महाभारतम्-01-आदिपर्व-073
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शुक्रदेवयानीसंवादः।। 1 ।।
शुक्र उवाच। | 1-73-1x |
यः परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षते। देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम्।। | 1-73-1a 1-73-1b |
यः समुत्पतितं क्रोधं निगृह्णाति इयं यथा। स यन्तेत्युच्यते सद्भिर्न यो रश्मिषु लम्बते।। | 1-73-2a 1-73-2b |
यः समुत्पतितं क्रोधमक्रोधेन निरस्यति। देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम्।। | 1-73-3a 1-73-3b |
यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयेह निरस्यति। यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते।। | 1-73-4a 1-73-4b |
यः संधारयते मन्युं योऽतिवादांस्तितिक्षते। यश्च तप्तो न तपति दृढं सोऽर्थस्य भाजनम्।। | 1-73-5a 1-73-5b |
यो यजेदपरिश्रान्तो मासिमासि शतं समाः। न क्रुद्ध्येद्यश्च सर्वस्य तयोरक्रोधनोऽधिकः।। | 1-73-6a 1-73-6b |
`तस्मादक्रोधनः श्रेष्ठः कामक्रोधौ विगर्हितौ। क्रुद्धस्य निष्फलान्येव दानयज्ञतपांसि च।। | 1-73-7a 1-73-7b |
तस्मादक्रोधने यज्ञतपोदानफलं महत्। भवेदसंशयं भद्रे नेतरस्मिन्कदाचन।। | 1-73-8a 1-73-8b |
न यतिर्न तपस्वी च न यज्वा न च धर्मभाक्। क्रोधस्य यो वशं गच्छेत्तस्य लोकद्वयं न च।। | 1-73-9a 1-73-9b |
पुत्रो भृत्यः सुहृद्भ्राता भार्या धर्मश्च सत्यता। तस्यैतान्यपयास्यन्ति क्रोधशीलस्य निश्चितम्।। | 1-73-10a 1-73-10b |
यत्कुमाराः कुमार्यश्च वैरं कुर्युरचेतसः। न तत्प्राज्ञोऽनुकुर्वीत न विदुस्ते बलाबलम्।। | 1-73-11a 1-73-11b |
देवयान्युवाच। | 1-73-12x |
वेदाहं तात बालाऽपि धर्माणां यदिहान्तरम्। अक्रोधे चातिवादे च वेद चापि बलाबलम्।। | 1-73-12a 1-73-12b |
`स्ववृत्तिमननुष्ठाय धर्ममुत्सृज्य तत्त्वतः।' शिष्यस्याशिष्यवृत्तेस्तु न क्षन्तव्यं बुभूषता।। | 1-73-13a 1-73-13b |
`प्रेष्यः शिष्यः स्ववृत्तिं हि विसृज्य विफलं गतः।' तस्मात्संकीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते।। | 1-73-14a 1-73-14b |
पुमांसो ये हि निन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च। न तेषु निवसेत्प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापबुद्धिषु।। | 1-73-15a 1-73-15b |
ये त्वेनमभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन वा। तेषु साधुषु वस्तव्यं स वासः श्रेष्ठ उच्यते।। | 1-73-16a 1-73-16b |
`सुयन्त्रितपरा नित्यं विहीनाश्च धनैर्वराः। दुर्वृत्ताः पापकर्माणश्चण्डाला धनिनोपि च।। | 1-73-17a 1-73-17b |
नैव जात्या हि चण्डालाः स्वकर्मविहितैर्विना। धनाभिजनविद्यासु सक्ताश्चण्डालधर्मिणः।। | 1-73-18a 1-73-18b |
अकारणाश्च द्वेष्यन्ति परिवादं वदन्ति ते। साधोस्तत्र न वासोस्ति पापिभिः पापतां व्रजेत्।। | 1-73-19a 1-73-19b |
सुकृते दुष्कृते वापि यत्र सज्जति यो नरः। ध्रुवं रतिर्भवेत्तस्य तस्माद्द्वेषं न रोचयेत्।।' | 1-73-20a 1-73-20b |
वाग्दुरुक्तं महाघोरं दुहितुर्वृषपर्वणः। मम मथ्नाति हृदयमग्निकाम इवारणिम्।। | 1-73-21a 1-73-21b |
न ह्यतो दुष्करतरं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु। यः सपत्नश्रियं दीप्तां हीनश्रीः पर्युपासते।। | 1-73-22a 1-73-22b |
मरणं शोभनं तस्य इति विद्वज्जना विदुः। `अवमानमवाप्नोति शनैर्नीचसमागमात्।। | 1-73-23a 1-73-23b |
अतिवादा वक्त्रतो निःसरन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि। परस्य वै मर्मसु ते पतन्ति तस्माद्धीरो नैव मुच्येत्परेषु।। | 1-73-24a 1-73-24b 1-73-24c 1-73-24d |
निरोहेदायुधैश्छिन्नं संरोहेद्दग्धमाग्निना। वाक्क्षतं च न संरोहेदाशरीरं शरीरिणाम्।। | 1-73-25a 1-73-25b |
संरोहित शरैर्विद्धं नवं परशुना हतम्। वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहेत वाक्क्षतम्'।। | 1-73-26a 1-73-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।। |
1-73-2 रश्मिषु क्रोधफलभूतास्वापत्सु। पक्षे स्पष्टोऽर्थः।। 1-73-3 अक्रोधेन क्रोधविरोधिना सहनेन।। त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।।
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