महाभारतम्-01-आदिपर्व-148
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गुरुदक्षिणात्वेन जीवतो द्रुपदस्य ग्रहणे द्रोणेनाज्ञापिते तदर्थं तेन सह सर्वशिष्याणां पाञ्चालपुरगमनम्।। 1 ।।
द्रुपदग्रहणाय पाण्डववर्जं गतानां कौरवाणां तेन पराजयः।। 2 ।।
तदनन्तरं गतेषु पाण्डवेषु अर्जुनेन द्रुपदग्रहणम्।। 3 ।।
जीवग्राहं गृहीत्वा भीमार्जुनाभ्यां समर्पितेन द्रुपदेन द्रोणस्य संवादः।। 4 ।।
द्रोणेनार्धराज्यापहारेण मुक्तस्य द्रुपदस्य पुत्रोत्पादनार्थं प्रयत्नः।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-148-1x |
पाण्डवान्धार्तराष्ट्रांश्च कृतास्त्रान्प्रसमीक्ष्य सः। गुर्वर्थं दक्षिणां काले प्राप्तेऽमन्यत वै गुरुः।। | 1-148-1a 1-148-1b |
`अस्त्रशिक्षामनुज्ञातान्रङ्गद्वारमुपागतान्। भारद्वाजस्ततस्तांस्तु सर्वानेवाभ्यभाषत।। | 1-148-2a 1-148-2b |
इच्छामि दत्तां सहितां मह्यं परमदक्षिणाम्। एवमुक्तास्ततः सर्वे शिष्या द्रोणमथाब्रुवन्। भगवन्किं प्रयच्छाम आज्ञापयतु नो गुरुः।।' | 1-148-3a 1-148-3b 1-148-3c |
ततः शिष्यान्समाहूय आचार्योऽर्थमचोदयत्। द्रोणः सर्वानशेषेण दक्षिणार्थं महीपते।। | 1-148-4a 1-148-4b |
पञ्चालराजं द्रुपदं गृहित्वा रणमूर्धनि। पर्यानयत भद्रं वः सा स्यात्परमदक्षिणा।। | 1-148-5a 1-148-5b |
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे रथैस्तूर्णं प्रहारिणः। आचार्यधनदानार्थं द्रोणेन सहिता ययुः।। | 1-148-6a 1-148-6b |
ततोऽभिजग्मुः पञ्चालान्निघ्नन्तस्ते नरर्षभाः। ममृदुस्तस्य नगरं द्रुपदस्य महौजसः।। | 1-148-7a 1-148-7b |
दुर्योधनश्च कर्णश्च युयुत्सुश्च महाबलः। दुःशासनो विकर्णश्च जलसन्धः सुलोचनः।। | 1-148-8a 1-148-8b |
एते चान्ये च बहवः कुमारा बहुविक्रमाः। अहं पूर्वमहं पूर्वमित्येवं क्षत्रियर्षभाः।। | 1-148-9a 1-148-9b |
ततो वरराथारूढाः कुमाराः सादिभिः सह। प्रविश्य नगरं सर्वे राजमार्गमुपाययुः।। | 1-148-10a 1-148-10b |
तस्मिन्काले तु पाञ्चालः श्रुत्वा दृष्ट्वा महद्बलम्। भ्रातृभिः सहितो राजंस्त्वरया निर्ययौ गृहात्।। | 1-148-11a 1-148-11b |
ततस्तु कृतसन्नाहा यज्ञसेनसहोदराः। शरवर्षाणि मुञ्चन्तः प्रणेदुः सर्व एव ते।। | 1-148-12a 1-148-12b |
ततो रथेन शुभ्रेण समासाद्य तु कौरवान्। यज्ञसेनः शरान्घोरान्ववर्ष युधि दुर्जयः।। | 1-148-13a 1-148-13b |
पूर्वमेव तु संमन्त्र्य पार्थो द्रोणमथाऽब्रवीत्। दर्पोद्रेकात्कुमाराणामाचार्यं द्विजसत्तमम्।। | 1-148-14a 1-148-14b |
एषां पराक्रमस्यान्ते वयं कुर्याम साहसम्। एतैरशक्यः पाञ्चालो ग्रहीतुं रणमूर्धनि।। | 1-148-15a 1-148-15b |
एवमुक्त्वा तु कौन्तेयो भ्रातृभिः सहितोऽनघः। अर्धक्रोशे तु नगरादतिष्ठद्बहिरेव सः।। | 1-148-16a 1-148-16b |
द्रुपदः कौरवान्दृष्ट्वा प्राधावत समन्ततः। शरजालेन महता मोहयन्कौरवीं चमूम्।। | 1-148-17a 1-148-17b |
तमुद्यतं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे। अनेकमिव सन्त्रासान्मेनिरे तत्र कौरवाः।। | 1-148-18a 1-148-18b |
द्रुपदस्य शरा घोरा विचेरुः सर्वतोदिशम्। ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्च सहस्रशः।। | 1-148-19a 1-148-19b |
प्रावाद्यन्त महाराज पञ्चालानां निवेशने। सिंहनादश्च संजज्ञे पञ्चालानां महात्मनाम्।। | 1-148-20a 1-148-20b |
धनुर्ज्यातलशब्दश्च संस्पृश्य गगनं महान्। दुर्योधनो विकर्णश्च सुबाहुर्दीर्घलोचनः।। | 1-148-21a 1-148-21b |
दुःशाशनश्च संक्रुद्धः शरवर्षैरवाकिरन्। सोऽतिविद्धो महेष्वासः पार्षतो युधि दुर्जयः।। | 1-148-22a 1-148-22b |
व्यधमत्तान्यनीकानि तत्क्षणादेव भारत। दुर्योधनं विकर्णं च कर्णं चापि महाबलम्।। | 1-148-23a 1-148-23b |
नानानृपसुतान्वीरान्सैन्यानि विविधानि च। अलातचक्रवत्सर्वं चरन्बाणैरतर्पयत्।। | 1-148-24a 1-148-24b |
ततस्तु नागराः सर्वे मुसलैर्यष्टिभिस्तदा। अभ्यवर्षन्त कौरव्यान्वर्षमाणा घा इव।। | 1-148-25a 1-148-25b |
सबालवृद्धाः काम्पिल्याः कौरवानभ्ययुस्तदा। श्रुत्वा सुतुमुलं युद्धं कौरवानेव भारत।। | 1-148-26a 1-148-26b |
द्रवन्तिस्म नदन्तिस्म क्रोशन्तः पाण्डवान्प्रति। पाडवास्तु स्वनं श्रुत्वा आर्तानां रोमहर्षणम्।। | 1-148-27a 1-148-27b |
अभिवाद्य ततो द्रोणं रथानारुरुहुस्तदा। युधिष्ठिरं निवार्याशु मा युध्यस्वेति पाण्डवम्।। | 1-148-28a 1-148-28b |
माद्रेयौ चक्ररक्षौ तु फाल्गुनश्च तदाऽकरोत्। सेनाग्रगो भीमसेनस्तदाभूद्गदया सह।। | 1-148-29a 1-148-29b |
तदा शत्रुस्वनं श्रुत्वा भ्रातृभिः सहितोऽनघः। आयाज्जवेन कौन्तेयो रथेनानादयन्दिशः।। | 1-148-30a 1-148-30b |
पञ्चालानां ततः सेनामुद्धूतार्णवनिःस्वनाम्। भीमसेनो महाबाहुर्दण्डपाणिरिवान्तकः।। | 1-148-31a 1-148-31b |
प्रविवेश महासेनां मकरः सागरं यथा। `चतुरङ्गबलाकीर्णे ततस्तस्मिन्रणोत्सवे।।' | 1-148-32a 1-148-32b |
स्वयमभ्यद्रवद्भीमो नागानीकं गदाधरः।। | 1-148-33a |
स युद्धकुशलः पार्थो बाहुवीर्येण चातुलः। अहनत्कुञ्जरानीकं गदया कालरूपधृक्।। | 1-148-34a 1-148-34b |
ते गजा गिरिसङ्काशाः क्षरन्तो रुधिरं बहु। भीमसेनस्य गदया भिन्नमस्तकपिण्डकाः।। | 1-148-35a 1-148-35b |
पतन्ति द्विरदा भूमौ वज्रघातादिवाचलाः। गजानश्वान्रथांश्चैव पातयामास पाण्डवः।। | 1-148-36a 1-148-36b |
पदातींश्च रथांश्चैव न्यवधीदर्जुनाग्रजः। गोपाल इव दण्डेन यथा पशुगणान्वने।। | 1-148-37a 1-148-37b |
चालयन्रथनागांश्च संचचाल वृकोदरः। भारद्वाजप्रियं कर्तुमुद्यतः फाल्गुनस्तदा।। | 1-148-38a 1-148-38b |
पार्षतं शरजालेन क्षिपन्नागात्स पाण्डवः। हयौघांश्च रथौघांश्च गजौघांश्च समन्ततः।। | 1-148-39a 1-148-39b |
पातयन्समरे राजन्युगान्ताग्रिरिव ज्वलन्। ततस्ते हन्यमाना वै पञ्चालाः सृञ्जयास्तथा।। | 1-148-40a 1-148-40b |
शरैर्नानाविधैस्तूर्णं पार्थं संछाद्य सर्वशः। सिंहनादं मुखैः कृत्वा समयुध्वन्त पाण्डवम्।। | 1-148-41a 1-148-41b |
तद्युद्धमभवद्धोरं समुहाद्भुतदर्शनम्। सिंहनादस्वनं श्रुत्वा नामृष्यत्पाकशासनिः।। | 1-148-42a 1-148-42b |
ततः किरीटी सहसा पञ्चालान्समरेऽद्रवत्। छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव।। | 1-148-43a 1-148-43b |
शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान्संदधानस्य चानिशम्। नान्तरं ददृशे किंचित्कौन्तेयस्य यशस्विनः।। | 1-148-44a 1-148-44b |
`न दिशो नान्तरिक्षं च तदा नैव च मेदिनी। अदृश्यत महाराज तत्र किंचिन्न सङ्गरे।। | 1-148-45a 1-148-45b |
पाञ्चालानां कुरूणां च साधुसाध्विति निस्वनः। तत्र तूर्यनिनादश्च शङ्खानां च महास्वनः।।' | 1-148-46a 1-148-46b |
सिंहनादश्च संजज्ञे साधुशब्देन मिश्रितः। ततः पाञ्चालराजस्तु तथा सत्यजिता सह।। | 1-148-47a 1-148-47b |
त्वरमाणोऽभिदुद्राव महेन्द्रं शम्बरो यथा। महता शरवर्षेण पार्थः पाञ्चालमावृणोत्।। | 1-148-48a 1-148-48b |
ततो हलहलाशब्द आसीत्पाञ्चालके बले। जिवृक्षति महासिंहे गजानामिव यूथपम्।। | 1-148-49a 1-148-49b |
दृष्ट्वा पार्थं तदायान्तं सत्यजित्सत्यविक्रमः। पाञ्चालं वै परिप्रेप्सुर्धनञ्जयमदुद्रुवत्।। | 1-148-50a 1-148-50b |
ततस्त्वर्जुनपाञ्चालौ युद्धाय समुपागतौ। व्यक्षोभयेतां तौ सैन्यमिन्द्रवैरोचनाविव।। | 1-148-51a 1-148-51b |
ततः सत्यजितं पार्थो दशभिर्मर्मभेदिभिः। विव्याध बवलद्गाढं तदद्भुतमिवाभवत्।। | 1-148-52a 1-148-52b |
ततः शरशतैः पार्थं पाञ्चालः शीघ्रमार्दयत्। पार्थस्तु शरवर्षेण च्छाद्यमानो महारथः।। | 1-148-53a 1-148-53b |
वेगं चक्रे महावेगो धनुर्ज्यामवमृज्य च। ततः सत्यजितश्चापं छित्वा राजानमभ्ययात्।। | 1-148-54a 1-148-54b |
अथान्यद्धनुरादाय सत्यजिद्वेगवत्तरम्। साश्वं ससूतं सरथं पार्थं विव्याध सत्वरः।। | 1-148-55a 1-148-55b |
स तं न ममृषे पार्थः पाञ्चालेनार्दितो युधि। ततस्तस्य विनाशार्थं सत्वरं व्यसृजच्छरान्।। | 1-148-56a 1-148-56b |
हयान्ध्वजं धनुर्मुष्टिमुभौ तौ पार्ष्णिसारथी। स तथा भिद्यमानेषु कार्मुकेषु पुनः पुनः।। | 1-148-57a 1-148-57b |
हयेषु विनिकृत्तेषु विमुखोऽभवदाहवे। स सत्यजितमालेक्य तथा विमुखमाहवे।। | 1-148-58a 1-148-58b |
वेगेन महता राजन्नभ्यधावत पार्षतम्। तदा चक्रे महद्युद्धमर्जुनो जयतां वरः।। | 1-148-59a 1-148-59b |
तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा ध्वजं चोर्व्यामपातयत्। पञ्चभिस्तस्य विव्याध हयान्सूतं च सायकैः।। | 1-148-60a 1-148-60b |
तत उत्सृज्य तच्चापमाददानः शरावरम्। खड्गमुद्धृत्य कौन्तेयः सिंहनादमथाकरोत्।। | 1-148-61a 1-148-61b |
पाञ्चालस्य रथस्येषामाप्लुत्य सहसाऽपतत्। पाञ्चालरथमास्थाय अवित्रस्तो धनञ्जयः।। | 1-148-62a 1-148-62b |
विक्षोभ्याम्भोनिधिंतार्क्ष्यस्तंनागमिव सोऽग्रहीत्। ततस्तु सर्वपाञ्चाला विद्रवन्ति दिशो दश।। | 1-148-63a 1-148-63b |
दर्शयन्सर्वसैन्यानां स बाह्वोर्बलमात्मनः। सिंहनादस्वनं कृत्वा निर्जगाम धनञ्जयः।। | 1-148-64a 1-148-64b |
आयान्तमर्जुनं दृष्ट्वा कुमाराः सहितास्तदा। ममृदुस्तस्य नगरं द्रुपदस्य महात्मनः।। | 1-148-65a 1-148-65b |
अर्जुन उवाच। | 1-148-66x |
संबन्धी कुरुवीराणां द्रुपदो राजसत्तमः। मा वधीस्तद्बलं भीम गुरुदानं प्रदीयताम्।। | 1-148-66a 1-148-66b |
वैशंपायन उवाच। | 1-148-67x |
भीमसेनस्तदा राजन्नर्जुनेन निवारितः। अतृप्तो युद्धधर्मेषु न्यवर्तत महाबलः।। | 1-148-67a 1-148-67b |
ते यज्ञसेनं द्रुपदं गृहीत्वा रणमूर्धनि। उपाजग्मुः सहामात्यं द्रोणाय भरतर्षभ।। | 1-148-68a 1-148-68b |
भग्नदर्पं हृतधनं तं तथा वशमागतम्। स वैरं मनसा ध्यात्वा द्रोणो द्रुपदमब्रवीत्।। | 1-148-69a 1-148-69b |
विमृज्य तरसा राष्ट्रं पुरं ते मृदितं मया। प्राप्य जीवन्रिपुवशं सखिपूर्वं किमिष्यते।। | 1-148-70a 1-148-70b |
एवमुक्त्वा प्रहस्यैनं किंचित्स पुनरब्रवीत्। मा भैः प्राणभयाद्वीर क्षमिणो ब्राह्मणा वयम्।। | 1-148-71a 1-148-71b |
आश्रमे क्रीडितं यत्तु त्वया बाल्ये मया सह। तेन संवर्धितः स्नेहः प्रीतिश्च क्षत्रियर्षभ।। | 1-148-72a 1-148-72b |
प्रार्थयेयं त्वया सख्यं पुनरेव जनाधिप। वरं ददामि ते राजन्राज्यस्यार्धमवाप्नुहि।। | 1-148-73a 1-148-73b |
अराजा किल नो राज्ञः सखा भवितुमर्हति। अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव।। | 1-148-74a 1-148-74b |
राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे। सखायं मां विजानीहि पाञ्चाल यदि मन्यसे।। | 1-148-75a 1-148-75b |
द्रुपद उवाच। | 1-148-76x |
अनाश्चर्यमिदं ब्रह्मन्विक्रान्तेषु महात्मसु। प्रीये त्वयाऽहं त्वत्तश्च प्रीतिमिच्छामि शाश्वतीम्।। | 1-148-76a 1-148-76b |
वैशंपायन उवाच। | 1-148-77x |
एवमुक्तः स तं द्रोणो मोक्षयामास भारत। सत्कृत्य चैनं प्रीतात्मा राज्यार्धं प्रत्यपादयत्।। | 1-148-77a 1-148-77b |
माकन्दीमथ गङ्गायास्तीरे जनपदायुताम्। सोऽध्यावसद्दीनमनाः काम्पिल्यं च पुरोत्तमम्।। | 1-148-78a 1-148-78b |
दक्षिणांश्चापि पञ्चालान्यावच्चर्मण्वती नदी। द्रोणेन चैवं द्रुपदः परिभूयाथ पालितः।। | 1-148-79a 1-148-79b |
क्षात्रेण च बलेनास्य नापश्यत्स पराजयम्। हीनं विदित्वा चात्मानं ब्राह्मेण स बलेनतु।। | 1-148-80a 1-148-80b |
पुत्रजन्म परीप्सन्वै पृथिवीमन्वसंचरत्। अहिच्छत्रं च विषयं द्रोणः समभिपद्यत।। | 1-148-81a 1-148-81b |
एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरीजनपदायुता। युधि निर्जित्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता।। | 1-148-82a 1-148-82b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 148 ।। |
1-148-61 शरावरं चर्म।। 1-148-62 ईषा रथस्य युगचक्रसंलग्नं महादारु।। 1-148-70 प्राप्य जीवन्नृप वशामिति ङपाठः।। अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 148 ।।
आदिपर्व-147 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-149 |