महाभारतम्-01-आदिपर्व-097
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वैशंपायन उवाच। | 1-97-1x |
गतान्मुनिगणान्दृष्ट्वा पुत्रं संगृह्य पाणिना। मातापितृभ्यां रहिता यथा शोचन्ति दारकाः।। | 1-97-1a 1-97-1b |
तथा शोकपरीताङ्गी धृतिमालम्ब्य दुःखिता। गतेषु तेषु विप्रेषु राजमार्गेण भामिनी।। | 1-97-2a 1-97-2b |
पुत्रेणैव सहायेन सा जगाम शनैः शनैः। अदृष्टपूर्वान्पश्यन्वै राजमार्गेण पौरवः।। | 1-97-3a 1-97-3b |
हर्म्यप्रसादचैत्यांश्च सभा दिव्या विचित्रिताः। कौतूहलसमाविष्टो दृष्ट्वा विस्मयमागतः।। | 1-97-4a 1-97-4b |
सर्वे ब्रुवन्ति तां दृष्ट्वा पद्महीनामिव श्रियम्। गत्या च संहीसदृशीं कोकिलेन स्वरे समाम्।। | 1-97-5a 1-97-5b |
मुखेन चन्द्रसदृशीं श्रिया पद्मालयासमाम्। स्मितेन कुन्दसदृशीं पद्मगर्भसमत्वचम्।। | 1-97-6a 1-97-6b |
पद्मपत्रविशालाक्षीं तप्तजाम्बूनदप्रभाम्। करान्तमितमध्यैषा सुकेशी संहतस्तनी।। | 1-97-7a 1-97-7b |
जघनं सुविशालं वै ऊरू करिकरोपमौ। रक्ततुङ्गतलौ पादौ धरण्यां सुप्रतिष्ठितौ।। | 1-97-8a 1-97-8b |
एवं रूपसमायुक्ता स्वर्गलोकादिवागता। इति स्म सर्वेऽमन्यन्त दुष्यन्तनगरे जनाः।। | 1-97-9a 1-97-9b |
पुनः पुनरवोचंस्ते शाकुन्तलगुणानपि। सिंहेक्षणः सिंहदंष्ट्रः सिंहस्कन्धो महाभुजः।। | 1-97-10a 1-97-10b |
सिंहोरस्कः सिंहबलः सिंहविक्रान्तगाम्ययम्। पृथ्वंसः पृथुवक्षाश्च छत्राकारशिरा महान्।। | 1-97-11a 1-97-11b |
पाणिपादतले रक्तो रक्तास्यो दुन्दुभिस्वनः। राजलक्षणयुक्तश्च राजश्रीश्चास्य लक्ष्यते।। | 1-97-12a 1-97-12b |
आकारेण च रूपेण शरीरेणापि तेजसा। दुष्यन्तेन समो ह्येष कस्य पुत्रो भविष्यति।। | 1-97-13a 1-97-13b |
एवं ब्रुवन्तस्ते सर्वे प्रशशंसुः सहस्रशः। युक्तिवादानवोचन्त सर्वाः प्राणभृतः स्त्रियः।। | 1-97-14a 1-97-14b |
बान्धवा इव सस्नेहा अनुजग्मुः शकुन्तलाम्। पौराणां तद्वचः श्रुत्वा तूष्णींभूता शकुन्तला।। | 1-97-15a 1-97-15b |
वेश्मद्वारं समासाद्य विह्वला सा नृपात्मजा। चिन्तयामास सहसा कार्यगौरवकारणात्।। | 1-97-16a 1-97-16b |
लज्जया च परीताङ्गी राजन्राजसमक्षतः। अघृणा किं नु वक्ष्यामि दुष्यन्तं मम कारणात्।। | 1-97-17a 1-97-17b |
एवमुक्त्वा तु कृपणा चिन्तयन्ती शकुन्तला।' अभिसृत्य च राजानं वेदिता सा प्रवेशिता।। | 1-97-18a 1-97-18b |
सह तेन कुमारेण तरुणादित्यवर्चसा। `सिंहासनस्थं राजानं महेन्द्रसदृशद्युतिम्।। | 1-97-19a 1-97-19b |
शकुन्तला नतशिराः परं हर्षमवाप्य च।' पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीत्तं शकुन्तला।। | 1-97-20a 1-97-20b |
`अभिवादय राजानं पितरं ते दृढव्रतम्। एवमुक्त्वा सुतं तत्र लज्जानतमुखी स्थिता।। | 1-97-21a 1-97-21b |
स्तम्भमालिङ्ग्य राजानं प्रसीदस्वेत्युवाच सा। शाकुन्तलोपि राजानमभिवाद्य कृताञ्जलिः।। | 1-97-22a 1-97-22b |
हर्षेणोत्फुल्लनयनो राजानं चान्ववैक्षत। दुष्यन्तो धर्मबुद्ध्या तु चिन्तयन्नेव सोब्रवीत्।। | 1-97-23a 1-97-23b |
किमागमनकार्यं ते ब्रूहि त्वं वरवर्णिनि। करिष्यामि न संदेहः सपुत्राया विशेषतः।। | 1-97-24a 1-97-24b |
शकुन्तलोवाच। | 1-97-25x |
प्रसीदस्व महाराज वक्ष्यामि पुरुषोत्तम। एष पुत्रो हि ते राजन्मय्युत्पन्नः परंतप।। | 1-97-25a 1-97-25b |
तस्मात्पुत्रस्त्वया राजन्यौवराज्येऽभिषिच्यताम्। यथोक्तमाश्रमे तस्मिन्वर्तस्व पुरुषोत्तम।। | 1-97-26a 1-97-26b |
मया समागमे पूर्वं कृतः स समयस्त्वया। तत्त्वं स्मर महाबाहो कण्वाश्रमपदं प्रति।। | 1-97-27a 1-97-27b |
वैशंपायन उवाच। | 1-97-28x |
तस्योपभोगसक्तस्य स्त्रीषु चान्यासु भारत। शकुन्तला सपुत्रा च मनस्यन्तरधीयत।। | 1-97-28a 1-97-28b |
स धारयन्मनस्येनां सपुत्रां सस्मितां तदा। तदोपगृह्य मनसा चिरं सुखमवाप सः।। | 1-97-29a 1-97-29b |
सोऽथ श्रुत्वापि तद्वाक्यं तस्या राजा स्मरन्नपि। अब्रवीन्न स्मरामीति त्वया भद्रे समागमम्।। | 1-97-30a 1-97-30b |
मैथुनं च वृथा नाहं गच्छेयमिति मे मतिः। नाभिजानामि कल्याणि त्वया सह समागमम्'।। | 1-97-31a 1-97-31b |
धर्मार्थकामसंबन्धं न स्मरामि त्वया सह। गच्छ वा तिष्ठ वा कामं यद्वापीच्छसि तत्कुरु।। | 1-97-32a 1-97-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।। 97 ।। |
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