महाभारतम्-01-आदिपर्व-051
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जनमेजयस्य सर्पसत्रप्रतिज्ञा।। 1 ।। यज्ञसामग्रीसंपादनम्।। 2 ।। दीक्षाग्रहणम्।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-51-1x |
एवमुक्त्वा ततः श्रीमान्मन्त्रिभिश्चानुमीदितः। आरुरोह प्रतिज्ञां स सर्पसत्राय पार्थिवः।। | 1-51-1a 1-51-1b |
ब्रह्मन्भरतशार्दूलो राजा पारिक्षितस्तदा। पुरोहितमथाहूय ऋत्विजो वसुधाधिपः।। | 1-51-2a 1-51-2b |
अब्रवीद्वाक्यसंपन्नः कार्यसंपत्करं वचः। यो मे हिंसितवांस्तातं तक्षकः स दुरात्मवान्।। | 1-51-3a 1-51-3b |
प्रतिकुर्यां यथा तस्य तद्भवन्तो ब्रुवन्तु मे। अपि तत्कर्म विदितं भवतां येन पन्नगम्।। | 1-51-4a 1-51-4b |
तक्षकं संप्रदीप्तेऽग्नौ प्रक्षिपेयं सबान्धवम्। यथा तेन पिता मह्यं पूर्वं दग्धो विषाग्निना।। तथाऽहमपि तं पापं दग्धुमिच्छामि पन्नगम्।। | 1-51-5a 1-51-5b 1-51-5c |
ऋत्विज ऊचुः। | 1-51-6x |
अस्ति राजन्महात्सत्रं त्वदर्थं देवनिर्मितम्। सर्वसत्रमिति ख्यातं पुराणे परिपठ्यते।। | 1-51-6a 1-51-6b |
आहर्ता तस्य सत्रस्य त्वन्नान्योऽस्ति नराधिप। इति पौराणिकाः प्राहुरस्माकं चास्ति स क्रतुः।। | 1-51-7a 1-51-7b |
एवमुक्तः स राजर्षिर्मेने दग्धं हि तक्षकम्। हुताशनमुखे दीप्ते प्रविष्टमिति सत्तम।। | 1-51-8a 1-51-8b |
ततोऽब्रवीन्मन्त्रविदस्तान्राजा ब्राह्मणांस्तदा। आहरिष्यामि तत्सत्रं संभाराः संभ्रियन्तु मे।। | 1-51-9a 1-51-9b |
सौतिरुवाच। | 1-51-10x |
ततस्त ऋत्विजस्तस्य शास्त्रतो द्विजसत्तम। तं देशं मापयामासुर्यज्ञायतनकारणात्।। | 1-51-10a 1-51-10b |
यथावद्वेदविद्वांसः सर्वे बुद्धेः परंगताः। ऋद्ध्या परमया युक्तमिष्टं द्विजगणैर्युतम्।। | 1-51-11a 1-51-11b |
प्रभूतधनधान्याढ्यमृत्विग्भिः सुनिषेवितम्। निर्माय चापि विधिवद्यज्ञायतनमीप्सितम्।। | 1-51-12a 1-51-12b |
राजानं दीक्षयामासुः सर्पसत्राप्तये तदा। इदं चासीत्तत्र पूर्वं सर्पसत्रे भविष्यति।। | 1-51-13a 1-51-13b |
निमित्तं महदुत्पन्नं यज्ञविघ्नकरं तदा। यज्ञस्यायतने तस्मिन्क्रियमाणे वचोऽब्रवीत्।। | 1-51-14a 1-51-14b |
स्थपतिर्बुद्धिसंपन्नो वास्तुविद्याविशारदः। इत्यब्रवीत्सूत्रधारः सूतः पौराणिकस्तदा।। | 1-51-15a 1-51-15b |
यस्मिन्देशे च काले च मापनेयं प्रवर्तिता। ब्राह्मणं कारणं कृत्वा नायं संस्थास्यते क्रतुः।। | 1-51-16a 1-51-16b |
एतच्छ्रुत्वा तु राजासौ प्राग्दीक्षाकालमब्रवीत्। क्षत्तारं न हि मे कश्चिदज्ञातः प्रविशेदिति।। | 1-51-17a 1-51-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 51 ।। |
1-51-5 मह्यं मम।। 1-51-7 त्वत् त्वत्तो नान्योस्ति।। 1-51-9 आहरिष्यामि करिष्यामि। संभ्रियन्तु संभ्रियन्ताम्।। 1-51-13 भविष्यति भाविनि।। 1-51-15 सूतो जात्या पौराणिकः शिल्पागमवेत्ता।। 1-51-16 नायं संस्थास्यते न समाप्स्यते।। 1-51-17 दीक्षाकालस्य प्रागिति प्राग्दी क्षाकालं क्षत्तारं द्वास्थम्।। एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 51 ।।
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