महाभारतम्-01-आदिपर्व-170
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वने चरतां पाण्डवानां व्यासेन सान्त्वनं एकचक्रानगर्यां ब्राह्मणगृहे स्थापनं च।। 1 ।।
`वैशंपायन उवाच। | 1-170-1x |
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे शालिहोत्राश्रमे तदा। पूजितास्तेन वन्येन तमामन्त्र्य महामुनिम्।। | 1-170-1a 1-170-1b |
जटाः कृत्वाऽऽत्मनः सर्वे वल्कलाजिनवाससः। कुन्त्या सह महात्मानो बिभ्रतस्तापसं वपुः।। | 1-170-2a 1-170-2b |
ब्राह्मं वेदमधीयाना वेदाङ्गानि च सर्वशः। नीतिशास्त्रं च धर्मज्ञा न्यायज्ञानं च पाण्डवाः।। | 1-170-3a 1-170-3b |
शालिहोत्रप्रसादेन लब्ध्वा प्रीतिमवाप्य च।' ते वनेन वनं गत्वा घ्नन्तो मृगगणान्बहून्। अपक्रम्य ययू राजंस्त्वरमाणा महारथाः।। | 1-170-4a 1-170-4b 1-170-4c |
मत्स्यांस्त्रिगर्तान्पाञ्चालान्कीचकानन्तरेण च। रमणीयान्वनोद्देशान्प्रेक्षमाणाः सरांसि च।। | 1-170-5a 1-170-5b |
क्वचिद्वहन्तो जननीं त्वरमाणा महारथाः। `क्वचिच्छ्रान्ताश्च कान्तारे क्वचित्तिष्ठन्ति हर्षिताः'।। | 1-170-6a 1-170-6b |
क्वचिच्छन्देन गच्छन्तस्ते जग्मुः प्रसभं पुनः। पथि द्वैपायन सर्वे ददृशुः स्वपितामहम्।। | 1-170-7a 1-170-7b |
तेऽभिवाद्य महात्मानं कृष्णद्वैपायनं तदा। तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे सह मात्रा परन्तपाः।। | 1-170-8a 1-170-8b |
व्यास उवाच। | 1-170-9x |
तदाश्रमान्निर्गमनं मया ज्ञातं नरर्षभाः। घटोत्कचस्य चोत्पत्तिं ज्ञात्वा प्रीतिरवर्धत।। | 1-170-9a 1-170-9b |
इदं नगरमभ्याशे रमणीयं निरामयम्। वसतेह प्रतिच्छन्ना ममागमनकाङ्क्षिणः।। | 1-170-10a 1-170-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-170-11x |
एवं स तान्समाश्वास्य व्यासः पार्तानरिन्दमान्। एकचक्रामभिगतां कुन्तीमाश्वासयत्प्रभुः।। | 1-170-11a 1-170-11b |
श्रीव्यास उवाच। | 1-170-12x |
कुर्यान्न केवलं धर्मं दुष्कृतं च तथान नरः। सुकृतं दुष्कृतं लोके न कर्ता नास्ति कश्चन।। | 1-170-12a 1-170-12b |
अवश्यं लभते कर्ता फलं वै पुण्यपापयोः। दुष्कृतस्य फलेनैव प्राप्तं व्यसनमुत्तमम्।। | 1-170-13a 1-170-13b |
तस्मान्माधवि मानार्हे मा च शोके मनः कृथाः। | 1-170-14a |
वैशंपायन उवाच। | 1-170-14x |
एवमुक्त्वा निवेश्यैनान्ब्राह्मणस्य निवेशने।। | 1-170-14b |
जगाम भगवान्व्यासो यताकाममृषिः प्रभुः।। | 1-170-15a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 170 ।। |
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