महाभारतम्-01-आदिपर्व-146
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कर्णस्य परीक्षा।। 1 ।।
कर्णार्जुनयोर्युद्धप्रसङ्गः।। 2 ।।
कृपेण कर्णस्याधिक्षेपः, कर्णस्य दुर्योधनेन राज्याभिषेचनं च।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-146-1x |
`एतस्मिन्नेव काले तु तस्मिञ्जनसमागमे।' दत्तेऽवकाशे पुरुषैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनः। विवेश रङ्गं विस्तीर्णं कर्णः परपुरञ्जयः।। | 1-146-1a 1-146-1b 1-146-1c |
सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोद्द्योतिताननः। स धनुर्बद्धनिस्त्रिंशः पादचारीव पर्वतः।। | 1-146-2a 1-146-2b |
कन्यागर्भः पृथुयशाः पृथायाः पृथुलोचनः। तीक्ष्णांशोर्भास्करस्यांशः कर्णोऽरिगणसूदनः।। | 1-146-3a 1-146-3b |
सिंहर्षभगजेन्द्राणां बलवीर्यपराक्रमः। दीप्तिकान्तिद्युतिगुणैः सूर्येन्दुज्वलनोपमः।। | 1-146-4a 1-146-4b |
प्रांशुः कनकतालाभः सिंहसंहननो युवा। असङ्ख्येयगुणः श्रीमान्भास्करस्यात्मसंभवः।। | 1-146-5a 1-146-5b |
स निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमण्डलम्। प्रणामं द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवाकरोत्।। | 1-146-6a 1-146-6b |
स समाजजनः सर्वो निश्चलः स्थिरलोचनः। कोऽयमित्यागतक्षोभः कौतूहलपरोऽभवत्।। | 1-146-7a 1-146-7b |
सोऽब्रवीन्मेघगम्भीरस्वरेण वदतां वरः। भ्राता भ्रातरमज्ञातं सावित्रः पाकशासनिम्।। | 1-146-8a 1-146-8b |
पार्थ यत्ते कृतं कर्म विशेषवदहं ततः। करिष्ये पश्यतां नॄणां माऽऽत्मना विस्मयं गमः।। | 1-146-9a 1-146-9b |
असमाप्ते ततस्तस्य वचने वदतां वर। यन्त्रोत्क्षिप्त इवोत्तस्थौ क्षिप्रं वै सर्वतो जनः।। | 1-146-10a 1-146-10b |
प्रीतिश्च मनुजव्याघ्र दुर्योधनमुपाविशत्। ह्रीश्च क्रोधश्च बीभत्सुं क्षणेनान्वाविवेश ह।। | 1-146-11a 1-146-11b |
ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः कर्णः प्रियरणः सदा। यत्कृतं तत्र पार्थेन तच्चकार महाबलः।। | 1-146-12a 1-146-12b |
अथ दुर्योधनस्तत्र भ्रातृभिः सह भारत। कर्णं परिष्वज्य मुदा ततो वचनमब्रवीत्।। | 1-146-13a 1-146-13b |
स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मानद। अहं च कुरुराज्यं च यथेष्टमुपभुज्यताम्।। | 1-146-14a 1-146-14b |
कर्ण उवाच। | 1-146-15x |
कृतं सर्वमहं मन्ये सखित्वं च त्वया वृणे। द्वन्द्वयुद्धं च पार्थेन कर्तुमिच्छाम्यहं प्रभो।। | 1-146-15a 1-146-15b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-146-16x |
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजन्दुर्योधनस्तदा। कर्णं दीर्घाञ्चितभुजं परिष्वज्येदमब्रवीत्।।' | 1-146-16a 1-146-16b |
भुङ्क्ष्व भोगान्मया सार्धं बन्धूनां प्रियकृद्भव। दुर्हृदां कुरु सर्वेषां मूर्ध्नि पादमरिन्दम।। | 1-146-17a 1-146-17b |
वैशंपायन उवाच। | 1-146-18x |
ततः क्षिप्तमिवात्मानं मत्वा पार्थोऽभ्यभाषत। कर्णं भ्रातृसमूहस्य मध्येऽचलमिव स्थितम्।। | 1-146-18a 1-146-18b |
अर्जुन उवाच। | 1-146-19x |
अनाहूतोपसृष्टानामनाहूतोपजल्पिनाम्। ये लोकास्तान्हतः कर्ण मया त्वं प्रतिपत्स्यसे।। | 1-146-19a 1-146-19b |
कर्ण उवाच। | 1-146-20x |
रङ्गोऽयं सर्वसामान्यः किमत्र तव फाल्गुन। वीर्यश्रेष्ठाश्च राजानो बलं धर्मोऽनुवर्तते।। | 1-146-20a 1-146-20b |
किं क्षेपैर्दुर्बलायासैः शरैः कथय भारत। गुरोः समक्षं यावत्ते हराम्यद्य शिरः शरैः।। | 1-146-21a 1-146-21b |
वैशंपायन उवाच। | 1-146-22x |
ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः पार्तः परपुरञ्जयः। भ्रातृभिस्त्वरयाश्लिष्टो रणायोपजगाम तम्।। | 1-146-22a 1-146-22b |
ततो दुर्योधनेनापि स भ्रात्रा समरोद्यतः। परिष्वक्तः स्थितः कर्णः प्रगृह्य सशरं धनुः।। | 1-146-23a 1-146-23b |
ततः सविद्युत्स्तनितैः सेन्द्रायुधपुरोगमैः। आवृतं गगनं मेघैर्बलाकापङ्क्तिहासिभिः।। | 1-146-24a 1-146-24b |
ततः स्नेहाद्धरिहयं दृष्ट्वा रङ्गावलोकिनम्। भास्करोऽप्यनयन्नाशं समीपोपगतान्घनान्।। | 1-146-25a 1-146-25b |
मेघच्छायोपगूढस्तु ततोऽदृश्यत फाल्गुनः। सूर्यातपपरिक्षिप्तः कर्णोऽपि समदृश्यत।। | 1-146-26a 1-146-26b |
धार्तराष्ट्रा यतः कर्णस्तस्मिन्देशे व्यवस्थिताः। भारद्वाजः कृपो भीष्मो यतः पार्थस्ततोऽभवन्।। | 1-146-27a 1-146-27b |
द्विधा रङ्गः समभवत्स्त्रीणां द्वैधमजायत। कुन्तिभोजसुता मोहं विज्ञातार्था जगाम ह।। | 1-146-28a 1-146-28b |
तां तथा मोहमापन्नां विदुरः सर्वधर्मवित्। कुन्तीमाश्वासयामास प्रेष्याभिश्चन्दनोदकैः।। | 1-146-29a 1-146-29b |
ततः प्रत्यागतप्राणा तावुभौ परिदंशितौ। पुत्रौ दृष्ट्वा सुसंभ्रान्ता नान्वपद्यत किंचन।। | 1-146-30a 1-146-30b |
तावुद्यतमहाचापौ कृपः शारद्वतोऽब्रवीत्। द्वन्द्वयुद्धसमाचारे कुशलः सर्वधर्मवित्।। | 1-146-31a 1-146-31b |
अयं पृथायास्तनयः कनीयान्पाण्डुनन्दनः। कौरवो भवता सार्धं द्वन्द्वयुद्धं करिष्यति।। | 1-146-32a 1-146-32b |
त्वमप्येवं महाबाहो मातरं पितरं कुलम्। कथयस्व नरेन्द्राणां येषां त्वं कुलभूषणम्।। | 1-146-33a 1-146-33b |
ततो विदित्वा पार्थस्त्वां प्रतियोत्स्यति वा न वा। वृथाकुलसमाचारैर्न युध्यन्ते नृपात्मजाः।। | 1-146-34a 1-146-34b |
वैशंपायन उवाच। | 1-146-35x |
एवमुक्तस्य कर्णस्य व्रीडावनतमाननम्। बभौ वर्षाम्बुविक्लिन्नं पद्ममागलितं यथा।। | 1-146-35a 1-146-35b |
दुर्योधन उवाच। | 1-146-36x |
आचार्य त्रिविधा योनी राज्ञां शास्त्रविनिश्चये। सत्कुलीनश्च शूरश्च यश्च सेनां प्रकर्षति।। | 1-146-36a 1-146-36b |
`अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति।।' | 1-146-37a 1-146-37b |
यद्ययं फाल्गुनो युद्धे नाराज्ञा योद्धुमिच्छति। तस्मादेषोऽङ्गविषये मया राज्येऽभिषिच्यते।। | 1-146-38a 1-146-38b |
वैशंपायन उवाच। | 1-146-39x |
`ततो राजानमामन्त्र्य गाङ्गेयं च पितामहम्। अभिषेकस्य संभारान्समानीय द्विजातिभिः।। | 1-146-39a 1-146-39b |
गोसहस्रायुतं दत्त्वा युक्तानां पुण्यकर्मणाम्। अर्होऽयमङ्गराज्यस्य इति वाच्य द्विजातिभिः'।। | 1-146-40a 1-146-40b |
ततस्तस्मिन्क्षणे कर्णः सलाजकुसुमैर्घटैः। काञ्चनैः काञ्चने पीठे मन्त्रविद्भिर्महारथः।। | 1-146-41a 1-146-41b |
अभिषिक्तोऽङ्गराजे स श्रिया युक्तो महाबलः। `स मौलिहारकेयूरः सहस्ताभरणाङ्गदः।। | 1-146-42a 1-146-42b |
राजलिङ्गैस्तथाऽन्यैश्च भूषितो भूषणैः शुभैः।' सच्छत्रवालव्यजनो जयशब्दोत्तरेण च।। | 1-146-43a 1-146-43b |
उवाच कौरवं राजन्वचनं स वृषस्तदा। अस्य राज्यप्रदानस्य सदृशं किं ददानि ते।। | 1-146-44a 1-146-44b |
प्रब्रूहि राजशार्दूल कर्ता ह्यस्मि तथा नृप। अत्यन्तं सख्यमिच्छामीत्याह तं स सुयोधनः।। | 1-146-45a 1-146-45b |
एवमुक्तस्ततः कर्णस्तथेति प्रत्युवाच तम्। हर्षाच्चोभौ समाश्लिष्य परां मुदमवापतुः।। | 1-146-46a 1-146-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 146 ।। |
1-146-1 दत्तावकाश इति चपाठः।। 1-146-6 नामपूर्वमथाकरोत् इति पाठान्तरम्।। 1-146-26 सूर्यातपपरिवक्त इति डपाठः।। 1-146-28 विज्ञातार्था कर्णस्य स्वपुत्रत्वज्ञानवती। हेतुगर्भमेतत्।। 1-146-34 वृथाकुलसमाचारैः अज्ञातकुलाचारैः।। 1-146-40 वाच्य वाचयित्वा।। षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायझ।। 146 ।।
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