महाभारतम्-01-आदिपर्व-047
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जरत्कारोरुद्वाहः।। 1 ।। तस्यां गर्भसंभवः।। 2 ।। समयोल्लङ्घनेन क्रुद्धस्य मुनेः तपोर्थं गमनम्।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-47-1x |
वासुकिस्त्वब्रवीद्वाक्यं जरत्कारुमृषिं तदा। सनाम्नी तव कन्येयं स्वसा मे तपसान्विता।। | 1-47-1a 1-47-1b |
भरिष्यामि च ते भार्यां प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम। रक्षणं च करिष्येऽस्याः सर्वशक्त्या तपोधन। त्वदर्थं रक्ष्यते चैषा मया मुनिवरोत्तम।। | 1-47-2a 1-47-2b 1-47-2c |
जरत्कारुरुवाच। | 1-47-3x |
न भरिष्येऽहमेतां वै एष मे समयः कृतः। अप्रियं च न कर्तव्यं कृते चैनां त्यजाम्यहम्।। | 1-47-3a 1-47-3b |
सौतिरुवाच। | 1-47-4x |
प्रतिश्रुते तु नागेन भरिष्ये भगिनीमिति। जरत्कारुस्तदा वेश्म भुजगस्य जगाम ह।। | 1-47-4a 1-47-4b |
तत्र मन्त्रविदां श्रेष्ठस्तपोवृद्धो महाव्रतः। जग्राह पाणिं धर्मात्मा विधिमन्त्रपुरस्कृतम्।। | 1-47-5a 1-47-5b |
ततो वासगृहं रम्यं पन्नगेन्द्रस्य संमतम्। जगाम भार्याम दाय स्तूयमानो महर्षिभिः।। | 1-47-6a 1-47-6b |
शयनं तत्र संक्लृप्तं स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्। तत्र भार्यासहायो वै जरत्कारुरुवास ह।। | 1-47-7a 1-47-7b |
स तत्र समयं चक्रे भार्यया सह सत्तमः। विप्रियं मे न कर्तव्यं न च वाच्यं कदाचन।। | 1-47-8a 1-47-8b |
त्यजेयं विप्रिये च त्वां कृते वासं च ते गृहे। एतद्गृहाण वचनं मया यत्समुदीरितम्।। | 1-47-9a 1-47-9b |
ततः परमसंविग्ना स्वसा नागपतेस्तदा। अतिदुःखान्विता वाक्यं तमुवाचैवमस्त्विति।। | 1-47-10a 1-47-10b |
तथैव सा च भर्तारं दुःखशीलमुपचारत्। उपायैः श्वेतकाकीयैः प्रियकामा यशस्विनी।। | 1-47-11a 1-47-11b |
ऋतुकाले ततः स्नाता कदाचिद्वासुकेः स्वसा। भर्तारं वै यथान्यायमुपतस्थे महामुनिम्।। | 1-47-12a 1-47-12b |
तत्र तस्याः समभवद्गर्भो ज्वलनसन्निभः। अतीव तेजसा युक्तो वैश्वानरसमद्युतिः।। | 1-47-13a 1-47-13b |
शुक्लपक्षे यथा सोमो व्यवर्धत तथैव सः। ततः कतिपयाहस्तु जरत्कारुर्महायशाः।। | 1-47-14a 1-47-14b |
उत्सङ्गेऽस्याः शिरः कृत्वा सुष्वाप परिखिन्नवत्। तस्मिंश्च सुप्ते विप्रेन्द्रे सवितास्तमियाद्गिरिम्।। | 1-47-15a 1-47-15b |
अह्नः परिक्षये ब्रह्मंस्ततः साऽचिन्तयत्तदा। वासुकेर्भगिनी भीता धर्मलोपान्मनस्विनी।। | 1-47-16a 1-47-16b |
किं नु मे सुकृतं भूयाद्भर्तुरुत्थापनं न वा। दुःखशीलो हि धर्मात्मा कथं नास्यापराध्नुयाम्।। | 1-47-17a 1-47-17b |
कोपो वा धर्मशीलस्य धर्मलोपोऽथवा पुनः। धर्मलोपो गरीयान्वै स्यादित्यत्राकरोन्मतिम्।। | 1-47-18a 1-47-18b |
उत्थापयिष्ये यद्येनं ध्रुवं कोपं करिष्यति। धर्मलोपो भवेदस्य सन्ध्यातिक्रमणे ध्रुवम्।। | 1-47-19a 1-47-19b |
इति निश्चित्य मनसा जरत्कारुर्भुजंगमा। तमृषिं दीप्ततपसं शयानमनलोपमम्।। | 1-47-20a 1-47-20b |
उवाचेदं वचः श्लक्ष्णं ततो मधुरभाषिणी। उत्तिष्ठ त्वं महाभाग सूर्योऽस्तमुपगच्छति।। | 1-47-21a 1-47-21b |
सन्ध्यामुपास्स्व भगवन्नपः स्पृष्ट्वा यतव्रतः। प्रादुष्कृताग्निहोत्रोऽयं मुहूर्तो रम्यदारुणः।। | 1-47-22a 1-47-22b |
सन्ध्या प्रवर्तते चेयं पश्चिमायां दिशि प्रभो। एवमुक्तः स भगवाञ्जरत्कारुर्महातपाः।। | 1-47-23a 1-47-23b |
भार्यां प्रस्फुरमाणौष्ठ इदं वचनमब्रवीत्। अवमानः प्रयुक्तोऽयं त्वया मम भुजंगमे।। | 1-47-24a 1-47-24b |
समीपे ते न वत्स्यामि गमिष्यामि यथागतम्। शक्तिरस्ति न वामोरु मयि सुप्ते विभावसोः।। | 1-47-25a 1-47-25b |
अस्तं गन्तुं यथाकालमिति मे हृदि वर्तते। न चाप्यवमतस्येह वासो रोचेत कस्यचित्।। | 1-47-26a 1-47-26b |
किं पुनर्धर्मशीलस्य मम वा मद्विधस्य वा। एवमुक्ता जरत्कारुर्भर्त्रा हृदयकम्पनम्।। | 1-47-27a 1-47-27b |
अब्रवीद्भगिनी तत्र वासुकेः सन्निवेशने। नावमानात्कृतवती तवाहं विप्रे बोधनम्।। | 1-47-28a 1-47-28b |
धर्मलोपो न ते विप्र स्यादित्येतन्मया कृतम्। उवाच भार्यामित्युक्तो जरत्कारुर्महातपाः।। | 1-47-29a 1-47-29b |
ऋषिः कोपसमाविष्टस्त्यक्तुकामो भुजंगमाम्। न मे वागनृतं प्राह गमिष्येऽहं भुजंगमे।। | 1-47-30a 1-47-30b |
समयो ह्येष मे पूर्वं त्वया सह मिथः कृतः। सुखमस्म्युषितो भद्रे ब्रूयास्त्वं भ्रातरं शुभे।। | 1-47-31a 1-47-31b |
इतो मयि गते भीरु गतः स भगवानिति। त्वं चापि मयि निष्क्रान्ते न शोकं कर्तुमर्हसि।। | 1-47-32a 1-47-32b |
इत्युक्ता साऽनवद्याङ्गी प्रत्युवाच मुनिं तदा। जरत्कारुं जरत्कारुश्चिन्ताशोकपरायणा।। | 1-47-33a 1-47-33b |
बाष्पगद्गदया वाचा मुखेन परिशुष्यता। कृताञ्जलिर्वरारोहा पर्यश्रुनयना ततः।। | 1-47-34a 1-47-34b |
धैर्यमालम्ब्य वामोरूर्हृदयेन प्रवेपता। न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम्।। | 1-47-35a 1-47-35b |
धर्मे स्थितां स्थितो धर्मे सदा प्रियहिते रताम्। प्रदाने कारणं यच्च मम तुभ्यं द्विजोत्तम।। | 1-47-36a 1-47-36b |
तदलब्धवतीं मन्दां किं मां वक्ष्यति वासुकिः। मातृशापाभिभूतानां ज्ञातीनां मम सत्तम।। | 1-47-37a 1-47-37b |
अपत्यमीप्सितं त्वत्तस्तच्च तावन्न दृश्यते। त्वत्तो ह्यपत्यलाभेन ज्ञातीनां मे शिवं भवेत्।। | 1-47-38a 1-47-38b |
संप्रयोगो भवेन्नायां मम मोघस्त्वया द्विज। ज्ञातीनां हितमिच्छन्ती भगवंस्त्वां प्रसादये।। | 1-47-39a 1-47-39b |
इममव्यक्तरूपं मे गर्भमाधाय सत्तम। कथं त्यक्त्वा महात्मा सन्गन्तुमिच्छस्यनागसम्।। | 1-47-40a 1-47-40b |
एवमुक्तस्तु स मुनिर्भार्यां वचनमब्रवीत्। यद्युक्तमनुरूपं च जरत्कारुं तपोधनः।। | 1-47-41a 1-47-41b |
अस्त्ययं सुभगे गर्भस्तव वैश्वानरोपमः। ऋषिः परमधर्मात्मा वेदवेदाङ्गपारगः।। | 1-47-42a 1-47-42b |
एवमुक्त्वा स धर्मात्मा जरत्कारुर्महानृषिः। उग्राय तपसे भूयो जगाम कृतनिश्चयः।। | 1-47-43a 1-47-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।। |
1-47-7 स्पर्ध्यं बहुमूल्यम्।। 1-47-9 विप्रिये कृते त्वां तव गृहे वासं च त्यजेयम्।। 1-47-11 श्वतकाकीयैः अनुकूलैः।। 1-47-15 उत्सङ्गे अङ्के।। 1-47-18 कोपो वा गरीयान्धर्मलोपो वा गरीयानिति कोदिद्वयमुपन्यस्य धर्मलोपमेव गुरुकरोति। कोपो वेति।। 1-47-22 प्रादुष्कृतः उद्धृतः अग्निहोत्रोऽग्निः यस्मिन्सः। धर्मसाधनत्वाद्रम्यः। भूतादिप्रचाराद्दारुणः।। 1-47-25 विभावसोः सूर्यस्य।। 1-47-39 संप्रयोगः संबन्ध। मोघो निष्फलः।। सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।।
आदिपर्व-046 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-048 |