महाभारतम्-01-आदिपर्व-257
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पुत्रैः सह संवादानन्तरं जरितायाः स्थानान्तरगमनम्।। 1 ।।
जरितोवाच। | 1-257-1x |
अस्माद्बिलान्निष्पतितमाखुं श्येनो जहार तम्। क्षुद्रं पद्भ्यां गृहीत्वा च यातो नात्र भयं हि वः।। | 1-257-1a 1-257-1b |
शार्ङ्गका ऊचुः। | 1-257-2x |
न हृतं तं वयं विद्मः श्येनेनाखुं कथंचन। अन्येऽपि भितारोऽत्र तेभ्योऽपि भमेव नः।। | 1-257-2a 1-257-2b |
संशयो वह्निरागच्छेद्दृष्टं वायोर्निवर्तनम्। मृत्युर्नो बिलवासिभ्यो बिले स्यान्नात्र संशयः।। | 1-257-3a 1-257-3b |
निःसंशयात्संशयितो मृत्युर्मातर्विशिष्यते। चर खे त्वं यथान्यायं पुत्रानाप्स्यसि शोभनान्।। | 1-257-4a 1-257-4b |
जरितोवाच। | 1-257-5x |
अहं वेगेन तं यान्तमद्राक्षं पततां वरम्। बिलादाखुं समादाय श्येनं पुत्रा महाबलम्।। | 1-257-5a 1-257-5b |
तं पतन्तं महावेगा त्वरिता पृष्ठतोऽन्वगाम्। आशिषोऽस्य प्रयुञ्जाना हरतो मूषिकं बिलात्।। | 1-257-6a 1-257-6b |
यो नो द्वेष्टारमादाय श्येनराज प्रधावसि। भव त्वं दिवमास्थाय निरमित्रो हिरण्मयः।। | 1-257-7a 1-257-7b |
स यदा भक्षितस्तेन श्येनेनाखुः पतत्रिणा। तदाहं तमनुज्ञाप्य प्रत्युपायां पुनर्गृहम्।। | 1-257-8a 1-257-8b |
प्रविशध्वं बिलं पुत्रा विश्रब्धा नास्ति वो भयम्। श्येनेन मम पश्यन्त्या हृत आखुर्महात्मना।। | 1-257-9a 1-257-9b |
शार्ङ्गका ऊचुः। | 1-257-10x |
न विद्महे हृतं मातः श्येनैनाखुं कथंचन। अविज्ञाय न शक्यामः प्रवेष्टं विवरं भुवः।। | 1-257-10a 1-257-10b |
जरितोवाच। | 1-257-11x |
अहं तमभिजानामि हृतं श्येनेन मूषिकम्। नास्ति वोऽत्र भयं पुत्राः क्रियतां वचनं मम।। | 1-257-11a 1-257-11b |
शार्ङ्गका ऊचुः। | 1-257-12x |
न त्वं मिथ्योपचारेण मोक्षयेथा भयाद्धि नः। समाकुलेषु ज्ञानेषु न बुद्धिकृतमेव तत्।। | 1-257-12a 1-257-12b |
न चोपकृतमस्माभिर्न चास्मान्वेत्थ ये वयम्। पीड्यमाना बिभर्ष्यस्मान्का सती के वयं तव।। | 1-257-13a 1-257-13b |
तरुणी दर्शीयाऽसि समर्था भर्तुरेषणे। अनुगच्छ पतिं मातुः पुत्रानाप्स्यसि शोमनान्।। | 1-257-14a 1-257-14b |
वयमस्निं समाविश्य लोकानाप्स्याम शोभनान्। अथास्मान्न दहेदग्निरायास्त्वं पुनरेव नः।। | 1-257-15a 1-257-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-257-16x |
एवमुक्ता ततः शार्ङ्गी पुत्रानुत्सृज्य खाण्डवे। जगाम त्वरिता देशं क्षेममग्नेरनामयम्।। | 1-257-16a 1-257-16b |
ततस्तीक्ष्णार्चिरभ्यागात्त्वरितो हव्यवाहनः। यत्र शार्ङ्गा वभूवुस्ते मन्दपालस्य पुत्रकाः।। | 1-257-17a 1-257-17b |
ततस्तं ज्वलितं दृष्ट्वा ज्वलनं ते विहङ्गमाः। `व्यथिताः करुणा वाचः श्रावयामासुरन्तिकात्।' जरितारिस्ततो वाक्यं श्रावयामास पावकम्।। | 1-257-18a 1-257-18b 1-257-18c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 257 ।। |
1-257-3 वह्निरागच्छेदित्यत्र संशयो यतो वायोः सकाशाद्वह्नेति वर्तनं दृष्टम्।।
1-257-5 अहं वैश्येनमायान्तं इति ङ. पाठः।। सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 257 ।।
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