महाभारतम्-01-आदिपर्व-042
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शृङ्गिशमीकसवादः।। 1 ।। शमीकप्रेषितेन गौरमुखाख्यशिष्येण सह परिक्षित्संवादः।। 2 ।। मन्त्रिभिः सह राज्ञं विचारः।। 3 ।। तक्षककाश्यपसंवादः।। 4 ।।
शृङ्ग्युवाच। | 1-42-1x |
यद्येतत्साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम्। प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत्।। | 1-42-1a 1-42-1b |
नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते। नाहं मृषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुतः शपन्।। | 1-42-2a 1-42-2b |
शमीक उवाच। | 1-42-3x |
जानाम्युग्रप्रभावं त्वां तात सत्यगिरं तथा। नानृतं चोक्तपूर्वं ते नैतन्मिथ्या भविष्यति।। | 1-42-3a 1-42-3b |
पित्रा पुत्रो वयस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु। यथा स्याद्गुणसंयुक्तः प्राप्नुयाच्च महद्यशः।। | 1-42-4a 1-42-4b |
किं पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावितः सदा। वर्धते चेत्प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम्।। | 1-42-5a 1-42-5b |
`उत्सीदेयुरिमे लोकाः क्षणा चास्य प्रतिक्रिया।' सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर। पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम्।। | 1-42-6a 1-42-6b 1-42-6c |
स त्वं शमपरो भूत्वा वन्यमाहारमाचरन्। चर क्रोधमिमं हित्वा नैवं धर्मं प्रहास्यसि।। | 1-42-7a 1-42-7b |
क्रोधो हि धर्मं हरति यतीनां दुःखसंचितम्। ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते।। | 1-42-8a 1-42-8b |
शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः। क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।। | 1-42-9a 1-42-9b |
तस्माच्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः। क्षमया प्राप्स्यसे लोकान्ब्रह्मणः समनन्तरान्।। | 1-42-10a 1-42-10b |
मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै। तत्करिष्याम्यहं तात प्रेपयिष्ये नृपाय वै।। | 1-42-11a 1-42-11b |
मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेनाकृतबुद्धिना। ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा।। | 1-42-12a 1-42-12b |
सौतिरुवाच। | 1-42-13x |
एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः। परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः।। | 1-42-13a 1-42-13b |
संदिश्य कुशलप्रश्नं कार्यवृत्तान्तमेव च। शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम्।। | 1-42-14a 1-42-14b |
सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्रं कुरुवर्धनम्। विवेश भवनं राज्ञः पूर्वं द्वास्थैर्निवेदितः।। | 1-42-15a 1-42-15b |
पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्तदा। आचख्यौ च परिश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः।। | 1-42-16a 1-42-16b |
शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मन्त्रिसन्निधौ। शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव।। | 1-42-17a 1-42-17b |
ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः। तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणैर्वियोजितः।। | 1-42-18a 1-42-18b |
अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मौनान्वितस्य च। क्षान्तवांस्तव तत्कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे।। | 1-42-19a 1-42-19b |
तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै। तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति।। | 1-42-20a 1-42-20b |
तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत्। तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत।। | 1-42-21a 1-42-21b |
न हि शक्नोति संयन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम्। ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन्हितार्थिना।। | 1-42-22a 1-42-22b |
सातिरुवाच। | 1-42-23x |
इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः। पर्यतप्यत तत्पापं कृत्वा राजा महातपाः।। | 1-42-23a 1-42-23b |
तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा। भूय एवाभवद्राजा शोकसंतप्तमानसः।। | 1-42-24a 1-42-24b |
अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च। पर्यतप्यत भूयोपि कृत्वा तत्किल्बिषं मुनेः।। | 1-42-25a 1-42-25b |
न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत। अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत्।। | 1-42-26a 1-42-26b |
ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा। भूयः प्रसादं भगवान्करोत्विह ममेति वै।। | 1-42-27a 1-42-27b |
`श्रुत्वा तु वचनं राज्ञो मुनिर्गौरमुखस्तदा। समनुज्ञाप्य वेगेन प्रजगामाश्रमं गुरोः।।' | 1-42-28a 1-42-28b |
तस्मिंश्च गतमात्रेऽथ राजा गौरमुखे तदा। मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानसः।। | 1-42-29a 1-42-29b |
संमन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित्। प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम्।। | 1-42-30a 1-42-30b |
रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च। ब्राह्मणान्मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वै न्ययोजयत्।। | 1-42-31a 1-42-31b |
राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः। मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात्परिरक्षितः।। | 1-42-32a 1-42-32b |
न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम्। वातोऽपि निश्चरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते।। | 1-42-33a 1-42-33b |
प्राप्ते च दिवसे तस्मिन्सप्तमे द्विजसत्तमः। काश्यपोऽभ्यागमद्विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम्।। | 1-42-34a 1-42-34b |
श्रुतं हि तेन तदभूद्यथा तं राजसत्तमम्। तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम्।। | 1-42-35a 1-42-35b |
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम्। तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन्।। | 1-42-36a 1-42-36b |
तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि। गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः।। | 1-42-37a 1-42-37b |
तमब्रवीत्पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुंगवम्। क्व भवांस्त्वरितो याति किंच कार्यं चिकीर्षति।। | 1-42-38a 1-42-38b |
काश्यप उवाच। | 1-42-39x |
नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिंदमम्। तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाऽध्य प्रधक्ष्यति।। | 1-42-39a 1-42-39b |
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसम्। पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम्। गच्छामित्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम्।। | 1-42-40a 1-42-40b 1-42-4oc |
`विज्ञातविषविद्योऽहं ब्राह्मणो लोकपूजितः। अस्मद्गुरुकटाक्षेण कल्योऽहं विषनाशने।।' | 1-42-41a 1-42-41b |
तक्षक उवाच। | 1-42-42x |
अहं स तक्षको ब्रह्मंस्तं धक्ष्यामि महीपतिम्। निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम्।। | 1-42-42a 1-42-42b |
काश्यप उवाच। | 1-42-43x |
अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम्। करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता।। | 1-42-43a 1-42-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।। |
1-42-2 स्वैरेष्वपि परिहासादिष्वपि।। 1-42-4 वयस्थोऽपि प्रौढोपि। वाच्यः शास्यः।। 1-42-5 प्रभवतां योगैश्वर्यवताम्।। 1-42-8 यतीनां आमुष्मिकहितार्थं यतमानानाम्।। 1-42-10 समनन्तरान् प्रत्यासन्नान्।। 1-42-11 संदेशहरमिति शेषः।। 1-42-19 न चक्षमे न क्षान्तवान्।। 1-42-23 पापं कृत्वैव पर्यतप्यत नतु मृत्युं श्रुत्वा।। 1-42-33 आरूढं प्रासादारूढम्।। 1-42-43 नृपतिं गत्वा नृपतिं नागेति पाठान्तरम्।। द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।।
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