महाभारतम्-01-आदिपर्व-128
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उद्दालककथा।। 1 ।।
उद्दालकपुत्रेण श्वेतकेतुना कृता स्त्रीपुरुषमर्यादा।। 2 ।।
गुणाधिकात् द्विजातेः पुत्रोत्पादनार्थं प्रति पाण्डोराज्ञा।। 3 ।।
कुन्त्या दुर्वाससः स्वस्य मन्त्रप्राप्तिकथनम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-128-1x |
एवमुक्तस्तया राजा तां देवीं पुनरब्रवीत्। धर्मविद्धर्मसंयुक्तमिदं वचनमुत्तमम्।। | 1-128-1a 1-128-1b |
पाण्डुरुवाच। | 1-128-2x |
एवमेतत्पुरा कुन्ति व्युषिताश्वश्चकार ह। यथा त्वयोक्तं कल्याणि स ह्यासीदमरोपमः।। | 1-128-2a 1-128-2b |
अथ त्विदं प्रवक्ष्यामि धर्मतत्त्वं निबोध मे। पुराणमृषिभिर्दृष्टं धर्मविद्भिर्महात्मभिः।। | 1-128-3a 1-128-3b |
अनावृताः किल पुरा स्त्रिय आसन्वरानने। कामचारविहारिण्यः स्वतन्त्राश्चारुहासिनि।। | 1-128-4a 1-128-4b |
तासां व्युच्चरमाणानां कौमारात्सुभगे पतीन्। नाधर्मोऽभूद्वरारोहे स हि धर्मः पुराऽभवत्।। | 1-128-5a 1-128-5b |
तं चैव धर्मं पौराणं तिर्यग्योनिगताः प्रजाः। अद्याप्यनुविधीयन्ते कामक्रोधविवर्जिताः।। | 1-128-6a 1-128-6b |
प्रमाणदृष्टो धर्मोऽयं पूज्यते च महर्षिभिः। उत्तरेषु च रम्भोरु कुरुष्वद्यापि पूज्यते। स्त्रीणामनुग्रहकरः स हि धर्मः सनातनः।। | 1-128-7a 1-128-7b 1-128-7c |
`नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः। नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः।। | 1-128-8a 1-128-8b |
एवं तृष्णा तु नारीणां पुरुषं पुरुषं प्रति। अगम्यागमनं स्त्रीणां नास्ति नित्यं शुचिस्मिते।। | 1-128-9a 1-128-9b |
पुत्रं वा किल पौत्रं वा कासांचिद्धातरं तथा। रहसीह नरं दृष्ट्वा योनिरुत्क्लिद्यते तदा।। | 1-128-10a 1-128-10b |
एतत्स्वाभाविकं स्त्रीणां न निमित्तकृतं शुभे।' अस्मिंस्तु लोके नचिरान्मर्यादेयं शुचिस्मिते।। | 1-128-11a 1-128-11b |
स्थापिता येन यस्माच्च तन्मे विस्तरतः शृणु। बभूवोद्दालको नाम महर्षिरिति नः श्रुतम्।। | 1-128-12a 1-128-12b |
श्वेतकेतुरिति ख्यातः पुत्रस्तस्याभवन्मुनिः। मर्यादेयं कृता तेन धर्म्या वै श्वेतकेतुना।। | 1-128-13a 1-128-13b |
कोपात्कमलपत्राक्षि यदर्थं तन्निबोध मे।। | 1-128-14a |
`श्वेतकेतोः पिता देवि तप उग्रं समास्थितः। ग्रीष्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशगोऽभवत्।। | 1-128-15a 1-128-15b |
शिशइरे सलिलस्थायी सह पत्न्या महातपाः। उद्दालकं तपस्यन्तं नियमेन समाहितम्।। | 1-128-16a 1-128-16b |
तस्य पुत्रः श्वेतकेतुः परिचर्यां चकार ह। अभ्यागच्छद्द्विजः कश्चिद्वलीपलितसंततः।। | 1-128-17a 1-128-17b |
तं दृष्ट्वैव मुनिः प्रीतः पूजयामास शास्त्रतः। स्वागतेन च पाद्येन मृदुवाक्यैश्च भारत।। | 1-128-18a 1-128-18b |
शाकमूलफलाद्यैश्च वन्यैरन्यैरपूजयत्। क्षुत्पिपासाश्रमेंणार्तः पूजितश्च महर्षिणा।। | 1-128-19a 1-128-19b |
विश्रान्तो मुनिमासाद्य पर्यपृच्छद्द्विजस्तदा। उद्दालक महर्षे त्वं सत्यं मे ब्रूहि माऽनृतम्।। | 1-128-20a 1-128-20b |
ऋषिपुत्रः कुमारोऽयं दर्शनीयो विशेषतः। तव पुत्रमिमं मन्ये कृतकृत्योऽसि तद्वद।। | 1-128-21a 1-128-21b |
उद्दालक उवाच। | 1-128-22x |
मम पत्नी महाप्राज्ञ कुशिकस्य सुता मता। मामेवानुगता पत्नी मम नित्यमनुव्रता।। | 1-128-22a 1-128-22b |
अरुन्धतीव पत्नीनां तपसा कर्शितस्तनी। अस्यां जातः श्वेतकेतुर्मम पुत्रो महातपाः।। | 1-128-23a 1-128-23b |
वेदवेदाङ्गविद्विप्र मच्छासनपरायणः। लोकज्ञः सर्वलोकेषु विश्रुतः सत्यवाग्घृणी।। | 1-128-24a 1-128-24b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-128-25x |
अपुत्री भार्यया चार्थी वृद्धोऽहं मन्दचाक्षुषः। पित्र्यादृणादनिर्मुक्तः पूर्वमेवाकृतस्त्रियः।। | 1-128-25a 1-128-25b |
प्रजारणिस्तु पत्नी ते कुलशीलसमन्विता। सदृशी मम गोत्रेण वहाम्येनां क्षमस्व मे।। | 1-128-26a 1-128-26b |
पाण्डुरुवाच। | 1-128-27x |
इत्युक्त्वा मृगशावाक्षीं चीरकृष्णाजिनाम्बराम्। यष्ट्याधारः स्रस्तगात्रो मन्दचक्षुरबुद्धिमान्।। | 1-128-27a 1-128-27b |
स्वव्यापाराक्षमां श्रेष्ठमचित्तामात्मनि द्विजः।' श्वेतकेतोः किल पुरा समक्षं मातरं पितुः।। | 1-128-28a 1-128-28b |
जग्राह ब्राह्मणः पापौ गच्छाव इति चाब्रवीत्। ऋषिपुत्रस्तदा कोपं चकारामर्षितस्तदा।। | 1-128-29a 1-128-29b |
मातरं तां तथा दृष्ट्वा नीयमानां बलादिव। `तपसा दीप्तवीर्यो हि श्वेतकेतुर्न चक्षमे।। | 1-128-30a 1-128-30b |
संगृह्य मातरं हस्ते श्वेतकेतुरभाषत। दुर्ब्राह्मण विमुञ्च त्वं मातरं मे पतिव्रताम्।। | 1-128-31a 1-128-31b |
स्वयं पिता मे ब्रह्मर्षिः क्षमावान्ब्रह्मवित्तमः। शापानुग्रहयोः शक्तः तूष्णींभूतो महाव्रतः।। | 1-128-32a 1-128-32b |
तस्य पत्नी दमोपेता मम माता विशेषतः। पतिव्रतां तपोवृद्धां साध्वाचारैरलङ्कृताम्।। | 1-128-33a 1-128-33b |
अप्रमादेन ते ब्रह्मन्मातृभूतां विमुञ्च वै।। | 1-128-34a |
एवमुक्त्वा तु याचन्तं विमुञ्चेति मुहुर्मुहुः। प्रत्यवोचद्द्विजो राजन्नप्रगल्भमिदं वचः।। | 1-128-35a 1-128-35b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-128-36x |
अपत्यार्थी श्वेतकेतो वृद्धोऽहं मन्दचाक्षुषः। पिता ते ऋणनिर्मुक्तस्त्वया पुत्रेण काश्यप।। | 1-128-36a 1-128-36b |
ऋणादहमनिर्मुक्तो वृद्धोऽहं विगतस्पृहः। मम को दास्यति सुतां कन्यां संप्राप्तयौवनाम्।। | 1-128-37a 1-128-37b |
प्रजारणिमिमां पत्नीं विमुञ्च त्वं महातपः। एकया प्रजया प्रीतो मातरं ते ददाम्यहम्।। | 1-128-38a 1-128-38b |
एवमुक्तः श्वेतकेतुर्लज्जया क्रोधमेयिवान्।' क्रुद्धं तं तु पिता दृष्ट्वा श्वेतकेतुमुवाच ह।। | 1-128-39a 1-128-39b |
मा तात कोपं कार्षीस्त्वमेष धर्मः सनातनः। अनावृता हि सर्वेषां वर्णानामङ्गना भुवि।। | 1-128-40a 1-128-40b |
यथा गावः स्थिताः पुत्र स्वेस्वे वर्णे तथा प्रजाः। `तथैव च कुटुम्बेषु न प्रमाद्यन्ति कर्हिचित्।। | 1-128-41a 1-128-41b |
ऋतुकाले तु संप्राप्ते भर्तारं न जहुस्तदा।' ऋषिपुत्रोऽथ तं धर्मं श्वेतकेतुर्न चक्षमे।। | 1-128-42a 1-128-42b |
चकार चैव मर्यादामिमां स्त्रीपुंसयोर्भुवि। मानुषेषु महाभागे न त्वेवान्येषु जन्तुषु।। | 1-128-43a 1-128-43b |
तदाप्रभृति मर्यादा स्थितेयमिति नः श्रुतम्। व्युच्चरन्त्याः पतिं नार्या अद्यप्रभृति पातकम्।। | 1-128-44a 1-128-44b |
भ्रूणहत्यासमं घोरं भविष्यत्यसुखावहम्। `अद्याप्यनुविधीयन्ते कामक्रोधविवर्जिताः।। | 1-128-45a 1-128-45b |
उत्तरेषु महाभागे कुरुष्वेवं यशस्विनि। पुराणदृष्टो धर्मोऽयं पूज्यते च महर्षिभिः।।' | 1-128-46a 1-128-46b |
भार्यां तथा व्युच्चरतः कौमारब्रह्मचारिणीम्। पतिव्रतामेतदेव भविता पातकं भुवि।। | 1-128-47a 1-128-47b |
नियुक्ता पतिना भार्या यद्यपत्यस्य कारणात्। न कुर्यात्तत्तथा भीरु सैनः सुमहदाप्नुयात्। इति तेन पुरा भीरु मर्यादा स्थापिता बलात्।। | 1-128-48a 1-128-48b 1-128-48c |
उद्दालकस्य पुत्रेण धर्म्या वै श्वेतकेतुना। सौदासेन च रम्भोरु नियुक्ता पुत्रजन्मनि।। | 1-128-49a 1-128-49b |
मदयन्ती जगामर्षिं वसिष्ठमिति नः श्रुतम्। तस्माल्लेभे च सा पुत्रमश्मकं नाम भामिनी।। | 1-128-50a 1-128-50b |
एवं कृतवती सापि भर्तुः प्रियचिकीर्षया। अस्माकमपि ते जन्म विदितं कमलेक्षणे।। | 1-128-51a 1-128-51b |
कृष्णद्वैपायनाद्भीरु कुरूणां वंशवृद्धये। अत एतानि सर्वाणि कारणानि समीक्ष्य वै।। | 1-128-52a 1-128-52b |
ममैतद्वचनं धर्म्यं कर्तुमर्हस्यनिन्दिते। ऋतावृतौ राजपुत्रि स्त्रिया भर्ता पतिव्रते।। | 1-128-53a 1-128-53b |
नातिवर्तव्य इत्येवं धर्मं धर्मविदो विदुः। शेषेष्वन्येषु कालेषु स्वातन्त्र्यं स्त्री किलार्हति।। | 1-128-54a 1-128-54b |
धर्ममेवं जनाः सन्तः पुराणं परिचक्षते। भर्ता भार्यां राजपुत्रि धर्म्यं वाऽधर्म्यमेव वा।। | 1-128-55a 1-128-55b |
यद्ब्रूयात्तत्तथा कार्यमिति वेदविदो विदुः। विशेषतः पुत्रगृद्धी हीनः प्रजननात्स्वयम्।। | 1-128-56a 1-128-56b |
यथाऽहमनवद्याङ्गि पुत्रदर्शनलालसः। अयं रक्ताङ्गुलिनखः पद्मपत्रनिभः शुभे।। | 1-128-57a 1-128-57b |
प्रसादनार्थं सुश्रोणि शिरस्यभ्युद्यतोऽञ्जलिः। मन्नियोगात्सुकेशान्ते द्विजातेस्तपसाऽधिकात्।। | 1-128-58a 1-128-58b |
पुत्रान्गुणसमायुक्तानुत्पादयितुमर्हसि। त्वत्कृतेऽहं पृथुश्रोणि गच्छेयं पुत्रिणां गतिम्।। | 1-128-59a 1-128-59b |
वैशंपायन उवाच। | 1-128-60x |
एवमुक्ता ततः कुन्ती पाण्डुं परपुरञ्जयम्। प्रत्युवाच वरारोहा भर्तुः प्रियहिते रता।। | 1-128-60a 1-128-60b |
`अधर्मः सुमहानेषु स्त्रीणां भरतसत्तम। यत्प्रसादयते भर्ता प्रसाद्यः क्षत्रियर्षभ। शृणु चेदं महाबाहो मम प्रीतिकरं चः।।' | 1-128-61a 1-128-61b 1-128-61c |
पितृवेश्मन्यहं बाला नियुक्ताऽतिथिपूजने। उग्रं पर्यचरं तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम्।। | 1-128-62a 1-128-62b |
निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः। तमहं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयम्।। | 1-128-63a 1-128-63b |
स मेऽभिचारसंयुक्तमाचष्ट भगवान्वरम्। मन्त्रं त्विमं च मे प्रादादब्रवीच्चैव मामिदम्।। | 1-128-64a 1-128-64b |
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि। अकामो वा सकामो वा वशं ते समुपैष्यति।। | 1-128-65a 1-128-65b |
तस्य तस्य प्रसादात्ते राज्ञि पुत्रो भविष्यति। इत्युक्ताऽहं तदा तेन पितृवेश्मनि भारत।। | 1-128-66a 1-128-66b |
ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तस्य कालोऽयमागतः। अनुज्ञाता त्वया देवमाह्वयेयमहं नृप।। | 1-128-67a 1-128-67b |
`यां मे विद्यां महाराज अददात्स महायशाः। तयाऽऽहूतः सुरः पुत्रं प्रदास्यति सुरोपमम्। अनपत्यकृतं यस्ते शोकं वीर विनेष्यति।।' | 1-128-68a 1-128-68b 1-128-68c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 128 ।।
1-128-4 अनावृताः सर्वैर्द्रष्टुं योग्याः। कामचारो रतिसुखं तदर्थं विहारिण्यः पर्यटनशीलाः। स्वतन्त्रा भर्त्रादिभिरनिवार्याः।। 1-128-5 पतीन्व्युच्चरमाणानां व्यभिचरन्तीनाम्।। 1-128-6 अनुविधीयन्ते अनुसार्यन्ते ईश्वरेण।। 1-128-11 नचिरादल्पकालतः।। 1-128-55 पुराणं युगान्तरीयम्।। 1-128-59 त्वत्कृते त्वया।। 1-128-64 अभिचारो देवताकर्षणशक्तिः।। अष्टविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 128 ।।
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