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महाभारतम्-01-आदिपर्व-080

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।। उत्तरयायातारभ्यः ।। ययातेः स्वर्गगमनम्।। 1 ।।

वैशंपायन उवाच। 1-80-1x
एवं स नाहुषो राजा ययातिः पुत्रमीप्सितम्।
राज्येऽभिषिच्य मुदितो वानप्रस्थोऽभवन्मुनिः।।
1-80-1a
1-80-1b
उषित्वा च वने वासं ब्राह्मणैः संशितव्रतः।
फलमूलाशनो दान्तस्ततः स्वर्गमितो गतः।।
1-80-2a
1-80-2b
स गतः स्वर्निवासं तं निवसन्मुदितः सुखी।
कालेन नातिमहता पुनः शक्रेण पातितः।।
1-80-3a
1-80-3b
`साधुभिः संगतिं लब्ध्वा पुनः स्वर्गमुपेयिवान्। 1-80-4a
जनमेजय उवाच। 1-80-4x
स्वर्गतश्च पुनर्ब्रह्मन्निवसन्देववेश्मनि।
कालेन नातिमहता कथं शक्रेण पातितः'।।
1-80-4b
1-80-4c
निपतन्प्रच्युतः स्वर्गादप्राप्तो मेदिनीतलम्।
स्थित आसीदन्तरिक्षे स तदेति श्रुतं मया।।
1-80-5a
1-80-5b
तत एव पुनश्चापि गतः स्वर्गमिति श्रुतम्।
राज्ञा वसुमता सार्धमष्टकेन च वीर्यवान्।।
1-80-6a
1-80-6b
प्रतर्दनेन शिविना समेत्य किल संसदि।
कर्मणा केन स दिवं पुनः प्राप्तो महीपतिः।।
1-80-7a
1-80-7b
सर्वमेतदशेषेण श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।
कथ्यमानं त्वया विप्र विप्रर्षिगणसंनिधौ।।
1-80-8a
1-80-8b
देवराजसमो ह्यासीद्ययातिः पृथिवीपतिः।
वर्धनः कुरुवंशस्य विभावसुसमद्युतिः।।
1-80-9a
1-80-9b
तस्य विस्तीर्णयशसः सत्यकीर्तेर्महात्मनः।
चरितं श्रोतुमिच्छामि दिवि चेह च सर्वशः।।
1-80-10a
1-80-10b
वैशंपायन उवाच। 1-80-11x
हन्त ते कथयिष्यामि ययातेरुत्तरां कथाम्।
दिवि चेह च पुण्यार्थां सर्वपापप्रणाशिनीम्।।
1-80-11a
1-80-11b
ययातिर्नाहुषो राजा पूरुं पुत्रं कनीयसम्।
राज्येऽभिषिच्य मुदितः प्रावव्राज वनं तदा।।
1-80-12a
1-80-12b
अन्त्युषे स विनिक्षिप्य पुत्रान्यदुपुरोगमान्।
फलमूलाशनो राजा वने संन्यवसच्चिरम्।।
1-80-13a
1-80-13b
शंसितात्मा जितक्रोधस्तर्पयन्पितृदेवताः।
अग्नींश्च विधिवज्जुह्वन्वानप्रस्थविधानतः।।
1-80-14a
1-80-14b
अथितीन्पूजयामास वन्येन हविषा विभुः।
शिलोञ्छवृत्तिमास्थाय शेषान्नकृतभोजनः।।
1-80-15a
1-80-15b
पूर्णं वर्षसहस्रं च एवंवृत्तिरभून्नृपः।
अब्भक्षः शरदस्त्रिंशदासीन्नियतवाङ्मनाः।।
1-80-16a
1-80-16b
ततश्च वायुभक्षोऽभूत्संवत्सरमतन्द्रितः।
तथा पञ्चाग्निमध्ये च तपस्तेपे स वत्सरम्।।
1-80-17a
1-80-17b
एकपादः स्तितश्चासीत्षण्मासाननिलाशनः।
पुण्यकीर्तिस्ततः स्वर्गे जगामावृत्य रोदसी।।
1-80-18a
1-80-18b
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
संभवपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः।। 80 ।।

1-80-13 अन्त्येषु म्लेच्छेषु।। 1-80-17 पञ्चाग्नयश्चत्वारोऽग्नयः पञ्चमः सूर्यः।। 1-80-18 आवृत्य व्याप्य। रोदसी द्यावभूमी। पृथिव्यामिव स्वर्गेपि मुख्योऽभूदित्यर्थः।। अशीतितमोऽध्यायः।। 80 ।।

आदिपर्व-079 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आदिपर्व-081
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