महाभारतम्-01-आदिपर्व-167
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हिडिम्बावधे प्रवृत्तस्य भीमस्य युधिष्ठिरकृतं निवारणं।। 1 ।।
हिडिम्बया स्वस्य धर्मज्ञत्वस्य भविष्यज्ज्ञत्वस्य च प्रकटनम्।। 2 ।।
हिडिम्बाया धर्मिष्ठतां ज्ञात्वा तदङ्गीकरणे भीमं प्रति कुन्त्या आज्ञा।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-167-1x |
सा तानेवापतत्तूर्णं भगिनी तस्य रक्षसः। अब्रुवाणा हिडिम्बा तु राक्षसी पाण्डवान्प्रति।। | 1-167-1a 1-167-1b |
अभिवाद्य ततः कुन्तीं धर्मराजं च पाण्डवम्। अभिपूज्य ततः सर्वान्भीमसेनमभाषत।। | 1-167-2a 1-167-2b |
अहं ते दर्शादेव मन्मथस्य वशं गता। क्रूरं भ्रातृवचो हित्वा सा त्वामेवानिरुन्धती।। | 1-167-3a 1-167-3b |
राक्षसे रौद्रसङ्काशे तवापश्यं विचेष्टितम्। अहं शुश्रूषुरिच्छेयं तव गात्रं निषेवितुम्।।' | 1-167-4a 1-167-4b |
भीमसेन उवाच। | 1-167-5x |
स्मरन्ति वैरं रक्षांसि मायामाश्रित्य मोहिनीम्। हिडिम्बे व्रज पन्थानं त्वमिमं भ्रातृसेवितम्।। | 1-167-5a 1-167-5b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-167-6x |
क्रुद्धोऽपि पुरुषव्याघ्र भीम मा स्म स्त्रियं वधीः। शरीरगुप्त्यभ्यधिकं धर्मं गोपाय पाण्डव।। | 1-167-6a 1-167-6b |
वधाभिप्रायमायान्तमवधीस्त्वं महाबलम्। रक्षसस्तस्य भगिनी किं नः क्रुद्धा करिष्यति।। | 1-167-7a 1-167-7b |
वैशंपायन उवाच। | 1-167-8x |
हिडिम्बा तु ततः कुन्तीमभिवाद्य कृताञ्जलिः। युधिष्ठिरं तु कौन्तेयमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-167-8a 1-167-8b |
आर्ये जानासि यद्दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्। तदिदं मामनुप्राप्तं भीमसेनकृते शुभे।। | 1-167-9a 1-167-9b |
सोढं तत्परमं दुःखं मया कालप्रतीक्षया। सोऽयमभ्यागतः कालो भविता मे सुखोदयः।। | 1-167-10a 1-167-10b |
मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्मं स्वजनं तथा। वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे।। | 1-167-11a 1-167-11b |
वीरेणाऽहं तथाऽनेन त्वया चापि यशस्विनी। प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 1-167-12a 1-167-12b |
यदर्हसि कृपां कर्तुं मयि त्वं वरवर्णिनि। मत्वा मूढेति तन्मां त्वं भक्ता वाऽनुगतेति वा।। | 1-167-13a 1-167-13b |
भर्त्राऽनेन महाभागे संयोजय सुतेन ह। समुपादाय गच्छेयं यथेष्टं देवरूपिणम्। पुनश्चैवानयिष्यामि विस्रम्भं कुरु मे शुभे।। | 1-167-14a 1-167-14b 1-167-14c |
`अहं हि समये लप्स्ये प्राग्भ्रातुरपर्वजनात्। ततः सोऽभ्यपतद्रात्रौ भीमसेनजिघांसया।। | 1-167-15a 1-167-15b |
यथायथा विक्रमते यथारिमधितिष्ठति। तथातथा समासाद्य पाण्डवं काममोहिता।। | 1-167-16a 1-167-16b |
न यातुधान्यहं त्वार्ये न चास्मि रजनीचरी। ईशा रक्षस्स्वसा ह्यस्मि राज्ञि सालकटङ्कटी।। | 1-167-17a 1-167-17b |
पुत्रेण तव संयुक्ता युवतिर्देववर्णिनी। सर्वान्वोऽहमुपस्थास्ये पुरस्कृत्य वृकोदरम्।। | 1-167-18a 1-167-18b |
अप्रमत्ता प्रमत्तेषु शुश्रूषुरसकृत्त्वहम्।' वृजिने तारयिष्यामि दासीवच्च नरर्षभाः।। | 1-167-19a 1-167-19b |
पृष्ठेन वो वहिष्यामि विमानं सुकृतानिव। यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम्।। | 1-167-20a 1-167-20b |
`एवं ब्रुवन्ती ह तथा प्रत्याख्याता क्रियां प्रति। भूम्यां दुष्कृतिनो लोकान्गमिष्येऽहं न संशयः।। | 1-167-21a 1-167-21b |
अहं हि मनसा ध्यात्वा सर्वं वेत्स्यामि सर्वदा।' आपन्निस्तरणे प्राणान्धारयिष्ये न केनचित्।। | 1-167-22a 1-167-22b |
सर्वमावृत्य कर्तव्यं धर्मं समनुपश्यता। आपत्सु यो धारयति स वै धर्मविदुत्तमः।। | 1-167-23a 1-167-23b |
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते। पुम्यात्प्राणान्धारयति पुण्यं वै प्राणधारणम्।। | 1-167-24a 1-167-24b |
येन केनाचरेद्धर्मं तस्मिन्गर्हा न विद्यते। `महतोऽत्र स्त्रियं कामाद्वाधितां त्राहि मामपि।। | 1-167-25a 1-167-25b |
धर्मार्थकाममोक्षेषु दयां कुर्वन्ति साधवः। तत्तु धर्ममिति प्राहुर्मुनयो धर्मवत्सलाः।। | 1-167-26a 1-167-26b |
दिव्यज्ञानेन जानामि व्यतीतानागतानहम्। तस्माद्वक्ष्यामि वः श्रेय आसन्नं सर उत्तमम्।। | 1-167-27a 1-167-27b |
अद्यासाद्य सरः स्नात्वा विश्रम्य च वनस्पतौ। श्वः प्रभाते महद्भूतं प्रादुर्भूतं जगत्पतिम्।। | 1-167-28a 1-167-28b |
व्यासं कमलपत्राक्षं दृष्ट्वा शोकं विहास्यथ। धार्तराष्ट्राद्विवासं च दहनं वारणावते।। | 1-167-29a 1-167-29b |
त्राणं च विदुरात्तुभ्यं विदितं ज्ञानचक्षुषा। आवासे शालिहोत्रस्य स वो वासं विधास्यति।। | 1-167-30a 1-167-30b |
वर्षवातातपसहो ह्ययं पुण्यो वनस्पतिः। पीतमात्रे तु पानीये क्षुत्पिपासे विनश्यतः।। | 1-167-31a 1-167-31b |
तपसा शालिहोत्रेण सरो वृक्षश्च निर्मितः। कादम्बाः सारसा हंसाः कुरर्यः कुररैः सह।। | 1-167-32a 1-167-32b |
रुवन्ति मधुरं गीतं गान्धर्वस्वनमिश्रितम्। | 1-167-33a |
वैशंपायन उवाच। | 1-167-33x |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा कुन्ती वचनमब्रवीत्।। | 1-167-33b |
युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वधर्मविशारदम्। | 1-167-34a |
कुन्त्युवाच। | 1-167-34x |
त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठो मयोक्तं शृणु भारत।। | 1-167-34b |
राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्मं वदति साधु वै। भावेन दुष्टा भीमं वै किं करिष्यति राक्षसी।। | 1-167-35a 1-167-35b |
भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थं यदीच्छसि।' | 1-167-36a |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-167-36x |
एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वं हिडिम्बे नात्र संशयः।। | 1-167-36b |
स्थातव्यं तु त्वया धर्मे यथा ब्रूयां सुमध्यमे। `नित्यं कृताह्निका स्नाता कृतशौचा सुरूपिणी।।' | 1-167-37a 1-167-37b |
स्नातं कृताह्निकं भद्रे कृतकौतुकमङ्गलम्। भीमसेनं भजेथास्त्वमुदिते वै दिवाकरे।। | 1-167-38a 1-167-38b |
अहस्सु विहरानेन यथाकामं मनोजवा। अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेनः सदा निशि।। | 1-167-39a 1-167-39b |
प्राक्सन्ध्यातो विमोक्तव्यो रक्षितव्यश्च नित्यशः। एवं रमस्व भीमेन यावद्गर्भस्य वेदनम्।। | 1-167-40a 1-167-40b |
एष ते समयो भद्रे शुश्रूषा चाप्रमत्तया। नित्यानुकूलया भूत्वा कर्तव्यं शोभनं त्वया।। | 1-167-41a 1-167-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 167 ।। |
1-167-5 भ्रातृसेवितं पन्थानं मृत्युम्।। सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 167 ।।
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