महाभारतम्-01-आदिपर्व-186
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अर्धरात्रे पाण्डवानां गङ्गातीरगमनम्।। 1 ।।
तत्र स्त्रीभिः सह जलक्रीडां कुर्वता चित्ररथेन गन्धर्वेण सह अर्जुनस्य युद्धम्।। 2 ।।
आग्नेयास्त्रेण दग्धादधःपतितस्य तस्यार्जुनेन ग्रहणं।। 3 ।।
गन्धर्वपत्न्या प्रार्थितस्य युधिष्ठिरस्याज्ञया गन्धर्वमोचनम्।। 4 ।।
गन्धर्वप्रार्थनया आग्नेयास्त्रपरिवर्तनेन तस्माद्गान्धर्वास्त्रग्रहणानुमोदनम्।। 5 ।।
गन्धर्वेण पाण्डवानां पुरोहितसंपादनोपदेशः।। 6 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-186-1x |
ते प्रतस्थुः पुरस्कृत्य मातरं पुरुषर्षभाः। समैरुदङ्मुकैर्मार्गैर्यथोद्दिष्टं च भारत।। | 1-186-1a 1-186-1b |
अहोरात्रेणाभ्यगच्छन्पाञ्चालनगरं प्रति। अभ्याजग्मुर्लोकनदीं गङ्गां भागीरथीं प्रति।। | 1-186-2a 1-186-2b |
चन्द्रास्तमयवेलायामर्धरात्रसमागमे। वारि चैवानुमज्जन्तस्तीर्थं सोमाश्रयायणम्। | 1-186-3a 1-186-3b |
आसेदुः पुरुषव्याघ्रा गङ्गायां पाण्डुनन्दनाः।। उल्मुकं तु समुद्यम्य तेषामग्रे धनञ्जयः। | 1-186-4a 1-186-4b |
प्रकाशार्थं ययौ तत्र रक्षार्थं च महारथः।। तत्र गङ्गाजले रम्ये विविक्ते क्रीडयन् स्त्रियः। | 1-186-5a 1-186-5b |
शब्दं तेषां स शुश्राव नदीं समुपसर्पताम्। तेन शब्देन चाविष्टश्चुक्रोध बलवद्बली।। | 1-186-6a 1-186-6b |
स दृष्ट्वा पाण्डवांस्तत्र सह मात्रा परन्तपान्। विष्फारयन्धनुर्घोरमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-186-7a 1-186-7b |
सन्ध्या संरज्यते घोरा पूर्वरात्रागमेषु या। अशीतिभिर्लवैर्हीनं तन्मुहूर्तं प्रचक्षते।। | 1-186-8a 1-186-8b |
विहितं कामचाराणां यक्षगन्धर्वरक्षसाम्। शेषमन्यन्मनुष्याणां कर्मचारेषु वै स्मृतम्।। | 1-186-9a 1-186-9b |
लोभात्प्रचारं चरतस्तासु वेलासु वै नरान्। उपक्रान्ता निगृह्णीमो राक्षसैः सह बालिशान्।। | 1-186-10a 1-186-10b |
अतो रात्रौ प्राप्नुवतो जलं ब्रह्मविदो जनाः। गर्हयन्ति नरान्सर्वान्बलस्थान्नृपतीनपि।। | 1-186-11a 1-186-11b |
आराच्च तिष्ठतास्माकं समीपं नोपसर्पत। कस्मान्मां नाभिजानीत प्राप्तं भागीरथीजलम्।। | 1-186-12a 1-186-12b |
अङ्गारपर्णं गन्धर्वं वित्त मां स्वबलाश्रयम्। अहं हि मानी चेर्ष्युश्च कुबेरस्य प्रियः सखा।। | 1-186-13a 1-186-13b |
अङ्गारपर्णमित्येवं ख्यातं चेदं वनं मम। अनुगङ्गं चरन्कामांश्चित्रं यत्र रमाम्यहम्।। | 1-186-14a 1-186-14b |
न कौणपाः शृङ्गिणो वा न देवा न च मानुषाः। कुबेरस्य यथोष्णीषं किं मां समुपसर्पथ।। | 1-186-15a 1-186-15b |
अर्जुन उवाच। | 1-186-16x |
समुद्रे हिमवत्पार्श्वे नद्यामस्यां च दुर्मते। रात्रावहनि सन्ध्यायां कस्य क्लृप्तः परिग्रहः।। | 1-186-16a 1-186-16b |
भुक्तो वाऽप्यथ वाऽभुक्तो रात्रावहनि खेचर। न कालनियमो ह्यस्ति गङ्गां प्राप्य सरिद्वरां।। | 1-186-17a 1-186-17b |
वयं च शक्तिसम्पन्ना अकाले त्वामधृष्णुम। अशक्ता हि रणे क्रूर युष्मानर्चन्ति मानवाः।। | 1-186-18a 1-186-18b |
पुरा हिमवतश्चैषा हेमशृङ्गाद्विनिःसृता। गङ्गा गत्वा समुद्राम्भः सप्तधा समपद्यत।। | 1-186-19a 1-186-19b |
गङ्गां च यमुनां चैव प्लक्षजातां सरस्वतीम्। रथस्थां सरयूं चैव गोमतीं गण्डकीं तथा।। | 1-186-20a 1-186-20b |
अपर्युषितपापास्ते नदीः सप्त पिबन्ति ये। इयं भूत्वा चैकवप्रा शुचिराकाशगा पुनः।। | 1-186-21a 1-186-21b |
देवेषु गङ्गा गन्धर्व प्राप्नोत्यलकनन्दताम्। तथा पितॄन्वैतरणी दुस्तरा पापकर्मभिः। गङ्गा भवति वै प्राप्य कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 1-186-22a 1-186-22b 1-186-22c |
असम्बाधा देवनदी स्वर्गसंपादनी शुभा। कथमिच्छसि तां रोद्धुं नैष धर्मः सनातनः।। | 1-186-23a 1-186-23b |
अनिवार्यमसम्बाधं तव वाचा कथं वयम्। न स्पृशेम यथाकामं पुण्यं भागीरथीजलम्।। | 1-186-24a 1-186-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-186-25x |
अङ्गारपर्णस्तच्छ्रुत्वा क्रुद्ध आनाम्य कार्मुकम्। मुमोच बाणान्निशितानहीनाशीविषानिव।। | 1-186-25a 1-186-25b |
उल्मुकं भ्रामयंस्तूर्णं पाण्डवश्चर्म चोत्तरम्। व्यपोहत शरांस्तस्य सर्वानेव धनञ्जयः।। | 1-186-26a 1-186-26b |
अर्जुन उवाच। | 1-186-27x |
बिभीषिका वै गन्धर्व नास्त्रज्ञेषु प्रयुज्यते। अस्त्रज्ञेषु प्रयुक्तेयं फेनवत्प्रविलीयते।। | 1-186-27a 1-186-27b |
मानुषानति गन्धर्वान्सर्वान् गन्धर्व लक्षये। तस्मादस्त्रेण दिव्येन योत्स्येऽहं न तु मायया।। | 1-186-28a 1-186-28b |
पुराऽस्त्रमिमाग्नेयं प्रादात्किल बृहस्पतिः। भरद्वाजाय गन्धर्व गुरुर्मान्यः शतक्रतोः।। | 1-186-29a 1-186-29b |
भरद्वजादग्निवेश्य अग्निवेश्याद्गुरुर्मम। साध्विदं मह्यमददद्द्रोणो ब्राह्मणसत्तमः।। | 1-186-30a 1-186-30b |
वैशंपायन उवाच। | 1-186-31x |
इत्युक्त्वा पाण्डवः क्रुद्धो गन्धर्वाय मुमोच ह। प्रदीप्तमस्त्रमाग्नेयं ददाहास्य रथं तु तत्।। | 1-186-31a 1-186-31b |
विरथं विप्लुतं तं तु स गन्धऱ्वं महाबलः। अस्त्रतेजःप्रमूढं च प्रपतन्तमवाङ्मुखम्।। | 1-186-32a 1-186-32b |
शिरोरुहेषु जग्राह माल्यवत्सु धनञ्जयः। भ्रातॄन्प्रति चकर्षाथ सोऽस्त्रपातादचेतसम्।। | 1-186-33a 1-186-33b |
युधिष्ठिरं तस्य भार्या प्रपेदे शरणार्थिनी। नाम्ना कुम्भीनसी नाम पतित्राणमभीप्सती।। | 1-186-34a 1-186-34b |
गन्धर्व्युवाच। | 1-186-35x |
त्रायस्व मां महाभाग पतिं चेमं विमुञ्च मे। गन्धर्वी शरणं प्राप्ता नाम्ना कुम्भीनसी प्रभो।। | 1-186-35a 1-186-35b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-186-36x |
युद्धे जितं यशोहीनं स्त्रीनाथमपराक्रमम्। को निहन्याद्रिपुं तात मुञ्चेमं रिपुसूदन।। | 1-186-36a 1-186-36b |
अर्जुन उवाच। | 1-186-37x |
जीवितं प्रतिपद्यस्व गच्छ गन्धर्व मा शुचः। प्रदिशत्यभयं तेऽद्य कुरुराजो युधिष्ठिरः।। | 1-186-37a 1-186-37b |
गन्धर्व उवाच। | 1-186-38x |
जितोऽहं पूर्वकं नाम मुञ्चाम्यङ्गारपर्णताम्। यशोहीनं न च श्लाघ्यं स्वं नाम जनसंसदि।। | 1-186-38a 1-186-38b |
साध्विमं लब्धवाँल्लाभं योऽहं दिव्यास्त्रधारिणम्। गान्धर्व्या माययेच्छामि संयोजयितुमर्जुनम्।। | 1-186-39a 1-186-39b |
अस्त्राग्निना विचित्रोऽयं दग्धो मे रथ उत्तमः। सोऽहं चित्ररथो भूत्वा नाम्ना दग्धरथोऽभवं।। | 1-186-40a 1-186-40b |
संभृता चैव विद्येयं तपसेह मया पुरा। निवेदयिष्ये तामद्य प्राणदाय महात्मने।। | 1-186-41a 1-186-41b |
संस्तम्भयित्वा तरसा जितं शरणमागतम्। यो रिपुं योजयेत्प्राणैः कल्याणं किं न सोऽर्हति।। | 1-186-42a 1-186-42b |
चाक्षुषी नाम विद्येयं यां सोमाय ददौ मनुः। ददौ स विश्वावसवे मम विश्वावसुर्ददौ।। | 1-186-43a 1-186-43b |
सेयं कापुरुषं प्राप्ता गुरुदत्ता प्रणश्यति। आगमोऽस्या मया प्रोक्तो वीर्यं प्रतिनिबोध मे।। | 1-186-44a 1-186-44b |
यच्चक्षुषा द्रष्टुमिच्छेत्रिषु लोकेषु किंचन। तत्पश्येद्यादृशं चेच्छेत्तादृशं द्रष्टुमर्हति।। | 1-186-45a 1-186-45b |
एकपादेन षण्मासान्स्थितो विद्यां लभेदिमाम्। अनुनेष्याम्यहं विद्यां स्वयं तुभ्यं व्रते कृते।। | 1-186-46a 1-186-46b |
विद्यया ह्यनया राजन्वयं नृभ्यो विशेषिताः। अविशिष्टाश्च देवानामनुभावप्रदर्शिनः।। | 1-186-47a 1-186-47b |
गन्धर्वजानामश्वानामहं पुरुषसत्तम। भ्रातृभ्यस्तव तुभ्यं च पृथग्दाता शतं शतं।। | 1-186-48a 1-186-48b |
देवगन्धर्ववाहास्ते दिव्यवर्णा मनोजवाः। क्षीणाक्षीणा भवन्त्येते न हीयन्ते च रंहसः।। | 1-186-49a 1-186-49b |
पुरा कृतं महेन्द्रस्य वज्रं वृत्रनिबर्हणम्। दशधा शतधा चैव तच्छीर्णं वृत्रमूर्धनि।। | 1-186-50a 1-186-50b |
ततो भागीकृतो देवैर्वज्रभाग उपास्यते। लोके यशोधनं किंचित्सैव वज्रतनुः स्मृता।। | 1-186-51a 1-186-51b |
वज्रपाणिर्ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रं वज्ररथं स्मृतम्। वैश्या वै दानवज्राश्च कर्मवज्रा यवीयसः।। | 1-186-52a 1-186-52b |
क्षत्रवज्रस्य भागेन अवध्या वाजिनः स्मृताः। रथाङ्गं वडबा सूते शूराश्चाश्वेषु ये मताः।। | 1-186-53a 1-186-53b |
कामवर्णाः कामजवाः कामतः समुपस्थिताः। इति गन्धर्वजाः कामं पूरयिष्यन्ति मे हयाः।। | 1-186-54a 1-186-54b |
अर्जुन उवाच। | 1-186-55x |
यदि प्रीतेन मे दत्तं संशये जीवितस्य वा। विद्याधं श्रुतं वाऽपि न तद्गन्धर्व रोचये।। | 1-186-55a 1-186-55b |
गन्धर्व उवाच। | 1-186-56x |
संयोगो वै प्रीतिकरो महत्सु प्रतिदृश्यते। जीवितस्य प्रदानेन प्रीतो विद्यां ददामि ते।। | 1-186-56a 1-186-56b |
त्वत्तोऽप्यहं ग्रहीष्यामि अस्त्रमाग्नेयमुत्तमम्। तथैव योग्यं बीभत्सो चिराय मरतर्षभ।। | 1-186-57a 1-186-57b |
अर्जुन उवाच। | 1-186-58x |
त्वत्तोऽस्त्रेण वृणोम्यश्वान्संयोगः शास्वतोऽस्तुनौ। सखे तद्ब्रूहि गन्धर्व युष्मभ्यो यद्भयं भवेत्।। | 1-186-58a 1-186-58b |
कारणं ब्रूहि गन्धर्व किं तद्येन स्म धर्षिताः। यान्तो वेदविदः सर्वे सन्तो रात्रावरिन्दमाः।। | 1-186-59a 1-186-59b |
गन्धर्व उवाच। | 1-186-60x |
अनग्नयोऽनाहुतयो न च विप्रपुरस्कृताः। यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया वै पाण्डुनन्दनाः।। | 1-186-60a 1-186-60b |
`यक्षराक्षसगन्धर्वपिशाचपतगोरगाः। धर्षन्ति नरव्याघ्र न ब्राह्मणपुरस्कृतान्।। | 1-186-61a 1-186-61b |
जानतापि मया तस्मात्तेजश्चाभिजनं च वः। इयमग्निमतां श्रेष्ठ धर्षिता वै पुरागतिः।। | 1-186-62a 1-186-62b |
को हि वस्त्रिषु लोकेषु न वेद भरतर्षभ। स्वैर्गुणैर्विस्तृतं श्रीमद्यशोऽग्र्यं भूरिवर्चसाम्'।। | 1-186-63a 1-186-63b |
यक्षराक्षसगन्धर्वाः पिशाचोरगदानवाः। विस्तरं कुरुवंशस्य धीमन्तः कथयन्ति ते।। | 1-186-64a 1-186-64b |
नारदप्रभृतीनां तु देवर्षीणां मया श्रुतम्। गुणान्कथयतां वीर पूर्वेषां तव धीमताम्।। | 1-186-65a 1-186-65b |
स्वयं चापि मया दृष्टश्चरता सागराम्बराम्। इमां वसुमतीं कृत्स्नां प्रभावः सुकुलस्य ते।। | 1-186-66a 1-186-66b |
वेदे धनुषि चाचार्यमभिजानामि तेऽर्जुन। विश्रुतं त्रिषु लोकेषु भारद्वाजं यशस्विनम्।। | 1-186-67a 1-186-67b |
`सर्ववेदविदां श्रेष्ठं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। द्रोणमिष्वस्त्रकुशलं धनुष्यह्गिरसां वरम्।।' | 1-186-68a 1-186-68b |
धर्मं वायुं च शक्रं च विजानाम्यश्विनौ तथा। पाण्डुं च कुरुशार्दूल षडेतान्कुरुवर्धनान्। पितॄनेतानहं पार्थ देवमानुषसत्तमान्।। | 1-186-69a 1-186-69b 1-186-69c |
दिव्यात्मानो महात्मानः सर्वशस्त्रभृतां वराः। भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।। | 1-186-70a 1-186-70b |
उत्तमां च मनोबुद्धिं भवतां भावितात्मनाम्। जानन्नपि च वः पार्थ कृतवानिह धर्षणाम्।। | 1-186-71a 1-186-71b |
स्त्रीसकाशे च कौरव्य न पुमान्क्षन्तुमर्हति। धर्षणामात्मनः पश्यन्ब्राहुद्रविणमाश्रितः।। | 1-186-72a 1-186-72b |
नक्तं च बलमस्माकं भूय एवाभिवर्धते। यतस्ततो मां कौन्तेय सदारं मन्युराविशत्।। | 1-186-73a 1-186-73b |
सोऽहं त्वयेह विजितः सङ्ख्ये तापत्यवर्धन। येन तेनेह विधिना कीर्त्यमानं निबोध मे।। | 1-186-74a 1-186-74b |
ब्रह्मचर्यं परो धर्मः स चापि नियतस्त्वयि। यस्मात्तस्मादहं पार्थ रणे।ञस्मि विजितस्त्वया।। | 1-186-75a 1-186-75b |
यस्तु स्यात्क्षत्रियः कश्चित्कामवृत्तः परन्तप। नक्तं च युधि युध्येत न स जीवेत्कथंचन।। | 1-186-76a 1-186-76b |
यस्तु स्यात्कामवृत्तोऽपि पार्थ ब्रह्मपुरस्कृतः। जयेन्नक्तञ्चरान्सर्वान्स पुरोहितधूर्गतः।। | 1-186-77a 1-186-77b |
तस्मात्तापत्य यत्किंचिन्नृणां श्रेय इहेप्सितम्। तस्मिन्कर्मणि योक्तव्या दान्तात्मानः पुरोहिताः।। | 1-186-78a 1-186-78b |
वेदे षडङ्गे निरताः शुचयः सत्यवादिनः। धर्मात्यागः कृतात्मानः स्युर्नृपाणां पुरोहिताः।। | 1-186-79a 1-186-79b |
जयश्च नियतो राज्ञः स्वर्गश्च तदनन्तरम्। यस्य स्याद्धर्मविद्वाग्मी पुरोधाः शीलवाञ्शुचिः।। | 1-186-80a 1-186-80b |
लाभं लब्धुमलब्धं वा लब्धं वा परिरक्षितुम्। पुरोहितं प्रकुर्वीत राजा गुणसमन्वितम्।। | 1-186-81a 1-186-81b |
पुरोहितमते तिष्ठेद्य इच्छेद्भूतिमात्मनः। प्राप्तुं वसुमतीं सर्वां सर्वशः सागराम्बराम्।। | 1-186-82a 1-186-82b |
न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च। जयेदब्राह्मणः कश्चिद्भूमिं भूमिपतिः क्वचित्।। | 1-186-83a 1-186-83b |
तस्मादेवं विजानीहि कुरूणां वंशवर्धन। ब्राह्मणप्रमुखं राज्यं शक्यं पालयितुं चिरम्।। | 1-186-84a 1-186-84b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 186 ।। |
1-186-3 सोमाश्रयश्चन्द्रधरो रुद्रस्तस्य स्थानं सोमाश्रयायणम्।। 1-186-8 पूर्वरात्रागमेषु पश्चिमायां दिशि अर्धास्तमितार्कमण्डलरूपा या संध्या संरज्यते रक्ता भवति तस्यां मुहूर्तं प्रस्थानकालमशीतिभिर्लवैर्निमेषार्धैर्हीनं प्रचक्षते।। 1-186-9 तदेव मुहूर्तं यक्षादीनां कर्मचारेषु विहितमन्यन्मनुष्याणां कर्मचारेषु स्मृतमित्यन्वयः। संध्यायामशीतिलवोपरि रात्रौ यक्षादीनामेव संचारकालः अन्यदहर्मनुष्याणामित्यर्थः।। 1-186-15 शृङ्गिणः अभिचारिकाः।। 1-186-21 एकवप्रा एकमाकाशरूपं वप्रं यस्याः सा।। 1-186-36 स्त्री नाथो रक्षिता यस्य तम्।। 1-186-38 अङ्गारवद्भास्वरं दुःस्पर्शं च पर्णं वाहनं रथो यस्य सोऽङ्गारपर्णस्तस्य भावस्तत्ताम्।। 1-186-41 क्षीणाश्चाऽक्षीणाश्च क्षीणाक्षीणाः वृद्धास्तरुणा वा एते न भवन्ति रंहसो वेगाच्च न हीयन्ते इति नकारानुषङ्गेण योज्यम्। क्षीणे क्षीणे इति घ. पाठः।। 1-186-51 तस्य भागः पृथग्भूतः सर्वैर्भूतैदपास्यते इति ङ. पाठः।। 1-186-52 वज्रपाणिः पाणिः वज्रं यस्य स। एवमेव वज्ररथमित्यपि।। 1-186-53 रथाङ्गं च तथा सूतो धनुश्च भरतर्षभ इति ङ. पाठः।। 1-186-57 तथैव सख्यं बीभत्सो इति ङ. पाठः।। 1-186-58 अस्त्रेणास्त्रं वृणे त्वत्तः यद्भयं त्यजेत् इति ङ. पाठः।। 1-186-60 अनग्नयो दारहीनत्वात्। अनाहुतयः समावृतत्वात्। आश्रमविंशेषहीनो ब्राह्मणो धर्षणीय इत्यर्थः।। 1-186-76 कायवृद्यः कृतदारः।। 1-186-81 लाभं लब्धव्यं धनं। अलब्धस्य च लाभाय लब्धस्य परिरक्षणे इति ङ. पाठः।। षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 186 ।।
आदिपर्व-185 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-187 |