महाभारतम्-01-आदिपर्व-077
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शर्मिष्ठापुत्रदर्शनेन देवयान्याः शर्मिष्ठया सह संवादः।। 1 ।। देवयानीशर्मिष्ठयोः पुत्रान्तरोत्पत्तिः।। 2 ।। शर्मिष्ठापुत्रान्ययातिजाञ्ज्ञात्वा कुपितायाः देवयान्याः शुक्रसमीपे गमनम्।। 3 ।। ययातेः शुक्रशापाज्जराप्राप्तिः।। 4 ।। तस्या अन्यस्मिन्संक्रमणरूपवरप्राप्तिः।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-77-1x |
`तस्मिन्नक्षत्रसंयोगे शुक्ले पुण्यर्क्षगेन्दुना। स राजा मुमुदे सम्राट् तया शर्मिष्ठया सह।। | 1-77-1a 1-77-1b |
प्रजानां श्रीरिवाभ्याशे शर्मिष्ठा ह्यभवद्वधूः। पन्नगीवोग्ररूपा वै देवयानी ममाप्यभूत्।। | 1-77-2a 1-77-2b |
पर्जन्य इव सस्यानां देवानाममृतं यथा। तद्वन्ममापि संभूता शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी। इत्येवं मनसा ज्ञात्वा देवयानीमवर्जयत्।।' | 1-77-3a 1-77-3b 1-77-3c |
श्रुत्वा कुमारं जातं तु देवयानी शुचिस्मिता। चिन्तयामास दुःखार्ता शर्मिष्ठां प्रति भारत।। | 1-77-4a 1-77-4b |
अभिगम्य च शर्मिष्ठां देवयान्यब्रवीदिदम्। | 1-77-5a |
देवयान्वुवाच। | 1-77-5x |
किमिदं वृजिनं सुभ्रु कृतं वै कामलुब्धया।। | 1-77-5b |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-77-6x |
ऋषिरभ्यागतः कश्चिद्धर्मात्मा वेदपारगः। स मया वरदः कामं याचितो धर्मसंहितम्।। | 1-77-6a 1-77-6b |
`अपत्यार्थे स तु मया वृतो वै चारुहासिनि'। नाहमन्यायतः काममाचरामि शुचिस्मिते। तस्मादृषेर्ममापत्यमिति सत्यं ब्रवीमि ते।। | 1-77-7a 1-77-7b 1-77-7c |
देवयान्युवाच। | 1-77-8x |
शोभनं भीरु यद्येवमथ स ज्ञायते द्विजः। गोत्रनामाभिजनतो वेत्तुमिच्छामि तं द्विजम्।। | 1-77-8a 1-77-8b |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-77-9x |
तपसा तेजसा चैव दीप्यमानं यथा रविम्। तं दृष्ट्वा मम संप्रष्टुं शक्तिर्नासीच्छुचिस्मिते।। | 1-77-9a 1-77-9b |
देवयान्युवाच। | 1-77-10x |
यद्येतदेवं शर्मिष्ठे न मन्युर्विद्यते मम। अपत्यं यदि ते लब्धं ज्येष्ठाच्छ्रेष्ठाच्च वै द्विजात्।। | 1-77-10a 1-77-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-77-11x |
अन्योन्यमेवमुक्त्वा तु संप्रहस्य च ते मिथः। जगाम भार्गवी वेश्म तथ्यमित्यवजग्मुषी।। | 1-77-11a 1-77-11b |
ययातिर्देवयान्यां तु पुत्रावजनयन्नृपः। यदुं च तुर्वसुं चैव शक्रविष्णू इवापरौ।। | 1-77-12a 1-77-12b |
`तस्मिन्काले तु राजर्षिर्ययातिः पृथिवीपतिः। माध्वीकरससंयुक्तां मदिरां मदवर्धनीम्।। | 1-77-13a 1-77-13b |
पाययामास शुक्रस्य तनयां रक्तपिङ्गलाम्। पीत्वा पीत्वा च मदिरां देवयानी मुमोह सा।। | 1-77-14a 1-77-14b |
रुदती गायमाना च नृत्यन्ती च मुहुर्मुहुः। बहु प्रलपती देवी राजानमिदमब्रवीत्।। | 1-77-15a 1-77-15b |
राजवद्रूपवेषौ ते किमर्थं त्वमिहागतः। केन कार्येण संप्राप्तो निर्जनं गहनं वनम्।। | 1-77-16a 1-77-16b |
द्विजश्रेष्ठ नृपश्रेष्ठो ययातिश्चोग्रदर्शनः। तस्मादितः पलायस्व हितमिच्छसि चेद्द्विज।। | 1-77-17a 1-77-17b |
इत्येवं प्रलपन्तीं तां देवयानीं तु नाहुषः। भर्त्सयामास वचनैरनर्हां पापवर्धनीम्।। | 1-77-18a 1-77-18b |
ततो वर्षवरान्मूकान्व्यङ्गान्वृद्धांश्च पङ्गुकान्। रक्षणे देवयान्याः स पोषणे च शशास तान्।। | 1-77-19a 1-77-19b |
ततस्तु नाहुषो राजा शर्मिष्ठां प्राप्य बुद्धिमान्। रेमे च सुचिरं कालं तया शर्मिष्ठया सह।।' | 1-77-20a 1-77-20b |
तस्मादेव तु राजर्षेः शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी। द्रुह्युं चानुं च पूरुं च त्रीन्कुमारानजीजनत्।। | 1-77-21a 1-77-21b |
ततः काले तु कस्मिंश्चिद्देवयानी शुचिस्मिता। ययातिसहिता राजञ्जगाम रहितं वनम्।। | 1-77-22a 1-77-22b |
ददर्श च तदा तत्र कुमारान्देवरूपिणः। क्रीडमानान्सुविश्रब्धान्विस्मिता चेदमब्रवीत्।। | 1-77-23a 1-77-23b |
देवयान्युवाच। | 1-77-24x |
`कस्यैते दारका राजन्देवपुत्रोपमाः शुभाः। वर्चसा रूपतश्चैव सदृशा मे मतास्तव।। | 1-77-24a 1-77-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-77-25x |
एवं पृष्ट्वा तु राजानं कुमारान्पर्यपृच्छत।। | 1-77-25a |
तस्मिन्काले तु तच्छ्रुत्वा धात्री तेषां वचोऽब्रवीत्। किं न ब्रूत कुमारा वः पितरं वै द्विजर्षभम्।। | 1-77-26a 1-77-26b |
कुमारा ऊचुः। | 1-77-27x |
ऋषिश्च ब्राह्मणश्चैव द्विजातिश्चैव नः पिता। शर्मिष्ठा नानृतं ब्रूते देवयानि क्षमस्व नः।।' | 1-77-27a 1-77-27b |
देवयान्युवाच। | 1-77-28x |
किंनामधेयगोत्रो वः पुत्रका ब्राह्मणः पिता। प्रब्रूत तत्त्वतः क्षिप्रं कश्चासौ क्व च वर्तते।। | 1-77-28a 1-77-28b |
प्रब्रूत मे यथा तथ्यं श्रोतुमिच्छामि तं ह्यहम्। एवमुक्ताः कुमारस्ते देवयान्या सुमध्यया।। | 1-77-29a 1-77-29b |
तेऽदर्शयन्प्रदेशिन्या तमेव नृपसत्तमम्। शर्मिष्ठां मातरं चैव तथाऽऽचख्युश्च दारकाः।। | 1-77-30a 1-77-30b |
वैशंपायन उवाच। | 1-77-31x |
इत्युक्त्वा सहितास्ते तु राजानमुपचक्रमुः। नाभ्यनन्दत तान्राजा देवयान्यास्तदान्तिके।। | 1-77-31a 1-77-31b |
रुदन्तस्तेऽथ शर्मिष्ठामभ्ययुर्बालकास्ततः। `अविब्रुवन्ती किंचिच्च राजानं चारुलोचना।। | 1-77-32a 1-77-32b |
नातिदूराच्च राजानं सा चातिष्ठदवाङ्मुखी। श्रुत्वा तेषां तु बालानां सव्रीड इव पार्थिवः।। | 1-77-33a 1-77-33b |
प्रतिवक्तुमशक्तोऽभूत्तूष्णींभूतोऽभवन्नृपः। दृष्ट्वा तु तेषां बालानां प्रणयं पार्थिवं प्रति।। | 1-77-34a 1-77-34b |
बुद्ध्वा तु तत्त्वतो देवी शर्मिष्ठापिदमब्रवीत्। अभ्यागच्छति मां कश्चिदृषिरित्येवमब्रवीः।। | 1-77-35a 1-77-35b |
ययातिमेवं राजानं त्वं गोपायसि भामिनि। पूर्वमेव मया प्रोक्तं त्वया तु वृजिनं कृतम्।। | 1-77-36a 1-77-36b |
मदधीना सती कस्मादकार्षीर्विप्रियं मम। तमेवाऽऽसुरधर्मं त्वमास्थिता न बिभेषि मे।।' | 1-77-37a 1-77-37b |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-77-38x |
यदुक्तमृषिरित्येव तत्सत्यं चारुहासिनि। न्यायतो धर्मतश्चैव चरन्ती न बिभेमि ते।। | 1-77-38a 1-77-38b |
यदा त्वया वृतो भर्ता वृत एव तदा मया। सखीभर्ता हि धर्मेण भर्ता भवति शोभने।। | 1-77-39a 1-77-39b |
पूज्यासि मम मान्या च ज्येष्ठा च ब्राह्मणी ह्यसि। त्वत्तोपि मे पूज्यतमो राजर्षिः किं न वेत्थ तत्।। | 1-77-40a 1-77-40b |
`त्वत्पित्रा मम गुरुणा सह दत्ते उभे शुभे। ततो भर्ता च पूज्यश्च पोष्यां पोषयतीह माम्।। | 1-77-41a 1-77-41b |
वैशंपायन उवाच। | 1-77-42x |
श्रुत्वा तस्यास्ततो वाक्यं देवयान्यब्रवीदिदम्। रमस्वेह यथाकामं देव्या शर्मिष्ठया सह।। | 1-77-42a 1-77-42b |
राजन्नाद्येह वत्स्यामि विप्रियं मे कृतं त्वया। इति जज्वाल कोपेन देवयानी ततो भृशम्।। | 1-77-43a 1-77-43b |
निर्दहन्तीव सव्रीडां शर्मिष्ठां समुदीक्ष्य च। अपविध्य च सर्वाणि भूषणान्यसितेक्षणा।।' | 1-77-44a 1-77-44b |
सहसोत्पतितां श्यामां दृष्ट्वा तां साश्रुलोचनाम्। तूर्णं सकाशं काव्यस्य प्रस्थितां व्यथितस्तदा।। | 1-77-45a 1-77-45b |
अनुवव्राज संभ्रान्तः पृष्ठतः सान्त्वयन्नृपः। न्यवर्तत नचैव स्म क्रोधसंरक्तलोचना।। | 1-77-46a 1-77-46b |
अविब्रुवन्ती किंचित्सा राजानं साश्रुलोचना। अचिरादेव संप्राप्ता काव्यस्योशनसोऽन्तिकम्।। | 1-77-47a 1-77-47b |
सा तु दृष्ट्वै पितरमभिवाद्याग्रतः स्थिता। अनन्तरं यायातिस्तु पूजयामास भार्गवम्।। | 1-77-48a 1-77-48b |
देवयान्युवाच। | 1-77-49x |
अधर्मेण जितो धर्मः प्रवृत्तमधरोत्तरम्। शर्मिष्ठयाऽतिवृत्ताऽस्मि दुहित्रा वृषपर्वणः।। | 1-77-49a 1-77-49b |
त्रयोऽस्यां जनिताः पुत्रा राज्ञाऽनेन ययातिना। दुर्भगाया मम द्वौ तु पुत्रौ तात ब्रवीमि ते।। | 1-77-50a 1-77-50b |
धर्मज्ञ इति विख्यात एष राजा भृगूद्वह। अतिक्रान्तश्च मर्यादां काव्यैतत्कथयामि ते।। | 1-77-51a 1-77-51b |
शुक्र उवाच। | 1-77-52x |
धर्मज्ञः सन्महाराज योऽधर्ममकृथाः प्रियम्। तस्माज्जरा त्वामचिराद्धर्षयिष्यति दुर्जया।। | 1-77-52a 1-77-52b |
ययातिरुवाच। | 1-77-53x |
ऋतुं वै याचमानाया भगवन्नान्यचेतसा। दुहितुर्दानवेन्द्रस्य धर्म्यमेतत्कृतं मया।। | 1-77-53a 1-77-53b |
ऋतुं वै याचमानाया न ददाति पुमानृतुम्। भ्रूणहेत्युच्यते ब्रह्मन् स इह ब्रह्मवादिभिः।। | 1-77-54a 1-77-54b |
अभिकामां स्त्रियं यश्च गम्यां रहसि याचितः। नोपैति स च धर्मेषु भ्रूणहेत्युच्यते बुधैः।। | 1-77-55a 1-77-55b |
`यद्यद्वृणोति मां कश्चित्तत्तद्देयमिति व्रतम्। त्वया च सापि दत्ता मे नान्यं नाथमिहेच्छति'।। | 1-77-56a 1-77-56b |
इत्येतानि समीक्ष्याहं कारणानि भृगूद्वह। अधर्मभयसंविग्नः शर्मिष्ठामुपजग्मिवान्। `मत्वैतन्मे धर्म इति कृतं ब्रह्मन्क्षमस्व माम्।।' | 1-77-57a 1-77-57b 1-77-57c |
शुक्र उवाच। | 1-77-58x |
नन्वहं प्रत्यवेक्ष्यस्ते मदधीनोऽसि पार्थिव। मिथ्याचारस्य धर्मेषु चौर्यं भवति नाहुष।। | 1-77-58a 1-77-58b |
वैशंपायन उवाच। | 1-77-59x |
क्रुद्धेनोशनसा शप्तो ययातिर्नाहुषस्तदा। पूर्वं वयः परित्यज्य जरां सद्योऽन्वपद्यत।। | 1-77-59a 1-77-59b |
ययातिरुवाच। | 1-77-60x |
अतृप्तो यौवनस्याहं देवयान्यां भृगूद्वह। प्रसादं कुरु मे ब्रह्मञ्जरेयं न विशेच्च माम्।। | 1-77-60a 1-77-60b |
शुक्र उवाच। | 1-77-61x |
नाहं मृषा ब्रवीम्येतज्जरां प्राप्तोऽसि भूमिप। जरां त्वेतां त्वमन्यस्मिन्संक्रामय यदीच्छसि।। | 1-77-61a 1-77-61b |
ययातिरुवाच। | 1-77-62x |
राज्यभाक्स भवेद्ब्रह्मन्पुण्यभाक्कीर्तिभाक्तथा। यो मे दद्याद्वयः पुत्रस्तद्भवाननुमन्यताम्।। | 1-77-62a 1-77-62b |
शुक्र उवाच। | 1-77-63x |
संक्रामयिष्यसि जरां येथेष्टं नहुषात्मज। मामनुध्याय भावेन न च पापमवाप्स्यसि।। | 1-77-63a 1-77-63b |
वयो दास्यति ते पुत्रो यः स राजा भविष्यति। आयुष्मान्कीर्तिमांश्चैव बह्वपत्यस्तथैव च।। | 1-77-64a 1-77-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
1-77-49 अधरोत्तरं नीचस्याभिवृद्धिरुत्तमस्य ह्रासः। अतिवृत्तास्मि राज्ञः सकाशादपत्यत्रयाधिगमनेतिक्रान्तोल्लङ्घिताऽस्मि।। 1-77-52 अधर्ममेव प्रियमकृथाः।। 1-77-53 नान्यचेतसा न कामलोभेन।। 1-77-58 प्रत्यवेक्ष्यः अस्मिन्मकर्मणि मदाज्ञापि त्वया प्रार्थनीयेति भावः।। 1-77-62 ज्येष्ठस्य राज्याप्रदानजं पापम्।। सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।।
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