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महाभारतम्-01-आदिपर्व-043

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स्वदष्टन्यग्रोधोज्जीवनेन परीक्षितस्य काश्यपस्य धनं दत्वा तक्षकेण कृतं परावर्तनं परीक्षिद्दंशश्च।। 1 ।।

तक्षक उवाच। 1-43-1x
यदि दष्टं मयेह त्वं शक्तः किंचिच्चिकित्सितुम्।
ततो वृक्षं मया दष्टमिमं जीवय काश्यप।।
1-43-1a
1-43-1b
परं मन्त्रबलं यत्ते तद्दर्शय यतस्व च।
न्यग्रोधमेनं धक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम।।
1-43-2a
1-43-2b
काश्यप उवाच। 1-43-3x
दश नागेन्द्र वृक्षं त्वं यद्येतदभिमन्यसे।
अहमेनं त्वया दष्टं जीवयिष्ये भुजंगम।
`पश्य मन्त्रबलं मेऽद्य न्यग्रोधं दश पन्नग।।'
1-43-3a
1-43-3b
1-43-3c
सौतिरुवाच। 1-43-4x
एवमुक्तः स नागेन्द्रः काश्यपेन महात्मना।
अदशद्वृक्षमभ्येत्य न्यग्रोधं पन्नगोत्तमः।।
1-43-4a
1-43-4b
स वृक्षस्तेन दष्टस्तु पन्नगेन महात्मना।
आशीविषविषोपेतः प्रजज्वाल समन्ततः।।
1-43-5a
1-43-5b
तं दग्ध्वा स नगं नागः काश्यपं पुनरब्रवीत्।
कुरु यत्नं द्विजश्रेष्ठ जीवयैव वनस्पतिम्।।
1-43-6a
1-43-6b
सौतिरुवाच। 1-43-7x
भस्मीभूतं ततो वृक्षं पन्नगेन्द्रस्य तेजसा।
भस्म सर्वं समाहृत्य काश्यपो वाक्यमब्रवीत्।।
1-43-7a
1-43-7b
विद्याबलं पन्नगेन्द्र पश्य मेऽद्य वनस्पतौ।
अहं संजीवयाम्येनं पश्यतस्ते भुजंगम।।
1-43-8a
1-43-8b
ततः स भगवान्विद्वान्काश्यपो द्विजसत्तमः।
भस्मराशीकृतं वृक्षं विद्यया समजीवयत्।।
1-43-9a
1-43-9b
अङ्कुरं कृतवांस्तत्र ततः पर्णद्वयान्वितम्।
पलाशिनं शाखिनं च तथा विटपिनं पुनः।।
1-43-10a
1-43-10b
तं दृष्ट्वा जीवितं वृक्षं काश्यपेन महात्मना।
उवाच तक्षको ब्रह्मन्नैतदत्यद्भुतं त्वयि।।
1-43-11a
1-43-11b
द्विजेन्द्र यद्विषं हन्या मम वा मद्विधस्य वा।
कं त्वमर्थमभिप्रेप्सुर्यासि तत्र तपोधन।।
1-43-12a
1-43-12b
यत्तेऽभिलषितं प्राप्तं फलं तस्मान्नृपोत्तमात्।
अहमेव प्रदास्यामि तत्ते यद्यपि दुर्लभम्।।
1-43-13a
1-43-13b
विप्रशापाभिभूते च क्षीणायुषि नराधिपे।
घटमानस्य ते विप्र सिद्धिः संशयिता भवेत्।।
1-43-14a
1-43-14b
ततो यशः प्रदीप्तं ते त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
निरंशुरिव घर्मांशुरन्तर्धानमितो व्रजेत्।।
1-43-15a
1-43-15b
काश्यप उवाच। 1-43-16x
धनार्थी याम्यहं तत्र तन्मे देहि भुजंगम।
ततोऽहं विनिवर्तिष्ये स्वापतेयं प्रगृह्य वै।।
1-43-16a
1-43-16b
तक्षक उवाच। 1-43-17x
यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद्राज्ञस्ततोऽधिकम्।
अहमेव प्रदास्यामि निवर्तस्व द्विजोत्तम।।
1-43-17a
1-43-17b
सौतिरुवाच। 1-43-18x
तक्षकस्य वचः श्रुत्वा काश्यपो द्विजसत्तमः।
प्रदध्यौ सुमहातेजाराजानं प्रति बुद्धिमान्।।
1-43-18a
1-43-18b
दिव्यज्ञानः स तेजस्वी ज्ञात्वा तं नृपतिं तदा।
क्षीणायुषं पाण्डवेयमपावर्तत काश्यपः।।
1-43-19a
1-43-19b
लब्ध्वा वित्तं मुनिवरस्तक्षकाद्यावदीप्सितम्।
निवृत्ते काश्यपे तस्मिन्समयेन महात्मनि।।
1-43-20a
1-43-20b
जगाम तक्षकस्तूर्णं नगरं नागसाह्वयम्।
अथ शुश्राव गच्छन्स तक्षको जगतीपतिम्।।
1-43-21a
1-43-21b
मन्त्रैर्विषहरैर्दिव्यै रक्ष्यमाणं प्रयत्नतः। 1-43-22a
सौतिरुवाच। 1-43-22x
स चिन्तयामास तदा मायायोगेन पार्थिवः।। 1-43-22b
मया वञ्चयितव्योऽसौ क उपायो भवेदिति।
ततस्तापसरूपेण प्राहिणोत्स भुजंगमान्।।
1-43-23a
1-43-23b
फलपत्रोदकं गृह्य राज्ञे नागोऽथ तक्षकः। 1-43-24a
तक्षक उवाच। 1-43-24x
गच्छध्वं यूयमव्यग्रा राजानं कार्यवत्तया।। 1-43-24b
फलपत्रोदकं नागाः प्रतिग्राहयितुं नृपम्। 1-43-25a
सौतिरुवाच। 1-43-25x
ते तक्षकसमादिष्टास्तथा चक्रुर्भुजङ्गमाः।। 1-43-25b
उपनिन्युस्तथा राज्ञे दर्भानम्भः फलानि च।
तच्च सर्वं स राजेन्द्रः प्रतिजग्राह वीर्यवान्।।
1-43-26a
1-43-26b
कृत्वा तेषां च कार्याणि गम्यतामित्युवाच तान्।
गतेषु तेषु नागेषु तापसच्छद्मरूपिषु।।
1-43-27a
1-43-27b
अमात्यान्सुहृदश्चैव प्रोवाच स नराधिपः।
भक्षयन्तु भवन्तो वै स्वादूनीमानि सर्वशः।।
1-43-28a
1-43-28b
तापसैरुपनीतानि फलानि सहिता मया।
ततो राजा ससचिवः फलान्यादातुमैच्छत।।
1-43-29a
1-43-29b
विधिना संप्रयुक्तो वै ऋषिवाक्येन तेन तु।
यस्मिन्नेव फले नागस्तमेवाभक्षयत्स्वयम्।।
1-43-30a
1-43-30b
ततो भक्षयतस्तस्य फलात्कृमिरभूदणुः।
ह्रस्वकः कृष्णनयनस्ताम्रवर्णोऽथ शौनक।।
1-43-31a
1-43-31b
स तं गृह्य नृपश्रेष्ठः सचिवानिदमब्रवीत्।
अस्तमभ्येति सविता विषादद्य न मे भयम्।।
1-43-32a
1-43-32b
सत्यवागस्तु स मुनिः कृमिर्मां दशतामयम्।
तक्षको नाम भूत्वा वै तथा परिहृतं भवेत्।।
1-43-33a
1-43-33b
ते चैनमन्ववर्तन्त मन्त्रिणः कालचोदिताः।
एवमुक्त्वा स राजेन्द्रो ग्रीवायां सन्निवेश्यह।।
1-43-34a
1-43-34b
कृमिकं प्राहसत्तूर्णं मुमूर्षुर्नष्टचेतनः।
प्रहसन्नेव भोगेन तक्षकेणाभिवेष्टितः।।
1-43-35a
1-43-35b
तस्मात्फलाद्विनिष्क्रम्य यत्तद्राज्ञे निवेदितम्।
वेष्टयित्वा च भोगेन विनद्य च महास्वनम्।
अदशत्पृथिवीपालं तक्षकः पन्नगेश्वरः।।
1-43-36a
1-43-36b
1-43-36c
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
आस्तीकपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।।

1-43-3 दश दंशं कुरु।। 1-43-6 नग वृक्षम्।। 1-43-13 यत् फलं प्राप्तुमभिलषितं तत् इत्यन्वयः।। 1-43-14 घटमानस्य सज्जमानस्य।। 1-43-16 स्वापतेयं धनम्।। 1-43-22 तत्रागतैर्विषहरैरिति पाठान्तरम्।। 1-43-31 यज्जग्राह फलं राजा तत्र क्रिमिरभूदणुः इति पाठान्तरम्।। 1-43-33 क्रिमिको मां दशत्वयं इति पाठान्तरम्।। त्रिचत्वारिशोऽध्यायः।। 43 ।।

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