महाभारतम्-01-आदिपर्व-144
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कुमाराणां अस्त्रशिक्षापरीक्षार्थं रङ्गनिर्माणम्।। 1 ।।
शिक्षादर्शनार्थं भीष्मादीनां प्रेक्षागारप्रवेशः।। 2 ।।
युधिष्ठिरादीनां परीक्षा।। 3 ।।
भीमदुर्योधनयोः गदायुद्धपरीक्षा।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-144-1x |
कृतास्त्रान्धार्तराष्ट्रांश्च पाण्डुपुत्रांश्च भारत। दृष्ट्वा द्रोणोऽब्रवीद्राजन्धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।। | 1-144-1a 1-144-1b |
कृपस्य सोमदत्तस्य वाह्लीकस्य च धीमतः। गाङ्गेयस्य च सान्निध्ये व्यासस्य विदुरस्य च।। | 1-144-2a 1-144-2b |
राजन्संप्राप्तविद्यास्ते कुमाराः कुरुसत्तम। ते दर्शयेयुः स्वां शिक्षां राजन्ननुमते तव।। | 1-144-3a 1-144-3b |
ततोऽब्रवीन्महाराजः प्रहृष्टेनान्तरात्मना। | 1-144-4a |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-144-4x |
भारद्वाज महत्कर्म कृतं ते द्विजसत्तम।। | 1-144-4b |
यदानुमन्यसे कालं यस्मिन्देशे यथायथा। तथातथा विधानाय स्वयमाज्ञापयस्व माम्।। | 1-144-5a 1-144-5b |
स्पृहयाम्यद्य निर्वेदान्पुरुषाणां सचक्षुषाम्। अस्त्रहेतोः पराक्रान्तान्ये मे द्रक्ष्यन्ति पुत्रकान्।। | 1-144-6a 1-144-6b |
क्षत्तर्यद्गुरुराचार्यो ब्रवीति कुरु तत्तथा। न हीदृशं प्रियं मन्ये भविता धर्मवत्सल।। | 1-144-7a 1-144-7b |
ततो राजानमामन्त्र्य विदुरानुमतोपि हि। भारद्वाजो महाप्राज्ञो मापयामास मेदिनीम्।। | 1-144-8a 1-144-8b |
समामवृक्षां निर्गुलमामुदक्प्रवणसंस्थिताम्। तस्यां भूमौ बलिं चक्रे तिथौ नक्षत्रपूजिते।। | 1-144-9a 1-144-9b |
अवघुष्टं पुरं चापि तदर्थं भरतर्षभ। रङ्गभूमौ सुविपुलं शास्त्रदृष्टं यथाविधि।। | 1-144-10a 1-144-10b |
प्रेक्षागारं सुविहितं चक्रस्ते तस्य शिल्पिनः। रक्षां सर्वायुधोपेतां स्त्रीणां चैव नरर्षभ।। | 1-144-11a 1-144-11b |
मञ्चांश्च कारयामासुर्यत्र जानपदा जनाः। विपुलानुच्छ्रयोपेताञ्शिबिकाश्च महाधनाः।। | 1-144-12a 1-144-12b |
तस्मिंस्ततोऽहनि प्राप्ते राजा ससचिवस्तदा। `सान्तःपुरः सहामात्यो व्यासस्यानुमते तदा।' भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा कृपं चाचार्यसत्तमम्।। | 1-144-13a 1-144-13b 1-144-13c |
`बाह्लीकं सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च। कुरूनन्यांश्च सचिवानादाय नगराद्बहिः।। | 1-144-14a 1-144-14b |
रङ्गभूमिं समासाद्य ब्राह्मणैः सहितो नृपः।।' | 1-144-15a |
मुक्ताजालपरिक्षिप्तं वैदूर्यममिशोभितम्। शातकुम्भमयं दिव्यं प्रेक्षागारमुपागमत्।। | 1-144-16a 1-144-16b |
गान्धारी च महाभागा कुन्ती च जयतां वर। स्त्रियश्च राज्ञः सर्वास्ताः सप्रेष्याः सपरिच्छदाः।। | 1-144-17a 1-144-17b |
हर्षादारुरुहुर्मञ्चान्मेरुं देवस्त्रियो यथा। ब्राह्मणक्षत्रियाद्यं च चातुर्वर्ण्यं पुराद्द्रुतम्।। | 1-144-18a 1-144-18b |
दर्शनेप्सुः समभ्यागात्कुमाराणां कृतास्त्रताम्। क्षणेनैकस्थतां तत्र दर्शनेप्सुर्जगाम ह।। | 1-144-19a 1-144-19b |
प्रवादितैश्च वादित्रैर्जनकौतूहलेन च। महार्णव इव क्षुब्धः समाजः सोऽभवत्तदा।। | 1-144-20a 1-144-20b |
ततः शुक्लाम्बरधरः शुक्लयज्ञोपवीतवान्। शुक्लकेशः सितश्मश्रुः शुक्लाल्यानुलेपनः।। | 1-144-21a 1-144-21b |
रङ्गमध्यं तदाचार्यः सपुत्रः प्रविवेश ह। नभो जलधरैर्हीनं साङ्गारक इवांशुमान्।। | 1-144-22a 1-144-22b |
व्यासस्यानुमते चक्रे बलिं बलवतां वरः। ब्राह्मणांस्तु सुमन्त्रज्ञान्कारयामास मङ्गलम्।। | 1-144-23a 1-144-23b |
`सुवर्णमणिरत्नानि वस्त्राणि विविधानि च। प्रददौ दक्षिणां राजा द्रोणाय च कृपाय च।।' | 1-144-24a 1-144-24b |
सुखपुण्याहघोषस्य पुण्यस्य समनन्तरम्। विविशुर्विविधं गृह्य शस्त्रोपकरणं नराः।। | 1-144-25a 1-144-25b |
ततो बद्धाङ्गुलित्राणा बद्धकक्ष्या महारथाः। बद्धथूणाः सधनुषो विविशुर्भरतर्षभाः।। | 1-144-26a 1-144-26b |
`रङ्गमध्ये स्थितं द्रोणमभिवाद्य नरर्षभाः। चक्रुः पूजां यथान्यायं द्रोणस्य च कृपस्य च।। | 1-144-27a 1-144-27b |
आशीर्भिश्च प्रयुक्ताभिः सर्वे संहृष्टमानसाः। अभिवाद्य पुनः शस्त्रान्बलिपुष्पैः समर्चितान्।। | 1-144-28a 1-144-28b |
रक्तचन्दनसंमिश्रैः स्वयमर्चन्ति कौरवाः। रक्तचन्दनदिग्धाश्च रक्तमाल्यानुधारिणः।। | 1-144-29a 1-144-29b |
सर्वे रक्तपताकाश्च सर्वे रक्तान्तलोचनाः। द्रोणेन समनुज्ञाता गृह्य शस्त्रं परन्तपाः।। | 1-144-30a 1-144-30b |
धनूंषि पूर्व संगृह्य तप्तकाञ्चनभूषिताः। सज्यानि विविधाकाराः शरैः सन्धाय कौरवा।। | 1-144-31a 1-144-31b |
ज्याघोषं तलघोषं च कृत्वा भूतान्यमोहयन्।।' | 1-144-32a |
अनुज्येष्ठं च ते तत्र युधिष्ठिरपुनरोगमाः। चक्रुरस्त्रं महावीर्याः कुमाराः परमाद्भुतम्।। | 1-144-33a 1-144-33b |
`केषांचित्तत्र माल्येषु शरा निपतिता नृप। केषांचित्पुष्पमुकुटे निपतन्ति स्म सायकाः।। | 1-144-34a 1-144-34b |
केचिल्लक्ष्याणि विविधैर्बाणैराहितलक्षणैः। बिभिदुर्लाघवोत्सृष्टैर्गुरूणि च लघूनि च।।' | 1-144-35a 1-144-35b |
केचिच्छराक्षेपभयाच्छिरांस्यवननामिरे। मनुजा धृष्टमपरे वीक्षाञ्चक्रुः सुविस्मिताः।। | 1-144-36a 1-144-36b |
ते स्म लक्ष्याणि बिभिदुर्बाणैर्नामाङ्कशोभितैः। विविधैर्लाघवोत्सृष्टैरुह्यन्तो वाजिभिर्द्रुतम्।। | 1-144-37a 1-144-37b |
तत्कुमारबलं तत्र गृहीतशरकार्मुकम्। गन्धर्वनगराकारं प्रेक्ष्य ते विस्मिताभवन्।। | 1-144-38a 1-144-38b |
सहसा चुक्रुशुश्चान्ये नराः शतसहस्रशः। विस्मयोत्फुल्लनयनाः साधुसाध्विति भारत।। | 1-144-39a 1-144-39b |
कृत्वा धनुषि ते मार्गान्रथचर्यासु चासकृत्। गजपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च नियुद्धे च महाबलाः।। | 1-144-40a 1-144-40b |
गृहीतखड्गचर्माणस्ततो भूयः प्रहारिणः। त्सरुमार्गान्यथोद्दिष्टांश्चेरुः सर्वासु भूमिषु।। | 1-144-41a 1-144-41b |
लाघवं सौष्ठवं शोभां स्थिरत्वं दृढमुष्टिताम्। ददृशुस्तत्र सर्वेषां प्रयोगं खड्गचर्मणोः।। | 1-144-42a 1-144-42b |
अथ तौ नित्यसंहृष्टौ सुयोधनवृकोदरौ। अवतीर्णौ गदाहस्तावेकशृङ्गाविवाचलौ।। | 1-144-43a 1-144-43b |
बद्धकक्ष्यौ महाबाहू पौरुषे पर्यवस्थितौ। बृंहन्तौ वासिताहेतोः समदाविव कुञ्जरौ।। | 1-144-44a 1-144-44b |
तौ प्रदक्षिणसव्यानि मण्डलानि महाबलौ। चेरतुर्मण्डलगतौ समदाविव कुञ्जरौ।। | 1-144-45a 1-144-45b |
विदुरो धृतराष्ट्राय गान्धार्याः पाण्डवारणिः। न्यवेदयेतां तत्सर्वं कुमाराणां विचेष्टितम्।। | 1-144-46a 1-144-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 144 ।। |
1-144-19 दर्शनेप्सुः जन इति शेषः।। 1-144-22 अंशुमान् चन्द्रः।। 1-144-38 गन्धर्वनगराकारमद्भुतरूपम्।। 1-144-43 संहृष्टौ परस्परं जेतुं सकामौ।। 1-144-44 बृंहन्तौ शब्दं कुर्वाणौ। वासिता हस्तिनी।। 1-144-45 मण्डलगताबलातचक्रवद्भ्राम्यमाणगदापरिवेषान्तर्गतौ।। 1-144-46 पाण्डवारणिः कुन्ती।। चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 144 ।।
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