महाभारतम्-01-आदिपर्व-115
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अम्बिकायां व्यासाद्धृतराष्ट्रस्योत्पत्तिः।। 1 ।।
अम्बालिकायां पाण्डोरुत्पत्तिः।। 2 ।।
अम्बिकादास्यां विदुरस्योत्पत्तिः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-115-1x |
ततः सत्यवती काले वधूं स्नातामृतौ तदा। संवेशयन्ती शयने शनैर्वचनमब्रवीत्।। | 1-115-1a 1-115-1b |
कौसल्ये देवरस्तेऽस्ति सोऽद्य त्वाऽनुप्रवेक्ष्यति। अप्रमत्ता प्रतीक्षैनं निशीथे ह्यागमिष्यति।। | 1-115-2a 1-115-2b |
श्वश्र्वास्तद्वचनं श्रुत्वा शयाना शयने शुभे। साऽचिन्तयत्तदा भीष्ममन्यांश्च कुरुपुङ्गवान्।। | 1-115-3a 1-115-3b |
`ततः सुप्तजनप्रायेऽर्धरात्रे भगवानृषिः। दीप्यमानेषु दीपेषु शरणं प्रविवेश ह।। | 1-115-4a 1-115-4b |
ततोऽम्बिकायां प्रथमं नियुक्तः सत्यवागृषिः। जगाम तस्याः शयनं विपुले तपसि स्थितः।। | 1-115-5a 1-115-5b |
तं समीक्ष्य तु कौसल्या दुष्प्रेक्षमतथोचिता। विरूप इति वित्रस्ता संकुच्यासीन्निमीलिता।। | 1-115-6a 1-115-6b |
विरूपो हि जटी चापि दुर्वर्णः परुषः कृशः। सुगन्धेतरगन्धश्च सर्वथा दुष्प्रधर्षणः।।' | 1-115-7a 1-115-7b |
तस्य कृष्णस्य कपिलां जटां दीप्ते च लोचने। बब्रूणि चैव श्मश्रूमि दृष्ट्वा देवी न्यमीलयत्।। | 1-115-8a 1-115-8b |
संभूव तया सार्धं मातुः प्रियचिकीर्षया। भयात्काशिसुता तं तु नाशक्नोदभिवीक्षितुम्।। | 1-115-9a 1-115-9b |
ततो निष्क्रान्तमागम्य माता पुत्रमुवाच ह। अप्यस्यां गुणवान्पुत्र राजपुत्रो भविष्यति।। | 1-115-10a 1-115-10b |
निशम्य तद्वचो मातुर्व्यासः सत्यवतीसुतः। `प्रोवाचातीन्द्रियज्ञानो विधिना संप्रचोदितः।।' | 1-115-11a 1-115-11b |
नागायुतसमप्राणो विद्वान्राजर्षिसत्तमः। महाभागो महावीर्यो महाबुद्धिर्भविष्यति।। | 1-115-12a 1-115-12b |
तस्य चापि शतं पुत्रा भविष्यन्ति महात्मनः। किंतु मातुः स वैगुण्यादन्ध एव भविष्यति।। | 1-115-13a 1-115-13b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माता पुत्रमथाऽब्रवीत्। नान्धः कुरूणां नृपतिरनुरूपस्तपोधन।। | 1-115-14a 1-115-14b |
ज्ञातिवंशस्य गोप्तारं पितॄणां वंशवर्धनम्। `अपरस्यामपि पुनर्मम शोकविनाशनम्।। | 1-115-15a 1-115-15b |
तस्मादवरजं पुत्रं जनयान्यं नराधिपम्। भ्रातुर्भार्याऽवरा चेयं रूपयौवनशालिनी।। | 1-115-16a 1-115-16b |
अस्यामुत्पादयाऽपत्यं मन्नियोगाद्गुणाधिकम्।' द्वितीयं कुरुवंशस्य राजानं दातुमर्हसि।। | 1-115-17a 1-115-17b |
स तथेति प्रतिज्ञाय निश्चक्राम महायशाः। साऽपि कालेन कौसल्या सुषुवेऽन्धं तमात्मजम्।। | 1-115-18a 1-115-18b |
पुनरेव तु सा देवी परिभाष्य स्नुषां ततः। ऋषिमावाहयत्सत्या यथापूर्वमरिन्दम।। | 1-115-19a 1-115-19b |
`अम्बालिकां समाहूय तस्यां सत्यवती सुतम्। भूयो नियोजयामास सन्तानाय कुलस्य वै।। | 1-115-20a 1-115-20b |
विषण्णाम्बालिका साध्वी निषण्णा शयनोत्तमे। कोन्वेष्यतीति ध्यायन्ती नियतां संप्रतीक्षते'।। | 1-115-21a 1-115-21b |
ततस्तेनैव विधिना महर्षिस्तामपद्यत। अम्बालिकामथाऽभ्यागादृषिं दृष्ट्वा च साऽपि तम्।। | 1-115-22a 1-115-22b |
विवर्णा पाण्डुसंकाशा समपद्यत भारत। तां भीतां पाण्डुसंकाशां विषण्णां प्रेक्ष्य भारत।। | 1-115-23a 1-115-23b |
व्यासः सत्यवतीपुत्र इदं वचनमब्रवीत्। यस्मात्पाण्डुत्वमापन्ना विरूपं प्रेक्ष्य मामिह।। | 1-115-24a 1-115-24b |
तस्मादेष सुतस्ते वै पाण्डुरेव भविष्यति। नाम चास्यैतदेवेह भविष्यति शुभानने।। | 1-115-25a 1-115-25b |
इत्युक्त्वा स निराक्रामद्भगवानृषिसत्तमः। ततो निष्क्रान्तमालोक्य सत्या पुत्रमथाऽब्रवीत्।। | 1-115-26a 1-115-26b |
`कुमारो ब्रूहि मे पुत्र अप्यत्र भविता शुभः।' शशंस स पुनर्मात्रे तस्य बालस्य पाण्डुताम्।। | 1-115-27a 1-115-27b |
`भविष्यति सुविक्रान्तः कुमारो दिक्षु विश्रुतः। पाण्डुत्वं वर्णतस्तस्य मातृदोषाद्भविष्यति।। | 1-115-28a 1-115-28b |
तस्य पुत्रा महेष्वासा भविष्यन्तीह पञ्च वै। इत्युक्त्वा मातरं तत्र सोऽभिवाद्य जगाम ह।।' | 1-115-29a 1-115-29b |
तं माता पुनरेवान्यमेकं पुत्रमयाचत। तथेति च महर्षिस्तां मातरं प्रत्यभाषत।। | 1-115-30a 1-115-30b |
ततः कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनत्। पाण्डुलक्षणसंपन्नं दीप्यमानमिव श्रिया।। | 1-115-31a 1-115-31b |
यस्य पुत्रा महेष्वासा जज्ञिरे पञ्च पाण्डवाः। `तयोर्जन्मक्रियाः सर्वा यथावदनुपूर्वशः।। | 1-115-32a 1-115-32b |
कारयामास वै भीष्मो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः। अन्धं दृष्ट्वाऽम्बिकापुत्रं जातं सत्यवती सुतम्।। | 1-115-33a 1-115-33b |
कौसल्यार्थे समाहूय पुत्रमन्यमयाचत। अन्धोयमन्यमिच्छामि कौसल्यातनयं शुभम्।। | 1-115-34a 1-115-34b |
एवमुक्तो महर्षिस्तां मातरं प्रत्यभाषत। नियता यदि कौसल्या भविष्यति पुनःशुभा।। | 1-115-35a 1-115-35b |
भविष्यति कुमारोऽस्या धर्मशास्त्रार्थतत्ववित्। तां समाधाय वै भूयः स्नुषां सत्यवती पुनः।।' | 1-115-36a 1-115-36b |
ऋतुकाले ततो ज्येष्ठां वधूं तस्मै न्ययोजयत्। सा तु रूपं च गन्धं च महर्षेः प्रविचिन्त्य तं।। | 1-115-37a 1-115-37b |
नाकरोद्वचनं देव्या भयात्सुरसुतोपमा। ततःस्वैर्भूषणैर्दासीं भूषयित्वाऽप्सरोपमाम्।। | 1-115-38a 1-115-38b |
प्रेषयामास कृष्णाय ततः काशिपतेः सुता। सा तं त्वृषिमनुप्राप्तं प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च।। | 1-115-39a 1-115-39b |
संविवेशाभ्यनुज्ञाता सत्कृत्योपचचार ह। `वाग्भावोपप्रदानेन गात्रसंस्पर्शनेन च।।' | 1-115-40a 1-115-40b |
कामोपभोगेन रहस्तस्यां तुष्टिमगादृषिः। तया सहोषितो राजन्महर्षिः संशितव्रतः।। | 1-115-41a 1-115-41b |
उत्तिष्ठन्नब्रवीदेनामभुजिष्या भविष्यसि। अयं च ते शुभे गर्भः श्रेयानुदरमागतः। धर्मात्मा भविता लोके सर्वबुद्धिमतां वरः।। | 1-115-42a 1-115-42b 1-115-42c |
स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मजः। धृतराष्ट्रस्य वै भ्राता पाण्डोश्चैव महात्मनः।। | 1-115-43a 1-115-43b |
धर्मो विदुररूपेण शापात्तस्य महात्मनः। माण्डव्यस्यार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधविवर्जितः।। | 1-115-44a 1-115-44b |
कृष्णद्वैपायनोऽप्येतत्सत्यवत्यै न्यवेदयत्। प्रलम्भमात्मनश्चैव शूद्रायाः पुत्रजन्म च।। | 1-115-45a 1-115-45b |
स धर्मस्यानृणो भूत्वा पुनर्मात्रा समेत्य च। तस्यै गर्भं समावेद्य तत्रैवान्तरधीयत।। | 1-115-46a 1-115-46b |
एते विचित्रवीर्यस्य क्षेत्रे द्वैपायनादपि। जज्ञिरे देवगर्भाभाः कुरुवंशविवर्धनाः।। | 1-115-47a 1-115-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 115 ।। |
1-115-42 अभुजिष्या अदासी।। 1-115-45 प्रलम्भमात्मस्थोने दासीनियोजनम्।। पञ्चादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 115 ।।
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