | 1-113-32a 1-113-32b |
नीयतां क्षत्रियकुले धनार्थश्च भविष्यति। | 1-113-33a |
प्रद्वेष्युवाच। | 1-113-33x |
त्वया दत्तं धनं विप्र नेच्छेयं दुःखकारणम्।। | 1-113-33b |
यथेष्टं कुरु विप्रेन्द्र न भेरयं पुरा यथा। | 1-113-34a |
दीर्घतमा उवाच। | 1-113-34x |
अद्यप्रभृति मर्यादा मया लोके प्रतिष्ठिता।। | 1-113-34b |
एक एव पतिर्नार्या यावज्जीवं परायणम्। मृते जीवति वा तस्मिन्नापरं प्राप्नुयान्नरम्।। | 1-113-35a 1-113-35b |
अभिगम्य परं नारी पतिष्यति न संशयः। अपतीनां तु नारीणामद्यप्रभृति पातकम्।। | 1-113-36a 1-113-36b |
यद्यस्ति चेद्धनं सर्वं वृथाभोगा भवन्तु ताः। अकीर्तिः परिवादाश्च नित्यं तासां भवन्तु वै।। | 1-113-37a 1-113-37b |
इति तद्वचनं श्रुत्वा ब्राह्मणी भृशकोपिता। गङ्गायां नीयतामेष पुत्रा इत्येवमब्रवीत्।। | 1-113-38a 1-113-38b |
लोभमोहाभिभूतास्ते पुत्रास्तं गौतमादयः। वद्ध्वोडुपे परिक्षिप्य गङ्गायां समवासृजन्।। | 1-113-39a 1-113-39b |
कस्मादन्धश्च वृद्धश्च भर्तव्योऽयमिति स्म ते। चिन्तयित्वा ततः क्रूराः प्रतिजग्मुरथो गृहान्।। | 1-113-40a 1-113-40b |
सोऽनुस्रोतस्तदा विप्रः प्लवमानो यदृच्छया। जगाम सुबहून्देशानन्धस्तेनोडुपेन ह।। | 1-113-41a 1-113-41b |
तं तु राजा बलिर्नाम सर्वधर्मविदां वरः। अपश्यन्मज्जनगतः स्रोतसाऽभ्याशमागतम्।। | 1-113-42a 1-113-42b |
जग्राह चैनं धर्मात्मा बलिः सत्यपराक्रमः। ज्ञात्वा चैवं स वव्रेऽथ पुत्रार्थे भरतर्षभ।। | 1-113-43a 1-113-43b |
`तं पूजयित्वा राजर्षिर्विश्रान्तं मुनिमब्रवीत्।' सन्तानार्थं महाभाग भार्यासु मम मानद। पुत्रान्धर्मार्थकुशलानुत्पादयितुमर्हसि।। | 1-113-44a 1-113-44b 1-113-44c |
भीष्म उवाच। | 1-113-45x |
एवमुक्तः स तेजस्वी तं तथेत्युक्तवानृषिः। तस्मैस राजा स्वां भार्यां सुदेष्णां प्राहिणोत्तदा।। | 1-113-46a 1-113-45b |
अन्धं वृद्धं च तं मत्वा न सा देवी जगाम ह। स्वां तु धात्रेयिकां तस्मै वृद्धाय प्राहिणोत्तदा।। | 1-113-46a 1-113-46b |
तस्यां काक्षीवदादीन्स शूद्रयोनावृषिस्तदा। जनयामास धर्मात्मा पुत्रानेकादशैव तु।। | 1-113-47a 1-113-47b |
काक्षीवदादीन्पुत्रांस्तान्दृष्ट्वा सर्वानधीयतः। उवाच तमृषिं राजा ममेम इति भारत।। | 1-113-48a 1-113-48b |
नेत्युवाच महर्षिस्तं ममेम इति चाब्रवीत्। शूद्रयोनौ मया हीमे जाताः काक्षीवदादयः।। | 1-113-49a 1-113-49b |
अन्धं वृद्धं च मां दृष्ट्वा सुदेष्णा महिषी तव। अवमन्य ददौ मूढा शूद्रां धात्रेयिकां मम।। | 1-113-50a 1-113-50b |
भीष्म उवाच। | 1-113-51x |
ततः प्रसादयामास पुनस्तमृषिसत्तमम्। बलिः सुदेष्णां स्वां भार्यां तस्मै स प्राहिणोत्पुनः।। | 1-113-51a 1-113-51b |
तां स दीर्घतमाङ्गेषु स्पृष्ट्वा देवीमथाब्रवीत्। भविष्यन्ति कुमारास्ते तेजसाऽऽदित्यवर्चसः।। | 1-113-52a 1-113-52b |
अङ्गो वङ्गः कलिङ्गश्च पुण्ड्रः सुह्मश्च ते सुताः। तेषां देशाः समाख्याताः स्वनामकथिता भुवि।। | 1-113-53a 1-113-53b |
अङ्गस्याङ्गोऽभवद्देशो वङ्गो वङ्गस्य च स्मृतः। कलिङ्गविषयश्चैव कलिङ्गस्य च स स्मृतः।। | 1-113-54a 1-113-54b |
पुण्ड्रस्य पुण्ड्राः प्रख्याताः सुह्माः सुह्मस्य च स्मृताः। एवं बलेः पुरा वंशः प्रख्यातो वै महर्षिजः।। | 1-113-55a 1-113-55b |
एवमन्ये महेष्वासा ब्राह्मणैः क्षत्रिया भुवि। जाताः परमधर्मज्ञा वीर्यवन्तो महाबलाः। एतच्छ्रुत्वा त्वमप्यत्र मातः कुरु यथेप्सितम्।। | 1-113-56a 1-113-56b 1-113-56c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 113 ।। |
1-113-10 अन्वपद्यत उपगतवान्।। 1-113-11 आरम्यतामुपरम्यताम्।। 1-113-14 आत्मानं चित्तम्। नियच्छितुं नियन्तुम्।। 1-113-16 कामं मैथुनं मा गमः।। 1-113-20 तं शशापेति संबन्धः।। 1-113-22 दीर्घं तमः अन्धत्वम्।। 1-113-25 सम्यक् तानं विस्तारो यस्य तस्य कुलस्य वृद्धये विस्तीर्णस्यापि वृद्धये इत्यर्थः।। 1-113-26 गोधर्मं प्रकाशमैथुनम्। सौरभेयात् कामधेनुपुत्रादधीत्याधिगम्य।। 1-113-27 मोहाभिभूतत्वमपापे पापदर्शित्वात्।। 1-113-29 समाभा य क्रुद्धा इति पूर्वेणान्वयः।। 1-113-30 द्वेक्षि द्वेषं करोषि। पतिः पालनादुपसर्गेभ्यः। भरणादन्नादिना भर्ता च।। 1-113-31 अहं तु प्रत्युत त्वद्भरणाशक्ता सती न भरेयम्। तदा तदेव। लुप्तोपमा। पूर्ववदित्यर्थः।। 1-113-33 धनमर्थश्चोपभोगादिः।। 1-113-34 न भरेयं यथा पुरा भर्त्रन्तरं करिष्यामीत्याशयः।। 1-113-42 मज्जनगतः स्नानार्थं गतः। स्रोतसा प्रवाहेण। अभ्याशं समीपम्।। 1-113-46 धात्रेयिकां दासीम्।। 1-113-52 अङ्गेषु स्पृष्ट्वा स्वरूपज्ञानार्थमिति भावः। संधिरार्षः।। 1-113-56 यथेप्सितं ब्राह्मणेभ्यो वंशवृद्धिमित्यर्थः।। त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 113 ।।
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