महाभारतम्-01-आदिपर्व-228
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पाण्डवानां समीपे नारदागमनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-228-1x |
एवं संप्राप्य राज्यं तदिन्द्रप्रस्थे तपोधन। अत ऊर्ध्वं नरव्याघ्राः किमकुर्वत पाण्डवाः।। | 1-228-1a 1-228-1b |
सर्व एव महात्मानः सर्वे मम पितामहाः। द्रौपदी धर्मपत्नी च कथं तानन्ववर्तत।। | 1-228-2a 1-228-2b |
कथमासुश्च कृष्णायामेकस्यां ते नरर्षभाः। वर्तमाना महाभागा नाभिद्यन्त परस्परम्।। | 1-228-3a 1-228-3b |
श्रोतुमिच्छाम्यहं तत्र विस्तरेण यथातथम्। तेषां चेष्टितमन्योन्यं युक्तानां कृष्णया सह।। | 1-228-4a 1-228-4b |
वैशंपायन उवाच। | 1-228-5x |
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञाता इन्द्रप्रस्थं प्रविश्य तत्। रेमिरे पुरुषव्याघ्राः कृष्णया सह पाण्डवाः।। | 1-228-5a 1-228-5b |
प्राप्य राज्यं महातेजाः सत्यसन्धो युधिष्ठिरः। पालयामास धर्मेण पृथिवीं भ्रातृभिः सह।। | 1-228-6a 1-228-6b |
जितारयो महात्मानः सत्यधर्मपरायणाः। एवं पुरमिदं प्राप्य तत्रोषुः पाण्डुनन्दनाः।। | 1-228-7a 1-228-7b |
कुर्वाणाः पौरकार्याणि सर्वाणि भरतर्षभाः। आसांचक्रुर्महार्हेषु पार्थिवेष्वासनेषु च।। | 1-228-8a 1-228-8b |
तेषु तत्रोपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु। आययौ धर्मराजं तु द्रष्टुकामोऽथ नारदः।। | 1-228-9a 1-228-9b |
`पथा नक्षत्रजुष्टेन सुपर्णाचरितेन च। चन्द्रसूर्यप्रकाशेन सेवितेन महर्षिभिः।। | 1-228-10a 1-228-10b |
नभस्स्थलेन दिव्येन दुर्लभेनातपस्विनाम्। भूतार्चितो भूतधरां राष्ट्रमन्दिरभूषिताम्।। | 1-228-11a 1-228-11b |
अवेक्षमाणो द्युतिमानाजगाम महातपाः। सर्ववेदान्तगो विप्रः सर्ववेदाङ्गपारगः।। | 1-228-12a 1-228-12b |
परेण तपसा युक्तो ब्राह्मेण तपसा वृतः। नये नीतौ च निस्तो विश्रुतश्च महामुनिः।। | 1-228-13a 1-228-13b |
परात्परतरं प्राप्तो धर्मान्समभिजग्मिवान्। भावितात्मा गतरजाः शान्तो मृदुर्ऋजुर्दिवजः।। | 1-228-14a 1-228-14b |
धर्मेणाधिगतः सर्वैर्देवदानवमानुषैः। क्षीणकर्मसु पापेषु भूतेषु विविधेषु च।। | 1-228-15a 1-228-15b |
सर्वथा कृतमर्यादो वेदेषु विविधेषु च। शतशः सोमपा यज्ञे पुण्ये पुण्यकृदग्निचित्।। | 1-228-16a 1-228-16b |
ऋक्सामयजुषां वेत्ता न्यायदृग्धर्मकोविदः। ऋजुरारोहबान्वृद्धो भूयिष्ठपथिकोऽनघः।। | 1-228-17a 1-228-17b |
श्लक्ष्णया शिखयोपेतः संपन्नः परमत्विषा। अवदाते च सूक्ष्मे च दिव्ये च रचिते शुभे।। | 1-228-18a 1-228-18b |
महेन्द्रदत्ते महती बिभ्रत्परमवाससी। जाम्बूनदमये दिव्ये गण्डूपदमुखे नवे।। | 1-228-19a 1-228-19b |
अग्न्यर्कसदृशे दिव्ये धारयन्कुण्डले शुभे। राजतच्छत्रमुच्छ्रित्य चित्रं परमवर्चसम्।। | 1-228-20a 1-228-20b |
प्राप्य दुष्प्रापमन्येन ब्रह्मवर्चसमुत्तमम्। भवने भूमिपालस्य बृहस्पतिरिवाप्लुतः।। | 1-228-21a 1-228-21b |
संहितायां च सर्वेषां स्थितस्योपस्थितस्य च। द्विपदस्य च धर्मस्य क्रमधर्मस्य पारगः।। | 1-228-22a 1-228-22b |
गाधा सामानुसामज्ञः साम्नां परमवल्गुनाम्। आत्मनः सर्वमोक्षिभ्यः कृतिमान्कृत्यवित्सदा।। | 1-228-23a 1-228-23b |
यजुर्धर्मैर्बहुविधैर्मतो मतिमतां वरः। विदितार्थः समश्चैव च्छेत्ता निगमसंशयान्।। | 1-228-24a 1-228-24b |
अर्थनिर्वचने नित्यं संशयच्छिदसंशयः। प्रकृत्या धर्मकुशलो दाता धर्मविशारदः।। | 1-228-25a 1-228-25b |
लोपेनागमधर्मेण संक्रमेण च वृत्तिषु। एकशब्दांश्च नानार्थानेकार्थांश्च पृथक्कृतान्।। | 1-228-26a 1-228-26b |
पृथगर्थाभिधानांश्च प्रयोगानन्ववेक्षिता। प्रमाणभूतो लोकेषु सर्वाधिकरणेषु च।। | 1-228-27a 1-228-27b |
सर्ववर्णविकारेषु नित्यं कुशलपूजितः। स्वरेऽस्वरे च विविधे वृत्तेषु विविधेषु च।। | 1-228-28a 1-228-28b |
समस्थानेषु सर्वेषु समाम्नायेषु धातुषु। उद्देश्यानां समाख्याता सर्वमाख्यातमुद्दिशन्।। | 1-228-29a 1-228-29b |
अभिसन्धिषु तत्त्वज्ञः पदान्यङ्गान्यनुस्मरन्। कालधर्मेण निर्दिष्टं यथार्थं च विचारयन्।। | 1-228-30a 1-228-30b |
चिकीर्षितं च यो वेत्ता यथा लोकेन संवृतम्। विभाषितं च समयं भाषितं हृदयंगमम्।। | 1-228-31a 1-228-31b |
आत्मने च परस्मै च स्वरसंस्कारयोगवित्। एषां स्वराणां ज्ञाता च बोद्धा प्रवचनः स्वराट्।। | 1-228-32a 1-228-32b |
विज्ञाता चोक्तवाक्यानामेकतां बहुतां तथा। बोद्धा हि परमार्थांश्च विविधांश्च व्यतिक्रमान्।। | 1-228-33a 1-228-33b |
अभेदतश्च बहुशो बहुशश्चापि भेदतः। वक्ता विविधवाक्यानां नानादेशसमीक्षिता।। | 1-228-34a 1-228-34b |
पञ्चागमांश्च विविधानादेशांश्च समीक्षिता। नानार्थकुशलस्तत्र तद्धितेषु च कृत्स्नशः।। | 1-228-35a 1-228-35b |
परिभूषयिता वाचां वर्णतः स्वरतोऽर्थतः। प्रत्ययं च समाख्याता नियतं प्रतिधातुकम्।। | 1-228-36a 1-228-36b |
पञ्च चाक्षरजातानि स्वरसंज्ञानि यानि च। तमागतमृषिं दृष्ट्वा प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च।।' | 1-228-37a 1-228-37b |
आसनं रुचिरं तस्मै प्रददौ स युधिष्ठिरः। `कृष्णाजिनोत्तरे तस्मिन्नुपविष्टो महानृषिः।।' | 1-228-38a 1-228-38b |
देवर्षेरुपविष्टस्य स्वयमर्ध्यं यथाविधि। प्रादाद्युधिष्ठिरो धीमान्राज्यं तस्मै न्यवेदयत्। प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिः प्रीतमनास्तदा।। | 1-228-39a 1-228-39b 1-228-39c |
आशीर्भिर्वर्धयित्वा च तमुवाचास्यतामिति। निषसादाभ्यनुज्ञातस्ततो राजा युधिष्ठिरः।। | 1-228-40a 1-228-40b |
प्रेषयामास कृष्णायै भगवन्तमुपस्थितम्। श्रुत्वैतद्द्रौपदी चापि शुचिर्भूत्वा समाहिता।। | 1-228-41a 1-228-41b |
जगाम तत्र यत्रास्ते नारदः पाण्डवैः सह। तस्याभिवाद्य चरणौ देवर्षेर्धर्मचारिणी।। | 1-228-42a 1-228-42b |
कृताञ्जलिः सुसंवीता स्थिताऽथ द्रुपदात्मजा। तस्याश्चापि स धर्मात्मा सत्यवागृषिसत्तमः।। | 1-228-43a 1-228-43b |
आशिषो विविधाः प्रोच्य राजपुत्र्यास्तु नारदः। गम्यतामिति होवाच भगवांस्तामनिन्दिताम्।। | 1-228-44a 1-228-44b |
गतायामथ कृष्णायां युधिष्ठिरपुरोगमान्। विविक्ते पाण्डवान्सर्वानुवाच भगवानृषिः।। | 1-228-45a 1-228-45b |
पाञ्चाली भवतामेका धर्मपत्नी यशस्विनी। यथा वो नात्र भेदः स्यात्तथा नीतिर्विधीयतां।। | 1-228-46a 1-228-46b |
सुन्दोपसुन्दौ हि पुरा भ्रातरौ सहितावुभौ। आस्तामवध्यावन्येषां त्रिषु लोकेषु विश्रुतौ।। | 1-228-47a 1-228-47b |
एकराज्यावेकगृहावेकशय्यासनाशनौ। तिलोत्तमायास्तौ हेतोरन्योन्यमभिजघ्नतुः।। | 1-228-48a 1-228-48b |
रक्ष्यतां सौहृदं तस्मादन्योन्यप्रीतिभावकम्। यथा वो नात्र भेदः स्यात्तत्कुरुष्व युधिष्ठिर।। | 1-228-49a 1-228-49b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-228-50x |
सुन्दोपसुन्दावसुरौ कस्य पुत्रौ महामुने। उत्पन्नश्च कथं भेदः कथं चान्योन्यमघ्नताम्।। | 1-228-50a 1-228-50b |
अप्सरा देवकन्या वै कस्य चैषा तिलोत्तमा। यस्याः कामेन संमत्तौ जघ्नतुस्तौ परस्परम्।। | 1-228-51a 1-228-51b |
एतत्सर्वं यथा वृत्तं विस्तरेण तपोधन। श्रोतुमिच्छामहे ब्रह्मन्परं कौतूहलं हि मे।। | 1-228-52a 1-228-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 228 ।। |
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