महाभारतम्-01-आदिपर्व-203
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धनुरारोपणार्थमुत्थितमर्जुनंप्रति ब्राह्मणानां शुभाशंसनम्।। 1 ।।
अर्जुनेन धनुरारोपणपूर्वकं लक्ष्यवेधः।। 2 ।।
द्रौपद्या अर्जुनकण्ठे मालाप्रक्षेपः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-203-1x |
यदा निवृत्ता राजानो धनुषः सज्यकर्मणः। अथोदतिष्ठद्विप्राणां मध्याज्जिष्णुरुदारधीः।। | 1-203-1a 1-203-1b |
उदक्रोशन्विप्रमुख्या विधुन्वन्तोऽजिनानि च। दृष्ट्वा संप्रस्थितं पार्थमिन्द्रकेतुसमप्रभम्।। | 1-203-2a 1-203-2b |
केचिदासन्विमनसः केचिदासन्मुदान्विताः। आहुः परस्परं केचिन्निपुणा बुद्धिजीविनः।। | 1-203-3a 1-203-3b |
यत्कर्णशल्यप्रमुखैः क्षत्रियैर्लोकविश्रुतैः। नानतं बलवद्भिर्हि धनुर्वेदपरायणैः।। | 1-203-4a 1-203-4b |
तत्कथं त्वकृतास्त्रेण प्राणतो दुर्बलीयसा। वटुमात्रेण शक्यं हि सज्यं कर्तुं धनुर्द्विजाः।। | 1-203-5a 1-203-5b |
अवहास्या भविष्यन्ति ब्राह्मणाः सर्वराजसु। कर्मण्यस्मिन्नसंसिद्धे चापलादपरीक्षिते।। | 1-203-6a 1-203-6b |
यद्येष दर्पाद्धर्षाद्वाप्यथ ब्राह्मणचापलात्। प्रस्थितो धनुरायन्तुं वार्यतां साधु मा गमत्।। | 1-203-7a 1-203-7b |
नावहास्या भविष्यामो न च लाघवमास्थिताः। न च विद्विष्टतां लोके गमिष्यामो महीक्षिताम्।। | 1-203-8a 1-203-8b |
केचिदाहुर्युवा श्रीमान्नागराजकरोपमः। पीनस्कन्धोरुबाहुश्च धैर्येण हिमवानिव।। | 1-203-9a 1-203-9b |
सिंहखेलगतिः श्रीमान्मत्तनागेन्द्रविक्रमः। संभाव्यमस्मिन्कर्मेदमुत्साहाच्चानुमीयते।। | 1-203-10a 1-203-10b |
शक्तिरस्य महोत्साहा न ह्यशक्तः स्वयं व्रजेत्। न च तद्विद्यते किंचित्कर्म लोकेषु यद्भवेत्।। | 1-203-11a 1-203-11b |
ब्राह्मणानामसाध्यं च नृषु संस्थानचारिषु। अब्भक्षा वायुभक्षाश्च फलाहारा दृढव्रताः।। | 1-203-12a 1-203-12b |
दुर्बला अपि विप्रा हि बलीयांसः स्वेतजसा। ब्राह्मणो नावमन्तव्यः सदसद्वा समाचरन्।। | 1-203-13a 1-203-13b |
सुखं दुःखं महद्ध्रस्वं कर्म यत्समुपागतम्। जामदग्न्येन रामेण निर्जिताः क्षत्रिया युधि।। | 1-203-14a 1-203-14b |
पीतः समुद्रोऽगस्त्येन अगाधो ब्रह्मतेजसा। तस्माद्ब्रुवन्तु सर्वेऽत्र वटुरेष धनुर्महान्।। | 1-203-15a 1-203-15b |
आरोपयतु शीघ्रं वै तथेत्यूचुर्द्विजर्षभाः। | 1-203-16a |
वैशंपायन उवाच। | 1-203-16x |
एवं तेषां विलपतां विप्राणां विविधा गिरः।। | 1-203-16b |
अर्जुनो धनुषोऽभ्याशे तस्थौ गिरिरिवाचलः। `अर्जुनः पाण्डवश्रेष्ठो धृष्टद्युम्नमथाब्रवीत्।। | 1-203-17a 1-203-17b |
एतद्धनुर्ब्राह्मणानां सज्यं कर्तुमलं तु किम्। | 1-203-18a |
वैशंपायन उवाच। | 1-203-18x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नोऽब्रवीद्वचः।। | 1-203-18b |
ब्राह्मणो वाथ राजन्यो वैश्यो वा शूद्र एव वा। एतेषां यो धनुःश्रेष्ठं सज्यं कुर्याद्द्विजोत्तम।। | 1-203-19a 1-203-19b |
तस्मै प्रदेया भगिनी सत्यमुक्तं मया वचः।। | 1-203-20a |
वैशंपायन उवाच। | 1-203-21x |
ततः पश्चान्महातेजाः पाण्डवो रणदुर्जयः।' स तद्धनुः परिक्रम्य प्रदक्षिणमथाकरोत्।। | 1-203-21a 1-203-21b |
प्रणम्य शिरसा देवमीनं वरदं प्रभुम्। कृष्णं च मनसा कृत्वा जगृहे चार्जुनो धनुः।। | 1-203-22a 1-203-22b |
यत्पार्थिवै रुक्मसुनीथवक्रै राधेयदुर्योधनशल्यसाल्वैः। तदा धनुर्वेदपरैर्नृसिंहैः कृतं न सज्यं महतोऽपि यत्नात्।। | 1-203-23a 1-203-23b 1-203-23c 1-203-23d |
तदर्जुनो वीर्यवतां सदर्प- स्तदैन्द्रिरिन्द्रावरजप्रभावः। सज्यं च चक्रे निमिषान्तरेण शरांश्च जग्राह दशार्दसङ्ख्यान्।। | 1-203-24a 1-203-24b 1-203-24c 1-203-24d |
विव्याध लक्ष्यं निपपात तच्च छिद्रेण भूमौ सहसातिविद्धम्। ततोऽन्तरिक्षे च बभूव नादः समाजमध्ये च महान्निनादः।। | 1-203-25a 1-203-25b 1-203-25c 1-203-25d |
पुष्पाणि दिव्यानि ववर्ष देवः पार्थस्य मूर्ध्नि द्विषतां निहन्तुः।। | 1-203-26a 1-203-26b |
चेलानि विव्यधुस्तत्र ब्राह्मणाश्च सहस्रशः। विलक्षितास्ततश्चक्रुर्हाहाकारांश्च सर्वशः। न्यपतंश्चात्र नभसः समन्तात्पुष्पवृष्टयः।। | 1-203-27a 1-203-27b 1-203-27c |
शताङ्गानि च तूर्याणि वादकाः समवादयन्। सूतमागधसङ्घाश्चाप्यस्तुवंस्तत्र सुस्वराः।। | 1-203-28a 1-203-28b |
तं दृष्ट्वा द्रुपदः प्रीतो बभूव रिपुसूदनः। सह सैन्यैश्च पार्थस्य साहाय्यार्थमियेष सः।। | 1-203-29a 1-203-29b |
तस्मिंस्तु शब्दे महति प्रवृद्धे युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः। आवासमेवोपजगाम शीघ्रं सार्धं यमाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्याम्।। | 1-203-30a 1-203-30b 1-203-30c 1-203-30d |
विद्धं तु लक्ष्यं प्रसमीक्ष्य कृष्णा पार्थं च शक्रप्रतिमं निरीक्ष्य। `स्वभ्यस्तरूपापि नवेव नित्यं विनापि हासं हसतीव कन्या।। | 1-203-31a 1-203-31b 1-203-31c 1-203-31d |
मदादृतेऽपि स्खलतीव भावै- र्वाचा विना व्याहरतीव दृष्ट्या। आदाय शुक्लं वरमाल्यदाम जगाम कुन्तीसुतमुत्स्मयन्ती।। | 1-203-32a 1-203-32b 1-203-32c 1-203-32d |
गत्वा च पश्चात्प्रसमीक्ष्य कृष्णा पार्थस्य वक्षस्यविशङ्कमाना। क्षिप्त्वा स्रजं पार्थिववीरमध्ये वराय वव्रे द्विजसङ्घमध्ये।। | 1-203-33a 1-203-33b 1-203-33c 1-203-33d |
शचीव देवेन्द्रमथाग्निदेवं स्वाहेव लक्ष्मीश्च यथा मुकुन्दम्। उषेव सूर्यं मदनं रतीव महेश्वरं पर्वतराजपुत्री।।' | 1-203-34a 1-203-34b 1-203-34c 1-203-34d |
स तामुपादाय विजित्य रङ्गे द्विजातिभिस्तैरभिपूज्यमानः। रङ्गान्निरक्रामदचिन्त्यकर्मा पत्न्या तया चाप्यनुगम्यमानः।। | 1-203-35a 1-203-35b 1-203-35c 1-203-35d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि स्वयंवरपर्वणि त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 203 ।। |
1-203-29 साहाय्यार्थं द्रौपद्यलाभात् क्षुब्धैर्नृपान्तरैर्युद्धप्रसक्तौ सत्याम्।। त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 203 ।।
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