महाभारतम्-01-आदिपर्व-116
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माण्डव्योपाख्यानम्।। 1 ।।
राजाज्ञया माण्डव्यस्य शूलारोपणम्।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-116-1x |
किं कृतं कर्म धर्मेण येन शापमुपेयिवान्। कस्य शापाच्च ब्रह्मर्षेः शूद्रयोनावजायत।। | 1-116-1a 1-116-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-116-2x |
बभूव ब्राह्मणः कश्चिन्माण्डव्य इति विश्रुतः। धृतिमान्सर्वधर्मज्ञः सत्ये तपसि च स्थितः।। | 1-116-2a 1-116-2b |
`स तीर्थयात्रां विचरन्नाजगाम यदृच्छया। संनिकृष्टानि तीर्थानि ग्रामाणां यानि कानि च। तत्राश्रमपदं कृत्वा वसति स्म महामुनिः।।' | 1-116-3a 1-116-3b 1-116-3c |
स आश्रमपदद्वारि वृक्षमूले महातपाः। ऊर्ध्वबाहुर्महायोगी तस्थौ मौनव्रतान्वितः।। | 1-116-4a 1-116-4b |
तस्य कालेन महता तस्मिंस्तपसि वर्ततः। तमाश्रममनुप्राप्ता दस्यवो लोप्त्रहारिणः।। | 1-116-5a 1-116-5b |
अनुसार्यमाणा बहुभी रक्षिभिर्भरतर्षभ। `तामेव वसतिं जग्मुस्ते ग्रामाल्लोप्त्रहारिणः।। | 1-116-6a 1-116-6b |
यस्मिन्नावसथे शेते स मुनिः संशितव्रतः।' ते तस्यावसथे लोप्त्रं दस्यवः कुरुसत्तम।। | 1-116-7a 1-116-7b |
निधाय च भयाल्लीनास्तत्रैवानागते बले। तेषु लीनेष्वथो शीघ्रं ततस्तद्रक्षिणां बलम्।। | 1-116-8a 1-116-8b |
आजगाम ततोऽपश्यंस्तमृषिं तस्करानुगाः। तमपृच्छंस्ततो राजंस्तथावृत्तं तपोधनम्।। | 1-116-9a 1-116-9b |
कतरेण पथा याता दस्यवो द्विजसत्तम। तेन गच्छामहे ब्रह्मन्यथा शीघ्रतरं वयम्।। | 1-116-10a 1-116-10b |
तथा तु रक्षिमां तेषां ब्रुवतां स तपोधनः। न किंचिद्वचनं राजन्नब्रवीत्साध्वसाधु वा।। | 1-116-11a 1-116-11b |
ततस्ते राजपुरुषा विचिन्वानास्तमाश्रमम्। ददृशुस्तत्र लीनांस्तांश्चोरांस्तद्द्रव्यमेव च।। | 1-116-12a 1-116-12b |
ततः शङ्का समभवद्रक्षिणां तं मुनिं प्रति। संयम्यैनं ततो राज्ञे दस्यूंश्चैव न्यवेदयन्।। | 1-116-13a 1-116-13b |
तं राजा सह तैश्चोरैरन्वशाद्वध्यतामिति। स रक्षिभिस्तैरज्ञातः शूले प्रोतो महातपाः।। | 1-116-14a 1-116-14b |
ततस्ते शूलमारोप्य तं मुनिं रक्षिणस्तदा। प्रतिजग्मुर्महीपालं धनान्यादाय तान्यथ।। | 1-116-15a 1-116-15b |
शूलस्थः स तु धर्मात्मा कालेन महता ततः। निराहारोऽपि विप्रर्षिर्मरणं नाभ्यपद्यत।। | 1-116-16a 1-116-16b |
धारयामास च प्राणानृषींश्च समुपानयत्। शूलाग्रे तप्यमानेन तपस्तेन महात्मना।। | 1-116-17a 1-116-17b |
सन्तापं परमं जग्मुर्मुनयस्तपसाऽन्विताः। ते रात्रौ शकुना भूत्वा सन्निपत्त्य तु भारत। दर्शन्तो यथाशक्ति तमपृच्छन्द्विजोत्तमम्।। | 1-116-18a 1-116-18b 1-116-18c |
श्रोतुमिच्छामहे ब्रह्मन्किं पापं कृतवानसि। येनेह समनुप्राप्तं शूले दुःखभयं महत्।। | 1-116-19a 1-116-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 ।। |
1-116-1 कस्य कीदृशस्य।। 1-116-6 लोप्त्रं लुप्यत इति व्युत्पत्त्या चोरापहृतं धनम्।। 1-116-8 बले राजसैन्ये।। 1-116-13 संयम्य चोरवन्निगृह्य।। 1-116-14 प्रोतोऽर्पितः।। 1-116-17 समुपानयात् स्वसमीपमिति शेषः।। 1-116-18 दर्शयन्तः स्वानि रूपामि प्रकाशयन्तः।। षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 ।।
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