महाभारतम्-01-आदिपर्व-244
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द्वारकाया बहिर्निर्गच्छतोऽर्जुनस्य विपृथुना युद्धम्।। 1 ।।
विपृथुं जित्वाऽर्जुनस्य खाण्डवप्रस्थंप्रति गमनम्।। 2 ।।
युद्धोद्युक्तानां यादवानां बलरामवाक्यान्निवृत्तिः।। 3 ।।
बलस्य क्रोधः।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-244-1x |
शासनात्पुरुषेन्द्रस्य बलेन महता बली। गिरौ रैवतके नित्यं बभूव विपृथुश्रवाः।। | 1-244-1a 1-244-1b |
प्रवासे वासुदेवस्य तस्मिन्हलधरोपमः। संबभूव तदा गोप्ता पुरस्य पुरवर्धनः।। | 1-244-2a 1-244-2b |
प्राप्य पाण्डवनिर्याणं निर्ययौ विपृथुश्रवाः। निशम्य पुरनिर्घोषं स्वमनीकमचोदयत्।। | 1-244-3a 1-244-3b |
सोऽभिपत्य तदाध्वानं ददर्श पुरुषर्षभम्। निःसृतं द्वारकाद्वारादंशुमन्तमिवाम्बिरात्।। | 1-244-4a 1-244-4b |
सविद्युतमिवाम्भोदं प्रेक्षतां तं धनुर्धरम्। पार्थमानर्तयोधानां विस्मयः समपद्यत।। | 1-244-5a 1-244-5b |
उदीर्णरथनागाश्वमनीकमभिवीक्ष्य तत्। उवाच परमप्रीता सुभद्रा भद्रभाषिणी।। | 1-244-6a 1-244-6b |
संग्रहीतुमभिप्रायो दीर्घकालकृतो मम। युध्यमानस्य सङ्ग्रामे रथं तव नरर्षभ।। | 1-244-7a 1-244-7b |
ओजस्तेजोद्युतिबलैरन्वितस्य महात्मनः। पार्थ ते सारथित्वेन भविता शिक्षितास्म्यहम्।। | 1-244-8a 1-244-8b |
एवमुक्तः प्रियां प्रीतः प्रत्युवाच नरर्षभः। चोदयाश्वानसंसक्तान्विश्तु विपृथोर्बलम्।। | 1-244-9a 1-244-9b |
बहुभिर्युध्यमानस्य तावकान्विजिघांसतः। पश्य बाहुबलं भद्रे शरान्विक्षिपतो मम।। | 1-244-10a 1-244-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-244-11x |
एवमुक्ता तदा भद्रा पार्थेन भरतर्षभ। चुचोद साश्वान्संहृष्टा ते ततो विविशुर्बलम्।। | 1-244-11a 1-244-11b |
तदाहतमहावाद्यं समुदग्रध्वजायुतम्। अनीकं विपृथोर्हृष्टं पार्थमेवान्ववर्तत।। | 1-244-12a 1-244-12b |
रथैर्बहुविधाकारैः सदश्वैश्च महाजवैः। किरन्तः शरवर्षाणि परिवव्रुर्धनञ्जयम्।। | 1-244-13a 1-244-13b |
तेषामस्त्राणि संवार्य दिव्यास्त्रेण महास्त्रवित्। आवृणोन्महदाकाशं शरैः परपुरञ्जयः।। | 1-244-14a 1-244-14b |
तेषां बाणान्महाबाहुर्मुकुटान्यङ्गदानि च। चिच्छेद निशितैर्बाणैः शरांश्चैव धनूंषि च।। | 1-244-15a 1-244-15b |
युगानीषान्वरूथानि यन्त्राणि विविधानि च। अजिघांसन्परान्पार्थश्चिच्छेद निशितैः शरैः।। | 1-244-16a 1-244-16b |
विधनुष्कान्विकवचान्विरथांश्च महारथान्। कृत्वा पार्थः प्रियां प्रीतः प्रेक्ष्यतामित्यदर्शयत्।। | 1-244-17a 1-244-17b |
सा दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सुभद्रा पार्थमब्रवीत्। अवाप्तार्थाऽस्मि भद्रं ते याहि पार्थ यथासुखम्।। | 1-244-18a 1-244-18b |
स सक्तं पाण्डुपुत्रेण समीक्ष्य विपृथुर्बलम्। त्वरमाणोऽभिसंक्रम्य स्थीयतामित्यभाषत।। | 1-244-19a 1-244-19b |
ततः सेनापतेर्वाक्यं नात्यवर्तन्त यादवाः। सागरे मारुतोद्धूता वेलामिव महोर्मयः।। | 1-244-20a 1-244-20b |
ततो रथवरात्तूर्णमवरुह्य नरर्षभः। अभिगम्य नरव्याघ्रं प्रहृष्टः परिषस्वजे।। | 1-244-21a 1-244-21b |
सोऽब्रवीत्पार्थमासाद्य दीर्घकालमिदं तव। निवासमभिजानामि शङ्खचक्रगदाधरात्।। | 1-244-22a 1-244-22b |
न मेऽस्त्यविदितं किंचिद्यद्यदाचितं त्वया। सुभद्रार्थं प्रलोभेन प्रीतस्तव जनार्दनः।। | 1-244-23a 1-244-23b |
प्राप्तस्य यतिलिङ्गेन वासितस्य धनञ्जय। बन्धुमानसि रामेण महेन्द्रावरजेन च।। | 1-244-24a 1-244-24b |
मामेव च सदाकाङ्क्षी मन्त्रिणं मधुसूदनः। अन्तरेण सुभद्रां च त्वां च तात धनञ्जय।। | 1-244-25a 1-244-25b |
इमं रथवरं दिव्यं सर्वशस्त्रसमन्वितम्। इदमेवानुयात्रं च निर्दिश्य गदपूर्वजः।। | 1-244-26a 1-244-26b |
अन्तर्द्वीपं तदा वीर गतो वृष्णिसुखावहः। दीर्घकालावरुद्धं त्वां संप्राप्तं प्रियया सह।। | 1-244-27a 1-244-27b |
पश्यन्तु भ्रातरः सर्वे वज्रपाणिमिवामराः। आयाते तु दशार्हाणामृषभे शार्ङ्गधन्वनि।। | 1-244-28a 1-244-28b |
भद्रामनुगमिष्यन्ति रत्नानि च वसूनि च। अरिष्टं याहि पन्थानं सुखी भव धनञ्जय।। | 1-244-29a 1-244-29b |
नष्टशोकैर्विशोकस्य सुहृद्भिः संगमोऽस्तु ते।। | 1-244-30a |
वैशंपायन उवाच। | 1-244-31x |
ततो विपृथुमामन्त्र्य पार्थः प्रीतोऽभिवाद्य च। कृष्णस्य मतमास्थाय कृष्णस्य रथमास्थितः।। | 1-244-31a 1-244-31b |
पूर्वमेव तु पार्थाय कृष्णेन विनियोजितम्। सर्वरत्नसुसंपूर्णं सर्वभोगसमन्वितम्।। | 1-244-32a 1-244-32b |
रथेन काञ्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि। शैब्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना।। | 1-244-33a 1-244-33b |
सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना। ज्वलनार्चिःप्रकाशेन द्विषतां हर्षनाशिना।। | 1-244-34a 1-244-34b |
सन्नद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्। युक्तः सेनानुयात्रेण रथणारोप्य माधवीम्। रथेनाकाशगेनैव पययौ *स्वपुरं प्रति।। | 1-244-35a 1-244-35b 1-243-35c |
ह्रियमाणां तु तां दृष्ट्वा सुभद्रां सैनिका जनाः। विक्रोशन्तोऽद्रवन्सर्वे द्वारकामभितः पुरीम्।। | 1-244-36a 1-244-36b |
ते समासाद्य सहिताः सुधर्मामभितः सभाम्। सभापालस्य तत्सर्वमाचख्युः पार्थविक्रमम्।। | 1-244-37a 1-244-37b |
तेषां श्रुत्वा सभापालो भेरीं सान्नाहिकीं ततः। समाजघ्ने महाघोषां जाम्बूनदपरिष्कृताम्।। | 1-244-38a 1-244-38b |
क्षुब्धास्तेनाथ शब्देन भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा। `अन्तर्द्वीपात्समुत्पेतुः सहसा सहितास्तदा।' अन्नपानमपास्याथ समापेतुः समन्ततः।। | 1-244-39a 1-244-39b 1-243-39c |
तत्र जाम्बूनदाङ्गानि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च। मणिविद्रुमचित्राणि ज्वलिताग्निप्रभाणि च।। | 1-244-40a 1-244-40b |
भेजिरे पुरुषव्याघ्रा वृष्ण्यन्धकमहारथाः। सिंहासनानि शतशो धिष्ण्यानीव हुताशनाः।। | 1-244-41a 1-244-41b |
तेषां समुपविष्टानां देवानामिव सन्नये। आचख्यौ चेष्टितं जिष्णोः सभापालः सहानुगः।। | 1-244-42a 1-244-42b |
तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरास्ते मदसंरक्तलोचनाः। अमृष्यमाणाः पार्थस्य समुत्पेतुरहङ्कृताः।। | 1-244-43a 1-244-43b |
योजयध्वं रथानाशु प्रासानाहरतेति च। धनूंषि च महार्हाणि कवचानि बृहन्ति च।। | 1-244-44a 1-244-44b |
सूतानुच्चुक्रुशुः केचिद्रथान्योजयतेति च। स्वयं च तुरगान्केचिदयुञ्जन्हेमभूषितान्।। | 1-244-45a 1-244-45b |
रथेष्वानीयमानेषु कवचेषु ध्वजेषु च। अभिक्रन्दे नृवीराणां तदासीत्तुमुलं महत्।। | 1-244-46a 1-244-46b |
वनमाली ततः क्षीबः कैलासशिखरोपमः। नीलवासा मदोत्सिक्त इदं वचनमब्रवीत्।। | 1-244-47a 1-244-47b |
किमिदं कुरुथाप्रज्ञास्तूष्णींभूते जनार्दने। अस्य भावमविज्ञाय संक्रुद्धा मोघगर्जिताः।। | 1-244-48a 1-244-48b |
एष तावदभिप्रायमाख्यातु स्वं महामतिः। यदस्य रुचिरं कर्तुं तत्कुरुध्वमतन्द्रिताः।। | 1-244-49a 1-244-49b |
ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा ग्राह्यरूपं हलायुधात्। तूष्णींभूतास्ततः सर्वे साधुसाध्विति चाब्रुवन्।। | 1-244-50a 1-244-50b |
समं वचो निशम्यैव बलदेवस्य धीमतः। पुनरेवसभामध्ये सर्वे ते समुपाविशन्।। | 1-244-51a 1-244-51b |
ततोऽब्रवीद्वासुदेवं वचो रामः परन्तपः। `त्रैलोक्यनाथ हे कृष्ण भूतभव्यभविष्यकृत्।' किमवागुपविष्टोऽसि प्रेक्षमाणो जनार्दन।। | 1-244-52a 1-244-52b 1-244-52c |
सत्कृतस्त्वत्कृते पार्थः सर्वैरस्माभिरच्युत। न च सोऽर्हति तां पूजां दुर्बुद्धिः कुलपांसनः।। | 1-244-53a 1-244-53b |
को हि तत्रैव भुक्तावान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति। मन्यमानः कुले जातमात्मानं पुरुषः क्वचित्।। | 1-244-54a 1-244-54b |
इच्छन्नेव हि संबन्धं कृतं पूर्वं च मानयन्। को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत्।। | 1-244-55a 1-244-55b |
सोऽवमन्य तथाऽस्माकमनादृत्य च केशवम्। प्रसह्य हृतवानद्य सुभद्रां मृत्युमात्मनः।। | 1-244-56a 1-244-56b |
कथं हि शिरसो मध्ये कृतं तेन पदं मम। मर्षयिष्यामि गोविन्द पादस्पर्शमिवोरगः।। | 1-244-57a 1-244-57b |
अद्य निष्कौरवामेकः करिष्यामि वसुन्धराम्। न हि मे मर्षणीयोऽयमर्जुनस्य व्यतिक्रमः।। | 1-244-58a 1-244-58b |
तं तथा गर्जमानं तु मेघदुन्दुभिनिःस्वनम्। अन्वपद्यन्त ते सर्वे भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा।। | 1-244-59a 1-244-59b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि सुभद्राहरणपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।। | |
।। समाप्तं च सुभद्राहरणपर्व ।। |
1-244-42 सन्नये समुदाये
चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।।
* 239 तमाध्यायस्य 26 श्लोकादुपरि प्रकृतश्लोकपर्यन्तं विद्यमानानां 248 श्लोकानां स्थाने च, ज, झ, ञ, ड, पुस्तकेषु अधोलिखिता अष्टौ श्लोका एव दृश्यन्ते।
1-244a-1x वैशंपायन उवाच। 1-244a-1a ततः संवादिते तस्मिन्ननुज्ञातो धनञ्जयः। 1-244a-1b गतां रैवतके कन्यां विदित्वा जनमेजय।। 1-244a-2a वासुदेवाभ्यनुज्ञातः कथयित्वेतिकृत्यताम्। 1-244a-2b कृष्णस्य मतमादाय प्रययौ भरतर्षभः।। 1-244a-3a रथेन काञ्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि। 1-244a-3b शैब्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना।। 1-244a-4a सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना। 1-244a-4b ज्वलिताग्निप्रकाशेन द्विषतां हर्षघातिना।। 1-244a-5a सन्नद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्। 1-244a-5b मृगयाव्यपदेशेन प्रययौ पुरुषर्षभः।। 1-244a-6a सुभद्रा त्वथ शैलेन्द्रमभ्यर्च्यैव हि रैवतम्। 1-244a-6b दैवतानि च सर्वाणि ब्राह्मणान्स्वस्तिवाच्य च।। 1-244a-7a प्रदक्षिणं गिरेः कृत्वा प्रययौ द्वारकां प्रति। 1-244a-7b तामभिद्रुत्य कौन्तेयः प्रसह्यारोपयद्रथम्। 1-244a-7c सुभद्रां चारुसर्वाङ्गीं कामबाणप्रपीडितः।। 1-244a-8a ततः स पुरुषव्याघ्रस्तामादाय शुचिस्मिताम्। 1-244a-8b रथेन काञ्चनाङ्गन प्रययौ स्वपुरं प्रति।।
आदिपर्व-243 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-245 |