महाभारतम्-01-आदिपर्व-206
दिखावट
← आदिपर्व-205 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-206 वेदव्यासः |
आदिपर्व-207 → |
भीमार्जुनाश्यां द्रौपद्याः भिक्षेत्यावेदने कुन्त्या पञ्चानां सह भोजनानुज्ञा।। 1 ।।
पश्चात् द्रौपदीदर्शनेन चिन्तान्वितायां कुन्त्यां युधिष्ठिरार्जुनयोः संवादः।। 2 ।।
द्वैपायनवचःस्मरणेन सर्वेषां द्रौपदी भार्येति युधिष्ठिरनिश्चयः।। 3 ।।
जनमेजयेन कृष्णस्य कार्मुकानारोपणे कारणप्रश्ने पाण्डवार्थमिति वैशंपायनस्योत्तरम्।। 4 ।।
कुलालशालांप्रति श्रीकृष्णस्यागमनम्।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-206-1x |
गत्वा तु तां भार्गवकर्मशालां पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ। तां याज्ञसेनीं परमप्रतीतौ भिक्षेत्यथावेदयतां नराग्र्यौ।। | 1-206-1a 1-206-1b 1-206-1c 1-206-1d |
कुटीगता सा त्वनवेक्ष्य पुत्रौ प्रोवाच भुङ्क्तेति समेत्य सर्वे। पश्चाच्च कुन्ती प्रसमीक्ष्य कृष्णां कष्टं मया भाषितमित्युवाच।। | 1-206-2a 1-206-2b 1-206-2c 1-206-2d |
साऽधर्मभीता परिचिन्तयन्ती तां याज्ञसेनीं परमप्रतीताम्। पाणौ गृहीत्वोपजगाम कुन्ती युधिष्ठिरं वाक्यमुवाच चेदम्।। | 1-206-3a 1-206-3b 1-206-3c 1-206-3d |
कुन्त्युवाच। | 1-206-4x |
इयं तु कन्या द्रुपदस्य राज्ञ- स्तवानुजाभ्यां मयि संनिसृष्टा। यथोचितं पुत्र मयाऽपि चोक्तं समेत्य भुङ्क्तेति नृप प्रमादात्।। | 1-206-4a 1-206-4b 1-206-4c 1-206-4d |
मया कथं नानृतमुक्तमद्य भवेत्कुरूणामृषभ ब्रवीहि। पञ्चालराजस्य सुतामधर्मो न चोपवर्तेत न विभ्रमेच्च।। | 1-206-5a 1-206-5b 1-206-5c 1-206-5d |
वैशंपायन उवाच। | 1-206-6x |
स एवमुक्तो मतिमान्नृवीरो मात्रा मुहूर्तं तु विचिन्त्य राजा। कुन्तीं समाश्वास्य कुरुप्रवीरो धनञ्जयं वाक्यमिदं बभाषे।। | 1-206-6a 1-206-6b 1-206-6c 1-206-6d |
त्वया जिता फाल्गुन याज्ञसेनी त्वयैव शोभिष्यति राजपुत्री। प्रज्वाल्यतामग्निरमित्रसाह गृहाण पाणिं विधिवत्त्वमस्याः।। | 1-206-7a 1-206-7b 1-206-7c 1-206-7d |
अर्जुन उवाच। | 1-206-8x |
मा मां नरेन्द्र त्वमधर्मभाजं कृथा न धर्मोऽयमशिष्टदृष्टः। भवान्निवेश्यः प्रथमं ततोऽयं भीमो महाबाहुरचिन्त्यकर्मा।। | 1-206-8a 1-206-8b 1-206-8c 1-206-8d |
अहं ततो नकुलोऽनन्तरं मे पश्चादयं सहदेवस्तरस्वी। वृकोदरोऽहं च यमौ च राज- न्नियं च कन्या भवतो नियोज्याः।। | 1-206-9a 1-206-9b 1-206-9c 1-206-9d |
एवं गते यत्करणीयमत्र धर्म्यं यशस्यं कुरु तद्विचिन्त्य। पाञ्चालराजस्य हितं च यत्स्या- त्प्रशाधि सर्वे स्म वशे स्थितास्ते।। | 1-206-10a 1-206-10b 1-206-10c 1-206-10d |
वैशंपायन उवाच। | 1-206-11x |
जिष्णोर्वचनमाज्ञाय भक्तिस्नेहसमन्वितम्। दृष्टिं निवेशयामासुः पाञ्चाल्यां पाण्डुनन्दनाः।। | 1-206-11a 1-206-11b |
दृष्ट्वा ते तत्र पश्यन्तीं सर्वे कृष्णां यशस्विनीम्। संप्रेक्ष्यान्योन्यमासीना हृदयैस्तामधारयन्।। | 1-206-12a 1-206-12b |
तेषां तु द्रौपदीं दृष्ट्वा सर्वेषाममितौजसाम्। संप्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रादुरासीन्मनोभवः।। | 1-206-13a 1-206-13b |
काम्यं हि रूपं पाञ्चाल्या विधात्रा विहितं स्वयम्। बभूवाधिकमन्याभ्यः सर्वभूतमनोहरम्।। | 1-206-14a 1-206-14b |
तेषामाकारभावज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। द्वैपायनवचः कृत्स्नं सस्मार मनुजर्षभः।। | 1-206-15a 1-206-15b |
अब्रवीत्सहितान्भ्रातॄन्मिथो भेदभयान्नृपः। सर्वेषां द्रौपदी भार्या भविष्यति हि नः शुभा।। | 1-206-16a 1-206-16b |
`जनमेजय उवाच। | 1-206-17x |
सताऽपि शक्तेन च केशवेन सज्यं धनुस्तन्न कृतं किमर्थम्। विद्धं च लक्ष्यं न च कस्य हेतो- राचक्ष्व तन्मे द्विपदां वरिष्ठ।। | 1-206-17a 1-206-17b 1-206-17c 1-206-17d |
वैशंपायन उवाच। | 1-206-18x |
शक्तेन कृष्णेन च कार्मुकं त- न्नारोपितं ज्ञातुकामेन पार्थान्। परिश्रवादेव बभूव लोके जीवन्ति पार्था इति निश्चयोऽस्य।। | 1-206-18a 1-206-18b 1-206-18c 1-206-18d |
अन्यानशक्तान्नृपतीन्समीक्ष्य स्वयंवरे कार्मुकेणोत्तमेन। धनञ्जयस्तद्धनुरेकवीरः सज्यं करोतीत्यभिवीक्ष्य कृष्णः।। | 1-206-19a 1-206-19b 1-206-19c 1-206-19d |
इति स्वयं वासुदेवो विचिन्त्य पार्थान्विवित्सन्विविधैरुपायैः। न तद्धनुः सज्यमियेप कर्तुं बभूवुरस्येष्टतमा हि पार्थाः।।' | 1-206-20a 1-206-20b 1-206-20c 1-206-20d |
भ्रातुर्वचस्तत्प्रसमीक्ष्य सर्वे ज्येष्ठस्य पाण्डोस्तनयास्तदानीम्। तमेवार्थं ध्यायमाना मनोभिः सर्वे च ते तस्थुरदीनसत्वाः।। | 1-206-21a 1-206-21b 1-206-21c 1-206-21d |
वृष्णिप्रवीरस्तु कुरुप्रवीरा- नाशंसमानः सहरौहिणेयः। जगाम तां भार्गवकर्मशालां यत्रासते ते पुरुषप्रवीराः।। | 1-206-22a 1-206-22b 1-206-22c 1-206-22d |
तत्रोपविष्टं पृथुदीर्घबाहुं ददर्श कृष्णः सहरौहिणेयः। अजातशत्रुं परिवार्य तांश्चा- प्युपोपविष्टाञ्ज्वलनप्रकाशान्।। | 1-206-23a 1-206-23b 1-206-23c 1-206-23d |
ततोऽब्रवीद्वासुदेवोऽभिगम्य कुन्तीसुतं धर्मभृतां वरिष्ठम्। कृष्णोऽहमस्मीति निपीड्य पादौ युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः।। | 1-206-24a 1-206-24b 1-206-24c 1-206-24d |
तथैव तस्याप्यनु रौहिणेय- स्तौ चापि हृष्टाः कुरवोऽभ्यनन्दन। पितृष्वसुश्चापि यदुप्रवीरा- वगृह्णतां भारतमुख्य पादौ।। | 1-206-25a 1-206-25b 1-206-25c 1-206-25d |
अजातशत्रुश्च कुरुप्रवीरः पप्रच्छ कृष्णं कुशलं विलोक्य। कथं वयं वासुदेव त्वयेह गूढा वसन्तो विदिताश्च सर्वे।। | 1-206-26a 1-206-26b 1-206-26c 1-206-26d |
तमब्रवीद्वासुदेवः प्रहस्य गूढोऽप्यग्निर्ज्ञायत एव राजन्। तं विक्रमं पाण्डवेयानतीत्य कोऽन्यः कर्ता विद्यते मानुषेषु।। | 1-206-27a 1-206-27b 1-206-27c 1-206-27d |
दिष्ट्या सर्वे पावकाद्विप्रमुक्ता यूयं घोरात्पाण्डवाः शत्रुसाहाः। दिष्ट्या पापो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः सहामात्यो न सकामोऽभविष्यत्।। | 1-206-28a 1-206-28b 1-206-28c 1-206-28d |
भद्रं वोऽस्तु निहितं यद्गुहायां विवर्धध्वं ज्वलना इवैधमानाः। मा वो विद्युः पार्थिवाः केचिदेव यास्यावहे शिबिरायैव तावत्। सोऽनुज्ञातः पाण्डवेनाव्ययश्रीः प्रायाच्छीघ्रं बलदेवेन सार्धम्।। | 1-206-29a 1-206-29b 1-206-29c 1-206-29d 1-206-29e 1-206-29f |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि स्वयंवरपर्वणि षडधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 206 ।। |
1-206-12 दृष्ट्वा ते तत्र तिष्ठन्ती इति ङ. पाठः।। 1-206-29 यद्भद्रं गुहायां बुद्धौ वो निहितं तद्वोस्तु।। षडधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 206 ।।
आदिपर्व-205 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-207 |