महाभारतम्-01-आदिपर्व-181
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द्रोणहन्तृपुत्रोत्पादनेच्छया याजकान्वेषणार्थमतटो द्रुपदस्य उपयाजवचनेन याजसमीपगमनम्।। 1 ।।
पुत्रार्थं यज्ञे आरब्धे अग्निकुण्डाद्धृष्टद्युम्नस्योत्पत्तिस्तच्चरितमाकाशवाणी च।। 2 ।।
पाञ्चाल्या उत्पत्तिः।। 3 ।।
तयोर्नामकरणम्।। 4 ।।
द्रोणेन धृष्टद्युम्नस्यास्त्रशिक्षणम्।। 5 ।।
ब्राह्मण उवाच। | 1-181-1x |
अमर्षी द्रुपदो राजा कर्मसिद्धान्द्विजर्षभान्। अन्विच्छन्परिचक्राम ब्राह्मणावसथान्बहून्।। | 1-181-1a 1-181-1b |
पुत्रजन्म परीप्सन्वै शोकोपहतचेतनः। `द्रोणेन वैरं द्रुपदो न सुष्वाप स्मरन्सदा।' नास्ति श्रेष्ठमपत्यं म इति नित्यमचिन्तयत्।। | 1-181-2a 1-181-2b 1-181-2c |
जातान्पुत्रान्स निर्वेदाद्धिग्बन्धूनिति चाब्रवीत्। निःश्वासपरमश्चासीद्द्रोणं प्रतिचिकीर्षया।। | 1-181-3a 1-181-3b |
प्रभावं विनयं शिक्षां द्रोणस्य चरितानि च। क्षात्रेण च बलेनास्य चिन्तयन्नाध्यगच्छत।। | 1-181-4a 1-181-4b |
प्रतिकर्तुं नृपश्रेष्ठो यतमानोऽपि भारत। अभितः सोऽथ कल्माषीं गङ्गाकूले परिभ्रमन्।। | 1-181-5a 1-181-5b |
ब्राह्मणावसथं पुम्यमाससाद महीपतिः। तत्र नास्नातकः कश्चिन्न चासीदव्रती द्विजः।। | 1-181-6a 1-181-6b |
अधीयानौ महाभागौ सोऽपश्यत्संशितव्रतौ। याजोपयाजौ ब्रह्मर्षी शाम्यन्तौ परमेष्ठिनौ।। | 1-181-7a 1-181-7b |
संहिताध्ययने युक्तौ गोत्रतश्चापि काश्यपौ। तारणेयौ युक्तरूपौ ब्राह्मणावृषिसत्तमौ।। | 1-181-8a 1-181-8b |
स तावामन्त्रयामास सर्वकामैरतन्द्रितः। बुद्ध्वा बलं तयोस्तत्र कनीयांसमुपह्वरे।। | 1-181-9a 1-181-9b |
प्रपेदे च्छन्दयन्कामैरुपयाजं धृतव्रतम्। पादशुश्रूषणे युक्तः प्रियवाक्सर्वकामदः।। | 1-181-10a 1-181-10b |
अर्चयित्वा यथान्यायमुपयाजमुवाच सः। येन मे कर्मणा ब्रह्मन्पुत्रः स्याद्द्रोणमृत्यवे।। | 1-181-11a 1-181-11b |
`अर्जुनस्य भवेद्भार्या भवेद्या वरवर्णिनी।' उपयाज कृते तस्मिन् गवां दाताऽस्मि तेऽर्बुदं।। | 1-181-12a 1-181-12b |
यद्वा तेऽन्यद्द्विजश्रेष्ठ मनसः सुप्रियं भवेत्। सर्वं तत्ते प्रदाताऽहं न हि मेऽत्रास्ति संशयः।। | 1-181-13a 1-181-13b |
इत्युक्तो नाहमित्येवं तमृषिः प्रत्यभाषत। आराधयिष्यन्द्रुपदः स तं पर्यचरत्पुनः।। | 1-181-14a 1-181-14b |
ततः संवत्सरस्यान्ते द्रुपदं स द्विजोत्तमः। उपयाजोऽब्रवीत्काले राजन्मधुरया गिरा।। | 1-181-15a 1-181-15b |
ज्येष्ठो भ्राता ममागृह्माद्विचरन् गहने वने। अपरिज्ञातशौचायां भूमौ निपतितं फलम्।। | 1-181-16a 1-181-16b |
तदपश्यमहं भ्रातुरसाम्प्रतमनुव्रजन्। विमर्शं संकरादाने नायं कुर्यात्कदाचन।। | 1-181-17a 1-181-17b |
दृष्ट्वा फलस्य नापश्यद्दोषान्पापानुबन्धकान्। विविनक्ति न शौचं यः सोऽन्यत्रापि कथं भवेत्।। | 1-181-18a 1-181-18b |
संहिताध्ययनं कुर्वन्वसन्गुरुकुले च यः। भैक्षमुत्सृष्टमन्येषां भुङ्क्ते स्म च यदा तदा।। | 1-181-19a 1-181-19b |
कीर्तयन्गुणमन्नानामघृणी च पुनः पुनः। तं वै फलार्थिनं मन्ये भ्रातरं तर्कचक्षुषा।। | 1-181-20a 1-181-20b |
तं वै गच्छस्व नृपते स त्वां संयाजयिष्यति। जुगुप्समानो नृपतिर्मनसेदं विचिन्तयन्।। | 1-181-21a 1-181-21b |
उपयाजवचः श्रुत्वा याजस्याश्रममभ्यगात्। अभिसम्पूज्य पूजार्हमथ याजमुवाच ह।। | 1-181-22a 1-181-22b |
अयुतानि ददान्यष्टौ गवां याजय मां विभो। द्रोणवैराभिसन्तप्तं प्रह्लादयितुमर्हसि।। | 1-181-23a 1-181-23b |
स हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ब्रह्मास्त्रे चाप्यनुत्तमः। तस्माद्द्रोणः पराजैष्ट मां वै स सखिविग्रहे।। | 1-181-24a 1-181-24b |
क्षत्रियो नास्ति तस्यास्यां पृथिव्यां कश्चिदग्रणीः। कौरवाचायर्मुख्यस्य भारद्वाजस्य धीमतः।। | 1-181-25a 1-181-25b |
द्रोणस्य शरजालानि प्राणिदेहहराणि च। षडरत्नि धनुश्चास्य दृश्यते परमं महत्।। | 1-181-26a 1-181-26b |
स हि ब्राह्मणवेषेण क्षात्रं वेगमशंसयम्। प्रतिहन्ति महेष्वासो भारद्वाजो महामनाः।। | 1-181-27a 1-181-27b |
क्षत्रोच्छेदाय विहितो जामदग्न्य इवास्थितः। तस्य ह्यस्त्रबलं घोरमप्रधृष्यं नरैर्भुवि।। | 1-181-28a 1-181-28b |
ब्राह्मं सन्धारयंस्तेजो हुताहुतिरिवानलः। समेत्य स दहत्याजौ क्षात्रधर्मपुरःसरः।। | 1-181-29a 1-181-29b |
ब्रह्मक्षत्रे च विहिते ब्राह्मं तेजो विशिष्यते। सोऽहं क्षात्राद्बलाद्धीनो ब्राह्मं तेजः प्रपेदिवान्।। | 1-181-30a 1-181-30b |
द्रोणाद्विशिष्टमासाद्य भवन्तं ब्रह्मवित्तमम्। द्रोणान्तकमहं पुत्रं लभेयं युधि दुर्जयम्।। | 1-181-31a 1-181-31b |
तत्कर्म कुरु मे मे याज वितराम्यर्बुदं गवाम्। तथेत्युक्त्वा तु तं याजो याज्यार्थमुपकल्पयत्।। | 1-181-32a 1-181-32b |
गुर्वर्थ इति चाकाममुपयाजमचोदयत्। याजो द्रोणविनाशाय प्रतिजज्ञे तथा च सः।। | 1-181-33a 1-181-33b |
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य उपयाजो महातपाः। आचख्यौ कर्म वैतानं तदा पुत्रफलाय वै।। | 1-181-34a 1-181-34b |
स च पुत्रो महावीर्यो महातेजा महाबलः। इष्यते यद्विधो राजन्भविता ते तथाविधः।। | 1-181-35a 1-181-35b |
भारद्वाजस्य हन्तारं सोऽभिसन्धाय भूपतिः। आजह्वे तत्तथा सर्वं द्रुपदः कर्मसिद्धये।। | 1-181-36a 1-181-36b |
याजस्तु हवनस्यान्ते देवीमाज्ञापयत्तदा। प्रेहि मां राज्ञि पृषति मिथुनं त्वामुपस्थितम्।। | 1-181-37a 1-181-37b |
राज्ञ्युवाच। | 1-181-38x |
अवलिप्तं मुखं ब्रह्मन्दिव्यान्गन्धान्बिभर्मि च। सूतार्थे नोपलब्धाऽस्मि तिष्ठ याज मम प्रिये।। | 1-181-38a 1-181-38b |
याज उवाच। | 1-181-39x |
याजेन श्रपितं हव्यमुपयाजाभिमन्त्रितम्। कथं कामं न सन्दध्यात्सा त्वं विप्रेहि तिष्ठ वा।। | 1-181-39a 1-181-39b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-181-40x |
एवमुक्त्वा तु याजेन हुते हविषि संस्कृते। उत्तस्थौ पावकात्तस्मात्कुमारो देवसन्निभिः।। | 1-181-40a 1-181-40b |
ज्वालावर्णो घोररूपः किरीटी वर्म चोत्तमम्। बिभ्रत्सखङ्गः सशरो धनुष्मान्विनदन्मुहुः।। | 1-181-41a 1-181-41b |
सोऽध्यारोदद्रथवरं तेन च प्रययौ तदा। ततः प्रणेदुः पञ्चालाः प्रहृष्टाः साधुसाध्विति।। | 1-181-42a 1-181-42b |
हर्षाविष्टांस्ततश्चैतान्नेयं सेहे वसुन्धरा। भयापहो राजपुत्रः पञ्चालानां यशस्करः।। | 1-181-43a 1-181-43b |
राज्ञः शोकापहो जात एष द्रोणवधाय वै। इत्युवाच महद्भूतमदृश्यं खेचरं तदा।। | 1-181-44a 1-181-44b |
कुमारी चापि पाञ्चाली वेदीमध्यात्समुत्थिता। सुभगा दर्शनीयाङ्गी स्वसितायतलोचना।। | 1-181-45a 1-181-45b |
श्यामा पद्मपलाशाक्षी नीलकुञ्चितमूर्धजा। ताम्रतुङ्गनखी सुभ्रूश्चारुपीनपयोधरा।। | 1-181-46a 1-181-46b |
मानुषं विग्रहं कृत्वा साक्षादमरवर्णिनी। नीलोत्पलसमो गन्धो यस्याः क्रोशात्प्रधावति।। | 1-181-47a 1-181-47b |
या बिभर्ति परं रूपं यस्या नास्त्युपमा भुवि। देवदानवयक्षाणामीप्सितां देवरूपिणीम्।। | 1-181-48a 1-181-48b |
`सदृशी पाण्डुपुत्रस्य अर्जुनस्येति भारत। ऊचुः प्रहृष्टमनसो राजभक्तिपुरस्कृताः।।' | 1-181-49a 1-181-49b |
तां चापि जातां सुश्रोणीं वागुवाचाशरीरिणी। सर्वयोषिद्वरा कृष्णा निनीषुः क्षत्रियान्क्षयम्।। | 1-181-50a 1-181-50b |
सुरकार्यमियं काले करिष्यति सुमध्यमा। अस्या हेतोः कौरवाणां महदुत्पत्स्यते भयम्।। | 1-181-51a 1-181-51b |
तच्छ्रुत्वा सर्वपञ्चालाः प्रणेदुः सिंहसङ्घवत्। न चैतान्हर्षसम्पूर्णानियं सेहे वसुन्धरा।। | 1-181-52a 1-181-52b |
`पाञ्चालराजस्तां दृष्ट्वा हर्षादश्रूण्यवर्तयत्। परिष्वज्य च तां कृष्णां स्नुषा पाण्डोरिति ब्रुवन्। अङ्कमारोप्य पाञ्चालीं राजा हर्षमवाप सः।।' | 1-181-53a 1-181-53b 1-181-53c |
तौ दृष्ट्वा पार्षती याजं प्रपेदे वै सुतार्थिनी। न वै मदन्यां जननीं जानीयातामिमाविति।। | 1-181-54a 1-181-54b |
तथेत्युवाच तां याजो राज्ञः प्रियचिकीर्षया। तयोश्च नामनी चक्रुर्द्विजाः सम्पूर्णमानसाः।। | 1-181-55a 1-181-55b |
धृष्टत्वादत्यमर्षित्वाद्द्युम्नाद्युत्संभवादपि। धृष्टद्युम्नः कुमारोऽयं द्रुपदस्य भवत्विति।। | 1-181-56a 1-181-56b |
कृष्णेत्येवाब्रुवकन्कृष्णां कृष्णा।ञभूत्सा हि वर्णतः। तथा तन्मिथुनं जज्ञे द्रुपदस्य महामखे।। | 1-181-57a 1-181-57b |
`वैदिकाध्ययने पारं धृष्टद्युम्नो गतः परम्।।' | 1-181-58a |
धृष्टद्युम्नं तु पाञ्चाल्यमानीय स्वं निवेशनम्। उपाकरोदस्त्रहेतोर्भारद्वाजः प्रतापवान्।। | 1-181-59a 1-181-59b |
अमोक्षणीयं दैवं हि भावि मत्वा महामतिः। तथा तत्कृतवान्द्रोण आत्मकीर्त्यनुरक्षणात्।। | 1-181-60a 1-181-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वमि एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 181 ।। |
1-181-7 परमे ब्रह्मणि वेदे वा स्थातुं शीलं ययोस्तौ।। 1-181-8 तारणेयौ कुमारीप्रभवौ सूर्यभक्तौ वा।। 1-181-17 संकरादाने दोषयुक्तवस्त्वादाने।। 1-181-19 उत्सृष्टं उच्छिष्टम्।। 1-181-20 अघृणी लज्जाहीनः।। 1-181-21 इदं याजचरितं जुगुप्समानो निन्दन्। विचिन्तयन् स्वकार्यं चेति शेषः।। 1-181-23 अष्टावयुतानि ददानि। रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं देवतां गुरुमिति स्मृतेरुपायनमात्रमेतत् न दक्षिणा अर्वुदप्रतिज्ञानात्।। 1-181-24 पराजैष्ट पराजितवान्।। 1-181-25 तस्य तस्मात्। अग्रणीः श्रेष्ठः।। 1-181-56 धृष्टत्वात् प्रगल्भत्वात्। अत्यन्तममर्षः शत्रत्कर्षासहिष्णुत्वं तद्वत्त्वात्। द्युम्नं वित्तं तच्च राज्ञां बलमेव कवचकुण्डलादिकं वा सहोत्पन्नं तदादिर्यस्य शस्त्रास्त्रशौर्योत्साहादेस्तद्द्युम्नादि तस्योत्संभवादुत्कर्षेणोत्पत्तेश्च।। एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 181 ।।
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