महाभारतम्-01-आदिपर्व-174
दिखावट
← आदिपर्व-173 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-174 वेदव्यासः |
आदिपर्व-175 → |
कुन्त्या रोदनकारणप्रश्ने ब्राह्मणेन बकवृत्तान्तकथनम्।। 1 ।।
कुन्त्युवाच। | 1-174-1x |
कुतोमूलमिदं दुःखं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः। विदित्वाप्यपकर्षेयं शक्यं चेदपकर्षितुम्।। | 1-174-1a 1-174-1b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-174-2x |
उपपन्नं सतामेतद्यद्ब्रवीपि तपोधने। न तु दुःखमिदं शक्यं मानुषेण व्यपोहितुम्।। | 1-174-2a 1-174-2b |
`तथापि तत्त्वमाख्यास्ये दुःखस्यैतस्य संभवम्। शक्यं वा यदि वाऽशक्यं शृणु भद्रे यथातथम्।। | 1-174-3a 1-174-3b |
समीपे नगरस्यास्य वको वसति राक्षसः। इतो गव्यूतिमात्रे।ञस्ति यमुनागह्वरे गुहा।। | 1-174-4a 1-174-4b |
तस्यां घोरः स वसति जिघांसुः पुरुषादकः। बकाभिधानो दुष्टात्मा राक्षसानां कुलाधमः।। | 1-174-5a 1-174-5b |
ईशो जनपदस्यास्य पुरस्य च महाबलः। पुष्टो मानुषमांसेन दुर्बुद्धिः पुरुषादकः।। | 1-174-6a 1-174-6b |
प्रबलः कामरूपी च राक्षसस्तु महाबलः। तेनोपसृष्टा नगरी वर्षमद्य त्रयोदशम्।। | 1-174-7a 1-174-7b |
तत्कृते परचक्राच्च भूतेभ्यश्च न नो भयम्। पुरुषादेन रौद्रेण भक्ष्यमाणा दुरात्मना।। | 1-174-8a 1-174-8b |
अनाथा नगरी नाथं त्रातारं नाधिगच्छति। गुहायां च वसंस्तत्र बाधते सततं जनम्।। | 1-174-9a 1-174-9b |
स्त्रियो बालांश्च वृद्धांश्च यूनश्चापि दुरात्मवान्। अत्र मन्त्रैश्च होमैश्च भोजनैश्च स राक्षसः।। | 1-174-10a 1-174-10b |
ईडितो द्विजमुख्यैश्च पूजितश्च दुरात्मवान्। यदा च सकलानेवं प्रसूदयति राक्षसः।। | 1-174-11a 1-174-11b |
अथैनं ब्राह्मणाः सर्वे समये समयोजयन्। मा स्म कामाद्वधी रक्षो दास्यामस्ते सदा वयं।। | 1-174-12a 1-174-12b |
पर्यायेण यथाकाममिह मांसोदनं प्रभो। अन्नं मांससमायुक्तं तिलचूर्णसमन्वितम्।। | 1-174-13a 1-174-13b |
सर्पिषा च समायुक्तं व्यञ्जनैश्च समन्वितम्। सूपांस्त्रीन्सतिलान्पिण्डाँल्लाजापूपसुरासवान्।। | 1-174-14a 1-174-14b |
शृताशृतान्पानकुम्भान्स्थूलमांसं शृताशृतम्। वनमाहिषवाराहभाल्लूकं च शृताशृतम्।। | 1-174-15a 1-174-15b |
सर्पिःकुम्भांश्च विविधान्दधिकुम्भांस्तथा बहून्। सद्यःसिद्धसमायुक्तं तिलचूर्णैः समाकुलम्।। | 1-174-16a 1-174-16b |
कुलाच्च पुरुषं चैकं बलीवर्दौ च कालकौ। प्राप्स्यसि त्वमसंक्रुद्धो रक्षोभागं प्रकल्पितम्।। | 1-174-17a 1-174-17b |
तिष्ठेह समयेऽस्माकमित्ययाचन्त तं द्विजाः। बाढमित्येव तद्रक्षस्तद्वचः प्रत्यगृह्णत।। | 1-174-18a 1-174-18b |
परचक्राटवीकेभ्यो रक्षणं स करोति च। तस्मिन्भागे सुनिर्दिष्टे स्थितः स समये बली।। | 1-174-19a 1-174-19b |
एकैकं चैव पुरुषं संप्रयच्छन्ति वेतनम्। स वारो बहुभिर्वर्षैर्भवत्यसुकरो नरैः।। | 1-174-20a 1-174-20b |
तद्विमोक्षाय ये केचिद्यतन्ते पुरुषाः क्वचित्। सपुत्रदारांस्तान्हत्वा तद्रक्षो भक्षयत्युत।।' | 1-174-21a 1-174-21b |
वेत्रकीयगृहे राजा नायं नयमिहास्थितः। उपायं तं न कुरुते यत्नादपि स मन्दधीः। अनामयं जनस्यास्य येन स्यादद्य शाश्वतम्।। | 1-174-22a 1-174-22b 1-174-22c |
एतदर्हा वचं नूनं वसामो दुर्बलस्य ये। विषये नित्यवास्तव्याः कुराजानमुपाश्रिताः।। | 1-174-23a 1-174-23b |
ब्राह्मणाः कस्य वक्तव्याः कस्य वाच्छन्दचारिणः। गुणैरेते हि वत्स्यन्ति कामगाः पक्षिणो यथा।। | 1-174-24a 1-174-24b |
राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्यां ततो धनम्। `राजन्यसति लोकेऽस्मिन्कुतो भार्या कुतो धनम्। वयस्य संचयेनास्य ज्ञातीन्पुत्रांश्च तारयेत्।। | 1-174-25a 1-174-25b 1-174-25c |
विपीरतं मया चेदं त्रयं सर्वमुपार्जितम्। तदिमामापदं प्राप्य भृशं तप्यामहे वयम्।। | 1-174-26a 1-174-26b |
सोऽयमस्माननुप्राप्तो वारः कुलविनाशनः। भोजनं पुरुषश्चैकः प्रदेयं वेतनं मया।। | 1-174-27a 1-174-27b |
न च मे विद्यते वित्तं संक्रेतुं पुरुषं क्वचित्। सुहृज्जनं प्रदातुं च न शक्ष्यामि कदाचन।। | 1-174-28a 1-174-28b |
गतिं चान्यां न पश्यामि तस्मान्मोक्षाय रक्षसः। सोऽहं दुःखार्णवे मग्नो महत्यसुकरे भृशम्।। | 1-174-29a 1-174-29b |
सहैवैतैर्गमिष्यामि बान्धवैरद्य राक्षसम्। ततो नः सहितान्क्षुद्रः सर्वानेवोपभोक्ष्यति।। | 1-174-30a 1-174-30b |
`दुःखमूलमिदं भद्रे मयोक्तं प्रश्नतोऽनघे।।' | 1-174-31a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिप्रवणि बकवधपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 174 ।। |
1-174-22 वेत्रकीयगृहे स्थानविशेषे। इतोऽदूरे राजास्त्ययमिह नगरे नयं न आस्थितः। अस्य नगरस्यावेक्षां न करोतीत्यर्थः। स्वयं राक्षसं हन्तुमशक्तत्वात्। नायं नायमिहास्थित इति खपुस्तकपाठः। नायं नायं बलिं पुनः पुनः प्रापय्येत्यर्थः। उपायमप्यन्यद्वारा न कुरुते यतो मन्दधीः।। 1-174-23 एतदर्हाः एतस्य दुःखस्य योग्याः।। चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 174 ।।
आदिपर्व-173 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-175 |