महाभारतम्-01-आदिपर्व-081
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इन्द्रययातिसंवादः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-81-1x |
स्वर्गतः स तु राजेन्द्रो निवसन्देववेश्मनि। पूजितस्त्रिदशैः साध्यैर्मरुद्भिर्वसुभिस्तथा।। | 1-81-1a 1-81-1b |
देवलोकं ब्रह्मलोकं संचरन्पुण्यकृद्वशी। अवसत्पृथिवीपालो दीर्घकालमिति श्रुतिः।। | 1-81-2a 1-81-2b |
स कदाचिन्नृपश्रेष्ठो ययातिः शक्रमागमत्। कथान्ते तत्र शक्रेण स पृष्टः पृथिवीपतिः।। | 1-81-3a 1-81-3b |
शक्र उवाच। | 1-81-4x |
यदा स पूरुस्तव रूपेण राज- ञ्जरां गृहीत्वा प्रचचार भूमौ। तदा च राज्यं संप्रदायैव तस्मै त्वया किमुक्तः कथयेह सत्यम्।। | 1-81-4a 1-81-4b 1-81-4c 1-81-4d |
ययातिरुवाच। | 1-81-5x |
गङ्गायमुनयोर्मध्ये कृत्स्नोयं विषयस्तव। मध्ये पृथिव्यास्त्वं राजा भ्रातरोऽन्त्याधिपास्तव।। | 1-81-5a 1-81-5b |
`न च कुर्यान्नरो दैन्यं शाठ्यं क्रोधं तथैव च। जैहयं च मत्सरं वैरं सर्वत्रेदं न कारयेत्।। | 1-81-6a 1-81-6b |
मातरं पितरं ज्येष्ठं विद्वांसं च तपोधनम्। क्षमावन्तं च राजेन्द्र नावमन्येत बुद्धिमान्।। | 1-81-7a 1-81-7b |
ळशक्तस्तु क्षमते नित्यमशक्तः क्रुध्यते नरः। दुर्जनः सुजनं द्वेष्टि दुर्बलो बलवत्तरम्।। | 1-81-8a 1-81-8b |
रूपवन्तमरूपी च धनवन्तं च निर्धनः। अकर्मी कर्मिणं द्वेष्टि धार्मिकं च नधार्मिकः।। | 1-81-9a 1-81-9b |
निर्गुणो गुणवन्तं च पुत्रैतत्कलिलक्षणम्। विपरीतं च राजेन्द्र एतेषु कृतलक्षणम्।। | 1-81-10a 1-81-10b |
ब्राह्मणो वाथ वा राजा वैश्यो वा शूद्र एव वा। प्रशस्तेषु प्रसक्ताश्चेत्प्रशस्यन्ते यशस्विनः।। | 1-81-11a 1-81-11b |
तस्मात्प्रशस्ते राजेन्द्र नरः सक्तमना भवेत्। अलोकज्ञा ह्यप्रशस्ता भ्रातरस्ते ह्यबुद्धयः।। | 1-81-12a 1-81-12b |
अन्त्याधिपतयः सर्वे ह्यभवन्गुरुशासनात्। | 1-81-13a |
इन्द्र उवाच। | 1-81-13x |
त्वं हि धर्मविदो राजन्कत्थसे धर्मसुत्तमम्। कथयस्व पुनर्मेऽद्य लोकवृत्तान्तमुत्तमम्।। | 1-81-13b 1-81-13c |
ययातिरुवाच' | 1-81-14x |
अक्रोधनः क्रोधनेभ्यो विशिष्ट- स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः। अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः।। | 1-81-14a 1-81-14b 1-81-14c 1-81-14d |
आक्रुश्यमानो नाकोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।। | 1-81-15a 1-81-15b |
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत। ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेद्रुशतीं पापलोक्याम्।। | 1-81-16a 1-81-16b 1-81-16c 1-81-16d |
अरुन्तुदं पुरुषं तीक्ष्णवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यन्। विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम्।। | 1-81-17a 1-81-17b 1-81-17c 1-81-17d |
सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्या- त्सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात्। सदाऽसतामतिवादांस्तितिक्षे- त्सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः।। | 1-81-18a 1-81-18b 1-81-18c 1-81-18d |
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि। परस्य ये मर्मसु संपतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।। | 1-81-19a 1-81-19b 1-81-19c 1-81-19d |
नहीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते। दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्।। | 1-81-20a 1-81-20b |
तस्मात्सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित्। पूज्यान्संपूजयेद्दद्यान्न च याचेत्कदाचन।। | 1-81-21a 1-81-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।। |
1-81-16 अस्य आक्रोष्टुः सुकृतं तितिक्षुर्विन्दति। रुशतीं अकल्याणी।। 1-81-17 निर्ऋति दुर्देवताम्।। 1-81-20 संवननं वशीकरणम्।। एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।।
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