महाभारतम्-01-आदिपर्व-089
दिखावट
← आदिपर्व-088 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-089 वेदव्यासः |
आदिपर्व-090 → |
शकुन्तलोपाख्यानारम्भः।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-89-1x |
भगवन्विस्तरेणेह भरतस्य महात्मनः। जन्म कर्म च सुश्रूषोस्तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 1-89-1a 1-89-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-89-2x |
पौरवाणां वंशकरो दुष्यन्तो नाम वीर्यवान्। पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम।। | 1-89-2a 1-89-2b |
चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं यो भुङ्क्ते मनुजेश्वरः। समुद्रावरणांश्चापि देशान्स समितिंजयः।। | 1-89-3a 1-89-3b |
आम्लेच्छावधिकान्सर्वान्स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः। रत्नाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्ण्यजनावृतान्।। | 1-89-4a 1-89-4b |
न वर्णसङ्करकरो न कृष्याकरकृज्जनः। न पापकृत्कश्चिदासीत्तस्मिन्राजनि शासति।। | 1-89-5a 1-89-5b |
धर्मे रतिं सेवमाना धर्मार्थावभिपेदिरे। तदा नरा नरव्याघ्र तस्मिञ्जनपदेश्वरे।। | 1-89-6a 1-89-6b |
नासीच्चोरभयं तात न क्षुधाभयमण्वपि। नासीद्व्याधिभयं चापि तस्मिञ्जनपदेश्वरे।। | 1-89-7a 1-89-7b |
स्वधर्मै रेमिरे वर्णा दैवे कर्मणि निःस्पृहाः। तमाश्रित्य महीपालमासंश्चैवाकुतोभयाः।। | 1-89-8a 1-89-8b |
कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि रसवन्ति च। सर्वरत्नसमृद्धा च मही पशुमती तथा।। | 1-89-9a 1-89-9b |
स्वकर्मनिरता विप्रा नानृतं तेषु विद्यते। स चाद्भुतमहावीर्यो वज्रसंहननो युवा।। | 1-89-10a 1-89-10b |
उद्यम्य मन्दरं दोर्भ्यां वहेत्सवनकाननम्। चतुष्पथगदायुद्धे सर्वप्रहरणेषु च।। | 1-89-11a 1-89-11b |
नागपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च बभूव परिनिष्ठतः। बले विष्णुसमश्चासीत्तेजसा भास्करोपमः।। | 1-89-12a 1-89-12b |
अक्षोभ्यत्वेऽर्णवसमः सहिष्णुत्वे धरासमः। संमतः स महीपालः प्रसन्नपुरराष्ट्रवान्।। | 1-89-13a 1-89-13b |
भूयो धर्मपरैर्भावैर्मुदितं जनमादिशत्।। | 1-89-14a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89 ।। |
1-89-5 न कृष्याकरकृत् कृषिकृन्न भुवोऽकृष्टपच्यत्वात्। आकरः सुवर्णादिधातूत्पत्तिस्थानं तत्रापि यत्नं न करोति पृथिव्या रत्नैर्धातुभिश्च पूर्णत्वात्।। 1-89-8 दैवे कर्मणि वृष्ट्याद्यर्थे कारीर्यादिकाम्यकर्मणि।। 1-89-9 तदेवाह कालेति।। 1-89-10 वज्रसंहननो दृढदेहः।। 1-89-11 सवनकाननं वनं जलमुपवनं वा।। 1-89-14 आदिशत् शशास।। एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89 ।।
आदिपर्व-088 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-090 |