महाभारतम्-01-आदिपर्व-031
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वालखिल्यतपसा गरुडोत्पत्तिकथनपूर्वकं तस्य पक्षीन्द्रत्वेऽभिषेचनम्।। 1 ।।
शौनक उवाच। | 1-31-1x |
कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज। तपसा वालखिल्यानां संभूतो गरुडः कथम्।। | 1-31-1a 1-31-1b |
कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः। अधृष्टः सर्वभूतानामवध्यस्चाभवत्कथम्।। | 1-31-2a 1-31-2b |
कथं च कामचारी स कामवीर्यश्च खेचरः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते।। | 1-31-3a 1-31-3b |
सौतिरुवाच। | 1-31-4x |
विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि। शृणु मे वदतः सर्वमेतत्संक्षेपतों द्विज।। | 1-31-4a 1-31-4b |
यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः। साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल।। | 1-31-5a 1-31-5b |
तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्तः कश्यपेन ह। मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागणाः।। | 1-31-6a 1-31-6b |
शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्यभारं गिरिप्रभम्। समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः।। | 1-31-7a 1-31-7b |
अथापश्यदृषीन्ह्रस्वानङ्गुष्ठोदरवर्ष्मणः। पलाशवर्तिकामेकां वहतः संहतान्पथि।। | 1-31-8a 1-31-8b |
प्रलीनान्स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान्। क्लिश्यमानान्मन्दबलान्गोष्पदे संप्लुतोदके।। | 1-31-9a 1-31-9b |
तान्सर्वान्विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरन्दरः। अपहास्याभ्यगाच्छीघ्रं लम्बयित्वाऽवमन्य च।। | 1-31-10a 1-31-10b |
तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः। आरेभिरे महत्कर्म तदा शक्रभयंकरम्।। | 1-31-11a 1-31-11b |
जुहुवुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम्। मन्त्रैरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु।। | 1-31-12a 1-31-12b |
कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः। इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः।। | 1-31-13a 1-31-13b |
इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः। तपसो नः फलेनाद्य दारुणः संभवित्विति।। | 1-31-14a 1-31-14b |
तद्बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः। जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम्।। | 1-31-15a 1-31-15b |
तच्छ्रुत्वा देवराजस्य कश्यपोऽथ प्रजापतिः। वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत।। | 1-31-16a 1-31-16b |
`कश्यप उवाच। | 1-31-17x |
केन कामेन चारब्धं भवद्भिर्होमकर्म च। याथातथ्येन मे ब्रूत श्रोतुं कौतूहलं हि मे।। | 1-31-17a 1-31-17b |
वालखिल्या ऊचुः। | 1-31-18x |
अवज्ञाताः सुरेन्द्रेण मूढेनाकृतबुद्धिना। ऐश्वर्यमदमत्तेन सदाचारान्निरस्यता।। | 1-31-18a 1-31-18b |
तद्विघातार्थमारम्भो विधिवत्तस्य कश्यप।। | 1-31-19a |
सौतिरुवाच।' | 1-31-20x |
एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचुः सत्यवादिनः। तान्कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्वं प्रजापतिः।। | 1-31-20a 1-31-20b |
अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद्ब्रह्मणः कृतः। इन्द्रार्थे च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः।। | 1-31-21a 1-31-21b |
न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः। भवतां हि न मिथ्याऽयं संकल्पो वै चिकीर्षितः।। | 1-31-22a 1-31-22b |
भवत्वेष पतत्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान्। प्रसादः क्रियतामस्य देवराजस्य याचतः।। | 1-31-23a 1-31-23b |
सौतिरुवाच। | 1-31-24x |
एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः। प्रत्यूचुरभिसंपूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम्।। | 1-31-24a 1-31-24b |
वालखिल्या ऊचुः। | 1-31-25x |
इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते। अपत्यार्थं समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः।। | 1-31-25a 1-31-25b |
तदिदं सफलं कर्म त्वयैव प्रतिगृह्यताम्। तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि।। | 1-31-26a 1-31-26b |
सौतिरुवाच। | 1-31-27x |
एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा। विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी।। | 1-31-27a 1-31-27b |
तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचिः। उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः।। | 1-31-28a 1-31-28b |
आरम्भः सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सितः। जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरौ।। | 1-31-29a 1-31-29b |
तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पतस्तथा। भविष्यतो महाभागौ पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ।। | 1-31-30a 1-31-30b |
उवाच चैनां भगवान्कश्यपः पुनरेव ह। धार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः।। | 1-31-31a 1-31-31b |
एकः सर्वपतत्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यति। लोकसंभावितो वीरः कामरूपो विहङ्गमः।। | 1-31-32a 1-31-32b |
सौतिरुवाच। | 1-31-33x |
शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाणः प्रजापतिः। त्वत्सहायौ महावीर्यौ भ्रातरौ ते भविष्यतः।। | 1-31-33a 1-31-33b |
नैताभ्यां भविता दोषः सकाशात्ते पुरंदर। व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि।। | 1-31-34a 1-31-34b |
न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः। न चावमान्या दर्पात्ते वाग्वज्रा भृशकोपनाः।। | 1-31-35a 1-31-35b |
सौतिरुवाच। | 1-31-36x |
एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम्। विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा।। | 1-31-36a 1-31-36b |
जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा। विकलाङ्गोऽरुणस्तत्र भास्करस्य पुरःसरः।। | 1-31-37a 1-31-37b |
पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिञ्चत। तस्यैतत्कर्म सुमहच्छ्रूयतां भृगुनन्दन।। | 1-31-38a 1-31-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31 ।। |
1-31-8 अङ्गुष्ठोदरप्रमाणं वर्ष्म शरीरं येषां तान्। वर्तिकां यष्टिम्।। 1-31-9 स्वेष्वङ्गेषु प्रलीनानिव अतिकृशानित्यर्थः। क्लिश्यमानान् गोष्पदमात्रेति जले मज्जनेनेत्यर्थः।। 1-31-11 जातमन्यवः दीनाः। मन्युर्दैन्ये क्रतौ क्रुधीति कोशः।। 1-31-14 दारुणः इन्द्रं प्रत्येव।। 1-31-16 कर्मसिद्धिमपृच्छत सिद्ध वः कर्मेत्यपृच्छत्।। 1-31-20 एवमस्तु सिद्धमस्तु।। 1-31-28 पुंसवने ऋतुकाले।। 1-31-32 कारयिष्यति स्वार्थे णिच्।। एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31 ।।
आदिपर्व-030 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-032 |